[अपक्षय एवं अपरदन]
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Toggleबहिर्जात बल-:
पृथ्वी की सतह पर कार्यरत ऐसे बल, जो धरातल की विषमता को दूर करके धरातल को समतल बनाने का कार्य करते हैं उन्हें बहिर्जात बल कहते हैं।
जैसे-: बहती हवा, बहता जल, वर्षा।
अनाच्छादन (denudation)-:
विषम धरातल को समतल बनाने वाली समस्त क्रिया अनाच्छादन कहलाती है। अनाच्छादन के अंतर्गत अपक्षय अपरदन एवं निक्षेपन की क्रियाएं शामिल है।
अनाच्छादन का महत्व-:
अनाच्छादन की क्रिया द्वारा ही मृदा का निर्माण होता है।
अनाच्छादन की क्रिया विभिन्न प्रकार की स्थलाकृतियों के निर्माण में सहायक है।
अनाच्छादन की प्रक्रिया से ही बहुमूल्य खनिजों एवं उपजाऊ मिटटी का किसी एक निश्चित स्थान पर संकेंद्रण हो पाता है।
[अपक्षय(weathering)]
यांत्रिक , रासायनिक या जैविक कारणों से चट्टानों का अपने ही स्थान पर टूटने या वियोजित होने की क्रिया अपक्षय कहलाती है।
अपक्षय दो रूपों में होता है-:
विघटन-: तापमान, वर्षा आदि के प्रभाव से चट्टानों का छोटे-छोटे टुकड़ों में टूटना विघटन कहलाता है।
अपघटन-: जब चट्टानें वायुमंडलीय गैसों या जल से क्रिया करके, घुलनशील पदार्थ में परिवर्तित हो जाती है तो इसे अपघटन कहते हैं।
अपक्षय के प्रकार-:
भौतिक अपक्षय-:
जब चट्टानों का अपक्षय यांत्रिक कारकों द्वारा होता है तो उसे भौतिक अपक्षय कहते है।
भौतिक अपक्षय के कारक-:
तापीय अपक्षय-: यह अपक्षय मुख्यतः अधिक तापांतर वाले उष्ण क्षेत्रों में होता है। क्योंकि दिन के समय या गर्मी के मौसम में तापमान अधिक होने पर चट्टाने विस्तारित होती है इसके विपरीत रात के समय एवं ठंड के मौसम में तापमान कम होने से चट्टाने संकुचित हो जाती हैं और यह फैलने-सिकुड़ने की क्रिया चट्टानों का अपक्षय(विखंडन) कर देती है।
वर्षा द्वारा अपक्षय-: जब गर्म प्रदेशों कि तप्त चट्टानों में अचानक से वर्षा होती है तो चट्टानों में चटकन आ जाती है और चट्टानों का अपक्षय होता हैं।
तुषारापात-: तुषारापात द्वारा चट्टानों का अपक्षय मुख्यतः शीतोष्ण तथा शीत कटिबंध क्षेत्रों में होता है क्योंकि इन क्षेत्रों में दिन के समय जल लिक्विड अवस्था में होता है जो चट्टानों के रंध्रों में भर जाता है किंतु रात के समय तापमान में कमी के कारण वह जल बर्फ बन जाता है जिसका आयतन अपेक्षाकृत अधिक होता है परिणाम स्वरुप जल का बर्फ और बर्फ के जल बनने से चट्टानों का अपक्षय होता है।
वायु द्वारा अपक्षय-: धूल कण युक्त वायु के घर्षण से भी चट्टानों का अपक्षय होता है।
भूकंप या भूस्खलन द्वारा-: भूस्खलन या भूकंप के माध्यम से भी चट्टाने टूट जाती है।
रासायनिक अपक्षय-:
जब चट्टानों का अपक्षय रासायनिक क्रिया के कारण होता है तो इसे रासायनिक अपक्षय कहते हैं।
रासायनिक अपक्षय के कारक-:
ऑक्सीकरण-: यह प्रक्रिया मुख्यतः लौह युक्त चट्टानों में होती है, क्योंकि चट्टानों के लौह अयस्क जल एवं वायु में उपस्थित ऑक्सीजन के साथ अभिक्रिया करके लोहे ऑक्साइड(fe2O3) बना लेते हैं जिससे चट्टान कमजोर हो जाती हो और उसका अपक्षय हो जाता है।
कार्बोनीकरण-: जल कार्बन डाइऑक्साइड से मिलकर कार्बनिक अम्ल बनाता है और यह कार्बनिक अम्ल चट्टानों के कैल्शियम ,मैग्नीशियम तथा सोडियम खनिजों से अभिक्रिया करके चट्टानों को तोड़ देता है।
जलयोजन-: चट्टानों में उपस्थित खनिजों का जल के साथ घुल जाना जलयोजन कहलाता है, जलयोजन की प्रक्रिया से चट्टानों के बंध कमजोर पड़ने लगते हैं जिससे चट्टाने टूटने लगती हैं।
जैविक अपक्षय -:
जब चट्टानों का अपक्षय जैविक कारकों जैसे -: वनस्पति और जीव-जंतुओं द्वारा होता है तो उसे जैविक अपक्षय कहते हैं।
जैविक अपक्षय के कारक-:
वनस्पतियों द्वारा अपक्षय-: कुछ वनस्पतियां चट्टानों की दरारों में उग जाती हैं और अपनी मोटाई द्वारा चट्टानों की दरार को बढ़ाकर तथा चट्टानों से कैल्शियम , मैग्नीशियम,पोटेशियम जैसे खनिजों को अवशोषित करके उनका अपक्षय करती है।
जीव जंतुओं द्वारा अपक्षय-: पृथ्वी में विभिन्न प्रकार के जीव जंतु जैसे-: चूहे ,केंचुआ, खरगोश, लोमड़ी, दीमक ,चीटियां अपने निवास के लिए चट्टानों में बिल बनाते हैं जिससे चट्टानें कमजोर होकर टूट जाती हैं।
मानव द्वारा अपक्षय-: मानव अपने स्वार्थ के लिए चट्टानों का खनन कार्य करता है जैसे-: सड़क निर्माण हेतु, पेट्रोलियम कोयला प्राप्ति हेतु, जिससे भी चट्टानों का अपक्षय होता है।
चट्टानों के अपक्षय को प्रभावित करने वाले कारक-:
चट्टानों का संगठन-: यदि चट्टानों का संगठन कठोर होता है तो उनका अपक्षय अपेक्षाकृत कम होता है इसके विपरीत असंगठित चट्टानों का अपक्षय अधिक होता है।
संबंधित क्षेत्र की जलवायु-: जिन क्षेत्रों में अधिक तापांतर, अधिक वर्षा, अधिक हवा चलती है उन क्षेत्रों की चट्टानों का अपक्षय अधिक होता है। यही कारण है कि शुष्क क्षेत्रों में तापांतर अधिक होने के कारण यहां की चट्टानों का अपक्षय अधिक होता है।
स्थल का ढाल-: तीव्र ढाल वाली चट्टानों का अपक्षय अपेक्षाकृत अधिक होता है।
[अपरदन]
चट्टानों के टूटे हुए अवसादो (चूर्ण)का विभिन्न कारकों के माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान में स्थानांतरित होना अपरदन कहलाता है।
अपरदन की सहयोगी क्रियाएं-:
अपघर्षण-: नदी, हिमनद,पवन द्वारा बहा कर लाए गए चट्टानी टुकड़ों और नदी के तलकी चट्टानों के मध्य होने वाला घर्षण अपघर्षण कहलाता है अपघर्षण से तलीय चट्टानों का अपरदन होता है।
सन्नीघर्षण-: नदी, हिमनद या पवन द्वारा बहा कर लाए गए चट्टानी मलबे के मध्य आपस में होने वाला घर्षण सन्नीघर्षण कहलाता है, सन्नीघर्षण से बहाकर लाई गई चट्टानों का अपरदन होता है।
उत्पादन-: हिमानी अपने मार्ग में आने वाले सभी उठे हुए भाग को उखाड़कर सपाट मार्ग का निर्माण करती है तो इसे उत्पादन कहते हैं।
अपरदन चक्र-:
अपरदन चक्र वह प्रक्रिया है जिसमें अंतर्जात बल द्वारा विषमताओं का निर्माण होता है और बाहिर्जा बलों द्वारा, उन विषमताओं के कटाव, बहाव के माध्यम से अपरदन कर दिया जाता है। जिससे पुनः समतल मैदान की प्राप्ति हो जाती है और यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है इसे अपरदन चक्र कहते हैं।
अपरदन चक्र की व्याख्या 1899 में डेविस महोदय ने की।
निक्षेपण-:
अपरदित पदार्थों का किसी एक स्थान में जमा हो जाना निक्षेपन कहलाता है।
नदी के अपरदन एवं निक्षेपन से निर्मित स्थलाकृतियां-:
नदी के अपरदन से बनने वाली आकृतियां
V आकार की घाटी
नदी के लंबवत अपरदन द्वारा निर्मित ऐसी घाटी जिसका आकार अंग्रेजी केV अक्षर के समान होता है
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गार्ज या कैनियन।
जब नदी के लंबवत अपरदन से खड़े धान की सीधी खाई का निर्माण होता है तो इसे गार्ज कहा जाता है
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जलप्रपात।
जब कोई नदी किसी खड़े ढाल से नीचे गिरती हो तो उसे जलप्रपात कहते हैं।
क्षिप्रिका।
जब कोई नदी पर्वतीय क्षेत्रों में कठोर शैलों के ढाल के अनुरूप प्रवाहित होती है तो इसे शिवपुरी का कहते हैं।
संरचनात्मक सोपान।
जब नदी के अपरदन से सीडी नुमा आकृति बनती है तो इसे संरचनात्मक सोपन कहते हैं।
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नदी वेदिका।
जब नदी के अपरदन से वेदिका नुमा आकृति बनती है तो इसे नदी वेदिका कहते हैं।
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समप्राय मैदान।
जब नदी के अपरदन से उच्चावच युक्त भूमि समतल मैदान में परिवर्तित हो जाती है तो इसे समप्राय मैदान कहते हैं।
नदी के निक्षेपन से बनने वाली आकृतियां
- जलोढ़ पंख-:
जब नदी पर्वतीय भागों से मैदानी भागों में प्रवेश करती है तो उसके वेग में अचानक से आए कमी के कारण उसका मलबा पंख के आकार में निक्षेपित हो जाता है जिसे जलोढ़ पंख कहते हैं।
गोखुर झील-:
जब लहरदार नदी के निक्षेपण से गाय के खुर की भांति छोटी झील बनती है तो इसे गोखुर झील कहते हैं।
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बाढ़ का मैदान -:
नदी अपने आसपास के तलहटी क्षेत्र में अब साधनों का निक्षेपण करती है जिससे बाढ़ के मैदान का निर्माण होता है जो उपजाऊ भूमि होती है।
डेल्टा-:
नदी किसी भी झीले समुद्र में मिलने से पहले, विभिन्न जलधारा में विभक्त हो जाती है और इन जल धाराओं के मध्य के त्रिभुजाकार उपजाऊ क्षेत्र को उल्टा कहते हैं।
