ग्रामीण समाज का अध्ययन एवं ग्रामीणवाद व नगरवाद

ग्रामीण समाज का अध्ययन एवं ग्रामीणवाद व नगरवाद

ग्रामीण समाज का अध्ययन एवं ग्रामीणवाद व नगरवाद

ग्रामीण समाजशास्त्र की अवधारणा-;

एफ०स्टूअर्क चैपिन- “ग्रामीण समाजशास्त्र; ग्रामीण जनसंख्या, ग्रामीण सामाजिक संगठन और ग्रामीण समाज की सामाजिक प्रक्रिया का अध्ययन है। “

ग्रामीण समाजशास्त्र के अध्ययन के उपागम

ग्रामीण समाजशास्त्र को समझने के लिए निम्न का उपागमों का अध्ययन करना आवश्यक है,

ग्रामीण जनसंख्या का अध्ययन-:

ग्रामीण जीवन को समझने के लिए ग्रामीण जनसंख्या का अध्ययन आवश्यक है इसके अंतर्गत ग्रामीण जनसंख्या का घनत्व, शारीरिक विशेषताएं, मानसिक सोच तथा उनकी प्रवृत्तियों का अध्ययन किया जाता है। 

ग्रामीण सामाजिक संगठनों का अध्ययन-

ग्रामीण सामाजिक संगठनों के अंतर्गत सामाजिक स्तर, गांव की संरचना, शिक्षा एवं धर्म आदि का अध्ययन किया जाता है। 

ग्रामीण सामाजिक प्रक्रियाओं का अध्ययन-:

इसके अंतर्गत सामाजिक प्रक्रियाओं जैसे- सहयोग, एकीकरण, संस्कृतिकरण, सामाजिक गतिशीलता आदि का अध्ययन किया जाता है। 

भारत के ग्रामीण समुदाय की विशेषता-:

  • कृषि की प्रधानता 75% से अधिक लोग किसी कार्य में संलग्न रहते हैं। 

  • व्यवस्थित संरचनात्मक विकास का अभाव-शिक्षा, स्वास्थ्य, पेयजल सार्वजनिक शौचालय आदि की व्यवस्था नहीं होती। 

  • उपेक्षाकृत कम जनघनत्व सामान्यत 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से घनत्व वाले क्षेत्र को ग्राम के रूप में परिभाषित किया गया है

  • अनौपचारिक ,प्रत्यक्ष एवं विश्वसनीय संबंध पाए जाते हैं। 

  • सामाजिक दृष्टिकोण भाग्यवादी तथा धर्म को महत्व दिया जाता है। 

  • संयुक्त परिवारों की प्रधानता। 

  • समुदाय के लोगों पर समाज, प्रथाओं तथा रीति रिवाजों का नियंत्रण। 

ग्रामीण एवं शहरी अंतर-:

व्यवसाय में अंतर

ग्रामीण क्षेत्र की लगभग 75% से भी अधिक जनसंख्या कृषिगत कार्य में संलग्न रहती है जबकि शहरों में अधिकांश जनसंख्या द्वितीय और तृतीय क्षेत्र में संलग्न रहती है। 

संरचनात्मक अंतर

ग्रामीण क्षेत्र में विद्युत, जल,शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से संबंधित व्यवस्थित संरचना का अभाव पाया जाता है जबकि शहरी क्षेत्र में जल, विद्युत, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि की व्यवस्थित संरचना पाई जाती है। 

जन घनत्व में अंतर-:

शहरी क्षेत्र में ग्रामीण क्षेत्र की तुलना में जनघनत्व अधिक होता है। 

संबंधों में अंतर -:

ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के मध्य अनौपचारिक ,प्रत्यक्ष, विश्वसनीय संबंध पाए जाते हैं जबकि शहरी क्षेत्र में लोगों के मध्य औपचारिक तथा अनजान संबंध पाए जाते हैं। 

सामाजिक दृष्टिकोण में अंतर

गांव के लोग अधिक भाग्यवादी होते हैं तथा धर्म को महत्व देते हैं जबकि शहर के लोग धर्म के स्थान पर बुद्धि एवं तर्क को अधिक महत्व देते थे। 

सांस्कृतिक जीवन में अंतर-

गांव में सांस्कृतिक स्थिरता होती है , जबकि शहरी जीवन में संस्कृतिक गतिशीलता देखने को मिलती है। 

सामाजिक संगठन में अंतर-:

  • परिवार -ग्रामीण क्षेत्र में संयुक्त परिवारों की प्रधानता होती है जबकि शहरी क्षेत्र में एकल परिवार की। 

  • विवाह-ग्रामीण क्षेत्रों में रीति रिवाज पर आधारित जातिगत विवाह को महत्व दिया जाता है; जबकि नगरों में प्रेम विवाह ,अंतर जाति विवाह ,विधवा पुनर्विवाह अधिक होने लगे हैं। 

स्त्रियों की स्थिति-:

गांव में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति निम्न होती है उन्हें पर्दा प्रथा, बाल विवाह प्रथा आदि का पालन करना पड़ता है, जबकि शहरों में स्त्रियों उपेक्षाकृत आत्मनिर्भर होती हैं। 

पर्यावरण में अंतर-

गांव का पर्यावरण अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छ होता है, जबकि शहरों में प्रदूषण की समस्या देखने को मिलती है। 

सजातीयता-

ग्रामीण समाज में, लगभग सभी लोगों की एक सामान संस्कृति हैं, जबकि शहरों में सामुदायिक विजातीयता पाई जाती है एक ही बिल्डिंग में विभिन्न जाति ,धर्म, विभिन्न संस्कृति के लोग रहते हैं। 

अन्य अंतर

  • गांव की अपेक्षा शहरों में फैशन या दिखावे का अधिक प्रचलन है। 

  • गांव की अपेक्षा शहरों में साक्षरता दर अधिक। 

  • गांव की अपेक्षा शहरों में राजनीतिक चेतना अधिक पाई जाती है। 

73 वां संविधान संशोधन अधिनियम के पहले पंचायती राज व्यवस्था

भारत में प्राचीन समय से ही पंचायती राज व्यवस्था का विभिन्न रूप में प्रचलन रहा है। 

वैदिक काल के प्राचीन सांस्कृत ग्रंथो में “पंचायतन”शब्द का उल्लेख मिलता है जिसका अर्थ होता है- पांच व्यक्तियों का समूह। 

साथ ही सभा, समिति एवं विरथ जैसी स्थानीय स्वशासन के संस्थाएं मौजूद थीं। 

इसी प्रकार ‘उत्तरमेरूर अभिलेख’ के अनुसार चोल प्रशासन में नगरम महासभा तथा उर जैसी पंचायती राज्य की संस्थान विघमान थीं। 

मध्यकाल में ग्रामीण प्रशासन में मुकदम , चौधरी और पटवारी की पंचायतों का महत्वपूर्ण स्थान होता था। 

और ब्रिटिश काल में लॉर्ड रिपन ने स्थानीय बोर्ड का गठन करके स्थानीय स्वशासन को बढ़ावा दिया। 

किंतु आधुनिक पंचायत का गठन स्वतंत्रता के बाद विभिन्न समितियां की सिफारिश पर हुआ

  • बलवंत राय मेहता समिति 1957। 

  • अशोक राजनेता समिति 1977। 

  • जी वी के राव समिति 1985। 

  • एलएम सिंघवी समिति 1986। 

  • पीके गुंजन समिति 1988। 

अंततः लक्ष्मी में समिति तथा पीके गुंथन समिति की सिफारिश पर पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने 73वां संविधान संशोधन अधिनियम 1992 पारित किया। 

जिसके तहत भारत में त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था को अपनाया गया।

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