मूल नैतिक अवधारणा शुभ, सद्गुण, अहिंसा
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Toggleशुभ-:
वे नैतिक संप्रत्यय जो हमारे उद्देश्य (वांछित परिणाम) की प्राप्ति में सहायक हों।
उदाहरण– धैर्य,साहस, सहयोगी मित्र।
-:अर्थात जब मनुष्य के आचरण मूल्य के अनुरूप होते हैं तो उसके आचरण को शुभ आचरण कहा जाता है इसके विपरीत जब मनुष्य के मूल्य के विपरीत होते हैं तो उसके आचरण को अशुभ आचरण कहा जाता है।
शुभ की विशेषताएं -:
शुभ, नैतिक संप्रत्यय होते हैं।
शुभ, साध्य एवं साधन दोनों होता है
शुभ व्यक्तिगत या सामूहिक दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
शुभ के प्रकार-:
व्यक्तिगत शुभ- ऐसे नैतिक संप्रत्यय जो हमारे व्यक्तिगत उद्देश्य की प्राप्ति में सहायक हों; जैसे- धन, शारीरिक बल, कर्तव्यनिष्ठा।
अवैक्तिक शुभ -: ऐसे नैतिक संप्रत्यय जो, समूचे समुदाय के लिए उपयोगी हों; जैसे- समाज में ईमानदारी, निष्पक्षता।
सापेक्ष शुभ- जो शुभ साध्य की प्राप्ति में सहायक होता है।
निरपेक्ष शुभ- जो शुभ स्वयं साध्य के रूप में होता है।
परमशुभ-: परमशुभ का तात्पर्य सर्वोच्च शुभ से है; जो सदैव साध्य के रूप में होता है। उदाहरण– मोक्ष।
शुभ संबंधी विभिन्न दार्शनिक विचार-:
काण्ट के अनुसार -: काण्ट ने अपने दर्शन में निरपेक्ष वस्तु को शुभ माना है अर्थात शुभ वह है, जो देश, काल, परिस्थिति, भावना एवं इच्छाओं पर आश्रित ना हो।
इस प्रकार उन्होंने ‘शुभ-संकल्प‘ को सर्वत्र शुभ स्वीकारा है।
मूर के अनुसार -: शुभ की ना तो तुलना की जा सकती ना ही शुभ को परिभाषित नहीं किया जा सकता।
सुखवादियों के अनुसार -: वे कर्म जिससे सुख की प्राप्ति हो वे शुभ हैं।
उपयोगितादियो के अनुसार-: जिससे अधिकतम लोगों का भला हो वह शुभ है।
हिंदू दर्शन के अनुसार-:
वैदिक ग्रंथों मोक्ष को शुभ बताया गया है।
गीता में निष्काम कर्म को शुभ बताया गया।
जैन दर्शन के अनुसार -: ‘कैवल्य’ को शुभ माना गया है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार-: ‘निर्वाण’को शुभ माना गया है।
प्लेटो के अनुसार-: शुभ वह है जो आत्मा के कल्याण के लिए आवश्यक है तथा जो परम वास्तविकता की ओर ले जाता है।
शंकराचार्य के अनुसार-: शुभ वह है जो आत्मा को माया से मुक्त कर ब्रह्म के साथ एकीकृत करता है।
सद्गुण
सदगुण व्यक्ति की वह श्रेष्ठ स्थाई मनोवृति है, जो अभ्यास द्वारा अर्जित की जाती है तथा व्यक्ति के व्यवहार में परिलक्षित होती है।
उदाहरण -: धैर्य, साहस, विवेक, सत्य बोलना।
सद्गुण की विशेषताएं-:
सदगुण जन्मजात ना होकर, अभ्यास द्वारा अर्जित होते हैं।
सत्गुण व्यक्ति की स्थाई मानसिक प्रवृत्ति होती है।
सत्गुण व्यक्ति के आचरण अर्थात ऐच्छिक कर्मों में परिलक्षित होते हैं।
सदगुण नैतिक मूल्यों पर आधारित होते हैं।
सद्गुण व्यक्ति के वांछित लक्ष्य को प्राप्ति में सहायक होते हैं।
लाभ-:
सदगुण, व्यक्ति को सामाजिक सम्मान दिलाने में सहायक है।
सदगुण धारण करके व्यक्ति अपने लक्ष्यों को आसानी से प्राप्त कर सकता है।
सद्गुण हमें मानसिक संतुष्टि प्रदान करते हैं।
सदगुण सामाजिक समरसता को बढ़ावा देते हैं।
प्रशासकों द्वारा सद्गुण का पालन किए जाने से सुशासन स्थापित हो जाता है।
सदगुण संबंधी विचार-:
सुकरात के सदगुण संबंधी विचार-:
सुकरात ने अपनी नैतिक दर्शन में शुभ या उचित कर्मों के ज्ञान को ही एकमात्र सद्गुण माना है।
तथा उन्होंने सद्गुण के संबंध में निम्न मत दिये हैं-:
सुकरात ने कहा है कि “ज्ञान ही सद्गुण है सद्गुण ही ज्ञान है”
अर्थात जिस व्यक्ति को नैतिक और अनैतिक का भेद का ज्ञान होता है वह व्यक्ति सद्गुणी होता है।
सद्गुणों की एकता– विभिन्न सद्गुण एक दूसरे के विरोधी ना होकर एक दूसरे की पूरक होते हैं।
ज्ञान सर्वोच्च सद्गुण है जो अन्य सद्गुणों को जन्म देता है- उदाहरण के लिए जिस व्यक्ति के पास उचित अनुचित का ज्ञान है वह विवेकशील होगा, न्याय प्रिय होगा।
सुकरात ने सद्गुण की मुख्यतः दो विशेषताएं बताई है -:
सदगुण शिक्षणीय है, अर्थात अर्जित किया जा सकता है।
सत्गुण आनंदमय है।
प्लोटो के अनुसार-:
प्लेटो ने अपने नैतिक दर्शन में मुख्य रूप से चार सद्गुण बताएं-:
विवेक-: उचित अनुचित में भेद करने का ज्ञान होना।
-:यह सद्गुण शासक वर्ग में होना चाहिए।
साहस-: विपरीत परिस्थितियों का सामना करने की क्षमता।
-: यह सद्गुण योद्धा वर्ग में होना चाहिए।
संयम-: अपनी भावनाओं पर नियंत्रण रखना।
-: यह सद्गुण उत्पादक वर्ग में होना चाहिए।
न्याय-: जब व्यक्ति के अंदर उपरोक्त तीनों सद्गुणों का सही अनुपात में सामंजस्य होता है, तो सर्वोच्च सद्गुण के रूप में न्याय सद्गुण का प्रादुर्भाव होता है।
अरस्तु के अनुसार-:
प्लेटो की भांति अरस्तु भी मानते हैं कि मानवीय जीवन का मुख्य उद्देश्य आनंद प्राप्ति है अर्थात आनंद साध्य है, और शारीरिक सुख ,धन , भौतिक वस्तुएं,पद, प्रतिष्ठा आदि आनंद प्राप्ति के साधन मात्र हैं।
और आनंद प्राप्ति के लिए व्यक्ति को भावनात्मक पक्ष पर नियमन एवं संतुलन करके, सद्गुणों के अनुरूप आचरण करना चाहिए।
अरस्तु के अनुसार सद्गुण
अरस्तु ने सद्गुणों को परिभाषित करते हुए कहा है- “सद्गुण मनुष्य की श्रेष्ठ एवं स्थाई मानसिक अवस्था है जो निरंतर अभ्यास द्वारा अर्जित की जा सकती है तथा यह मनुष्य के अच्छे कर्मों में अभिव्यक्त होती है”।
अरस्तु की उपरोक्त परिभाषा से स्पष्ट सद्गुण स्थाई मनोवृति है जो व्यक्ति के चरित्र में अभिव्यक्त होती है। यहां यह ध्यान देने योग्य बात है कि प्लूटो सद्गुण को जन्मजात मानता है जबकि अरस्तु के अनुसार सद्गुण निरंतर अभ्यास द्वारा अर्जित किए जा सकते हैं।
अरस्तु के अनुसार सद्गुणों के प्रकार
अरस्तु ने सुकरात या प्लेटो की भांति सद्गुणों की एक निश्चित संख्या नहीं बताई है बल्कि उन्होंने अपनी पुस्तक निकोमेशियन एथिक्स में सद्गुणों को दो भागों में विभाजित किया है
बौद्धिक सद्गुण
नैतिक सद्गुण
बौद्धिक सद्गुण:-
अरस्तु के अनुसार बौद्धिक सद्गुण का तात्पर्य विवेक से है, जो व्यक्ति को उचित-अनुचित का ज्ञान कराता है एवं चिंतन-मनन करने के लिए प्रेरित करता है।
प्लेटो की भांति अरस्तु भी मानते हैं कि चिंतनशील जीवन शैली से वास्तविक आनंद प्राप्त होता है।
नैतिक सद्गुण:-
दो अतिवादी विचारों के मध्य संतुलन की अवस्था ही नैतिक सदगुण है।
अरस्तु के अनुसार नैतिक सद्गुण का तात्पर्य इच्छा भावनाओं एवं वासनाओं पर उचित नियंत्रण रखते हुए संतुलित व्यवहार करना नैतिक सद्गुण है। उन्होंने प्रमुख नैतिक सद्गुण में संयम,न्याय, साहस, मित्रता को रखा है।
संयम- संयम का अर्थ है ना तो इच्छाओ, वासनाओं का पूर्ण त्याग करना है और ना ही इच्छाओं, भावनाओं में वशीभूत होना है।
साहस- साहस कयरता और अति उतावलापन के मध्य की अवस्था है।
न्याय-अरस्तु ने भी न्याय को सर्वोच्च सद्गुण स्वीकारा है।
अरस्तु ने न्याय के दो रूप बताएं
वितरणात्मक न्याय
राज्य का यह कर्तव्य है कि वह व्यक्तियों को उनकी योग्यता के आधार पर पद, प्रतिष्ठा, सम्मान, धन का वितरण करें।
सुधारात्मक न्याय
राज्य का यह कर्तव्य है कि वह दोषी व्यक्ति को दण्ड दे और क्षतिग्रस्त व्यक्ति को छतिपूर्ति करे।
स्वामी महावीर के अनुसार सदगुण-:
सत्य
अहिंसा
अस्तेय
अपरिग्रह
ब्रह्मचर्य
सद्गुण की प्रशासन में उपयोगिता-:
एक अच्छा प्रशासक वह होता है जो विभिन्न सद्गुणों को धारण करे, सद्गुण की प्रशासन में बेहद उपयोगिता है
यदि प्रशासक विवेकशील है, तो वह अच्छा न्याय कर पाएगा।
यदि प्रशासक के अंदर संयम है-प्रभावी घटना प्रबंध कर पाएगा।
यदि प्रशासक के अंदर साहस है, जटिलतम कार्य को भी आसानी से कर पाएगा।
यदि प्रशासक के अंदर सत्यनिष्ठा– है तो न्यायपूर्ण प्रशासन की स्थापना हो सकेगी।
इस प्रकार सदगुण सुशासन की स्थापना में सहायक है।
अहिंसा
अहिंसा का अर्थ-
अहिंसा का सामान्य अर्थ- हिंसा का अभाव। अर्थात किसी प्राणी पर घात न करना, अपशब्द ना बोलना, किसी को मानसिक पीड़ा न पहुंचना आदि।
अहिंसा के रूप-:
अहिंसा का निषेधात्मक रूप-
मन, वचन, कर्म से किसी भी प्राणी को कष्ट न पहुंचना अहिंसा है।
अहिंसा का सकारात्मक रूप-
सभी प्राणियों के प्रति प्रेम, दया, करूणा का भाव रखते हुए दूसरों की सहायता करना अहिंसा है।
अहिंसा की विशेषताएं-
अहिंसा व्यक्ति का एक सद्गुण है।
अहिंसा सर्वश्रेष्ठ मानव धर्म है ,जिसमें दूसरों की भलाई का भाव निहित होता है।
अहिंसा सत्य का साधन एवं साध्य दोनों है।
अहिंसा कायरता न होकर वीरता है।
अहिंसा और कयरता में अंतर-:
कायरता -:
शक्ति न होने पर, स्वयं के विरुद्ध होने वाली हिंसा को चुपचाप सहना।
अहिंसा -:
शक्ति होने पर भी, हिंसात्मक रवैया न अपनाना।
जनदर्शन के अनुसार अहिंसा-:
मन, वचन, कर्म से किसी के प्रति द्वेष की भावना ना रखना अहिंसा है।
बौद्ध दर्शन के अनुसार अहिंसा-:
बौद्ध धर्म में अहिंसा का आशय सभी प्राणियों के प्रति दया प्रेम का भाव रखने से है। तथा बौद्ध दर्शन में अहिंसात्मक कम को सम्यक कर्म बताया गया है।
गांधी जी की अहिंसा -:
गांधी जी ने अपने जीवन में सदैव अहिंसा का पालन किया इसलिए उन्हें अहिंसा का पुजारी भी कहा जाता है।
उन्होंने अपनी एक पत्र यंग-इंडिया में लिखा था कि “मेरे लिए अहिंसा एक दार्शनिक सिद्धांत नहीं बल्कि यह मेरा जीवन दर्शन है”
अर्थात उन्होंने अपने जीवन में अहिंसा को निरूपित भी किया।
गांधी जी के अनुसार- अहिंसा का अर्थ केवल हिंसा न करने मात्र से नहीं है, बल्कि अहिंसा का तात्पर्य है- ‘किसी भी प्राणी को प्रति मन, वचन और कर्म से मानसिक तथा शारीरिक दुख न पहुंचना है।’
और अहिंसा के लिए सभी प्राणियों के प्रति विशुद्ध प्रेम होना आवश्यक है।
अहिंसा कायरता या वीरता-: गांधी जी के अनुसार अहिंसा कायरता नहीं बल्कि सर्वोच्च वीरता है, क्योंकि क्षमा करना ही वीरों का आभूषण होता है।