प्राकृतिक चिकित्सा
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प्राकृतिक चिकित्सा न केवल एक चिकित्सक पद्धति है, बल्कि यह प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित एक जीवन शैली भी है, इसमें औषधियों के बिना प्रकृति में मौजूद पंचतत्व द्वारा उपचार किया जाता है।
प्राकृतिक चिकित्सा की विशेषता-:
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इसमें किसी भी प्रकार की औषधियों का उपयोग नहीं किया जाता।
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इस चिकित्सा पद्धति में प्रकृति में मौजूद पंचतत्व जैसे हवा, धूप ,पानी ,मिट्टी आदि का उपयोग करके शरीर को स्वस्थ किया जाता है।
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यह रोगों के कारण को ही समाप्त कर देती है।
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इस चिकित्सा पद्धति की कोई साइड इफेक्ट नहीं है।
प्राकृतिक चिकित्सा किस प्रकार या तरीके-:
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आहार चिकित्सा। n/
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उपवास चिकित्सा।
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मृदा उपचार चिकित्सा।
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जल उपचार चिकित्सा।
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मालिश थेरेपी।
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एक्यूप्रेशर थेरेपी।
आहार चिकित्सा-:
इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत रोगी को वही आहार खिलाया जाता है जो उसके लोगों को समाप्त करने में सहायक होता है।
जैसे-: कमजोर हड्डियों वाले रोगी को कैल्शियम की कमी दूर करने के लिए पालक का जूस पिलाना।
बुखार या मलेरिया से ग्रसित व्यक्ति को नीम का रस पिलाना।
आहार चिकित्सा पद्धति के अनुसार हमारा भोजन 20% अम्लीय एवं 80% छारीय होना चाहिए।
उपवास चिकित्सा-:
इस चिकित्सा पद्धति के अंतर्गत रोगी को उसकी उम्र और बीमारी की प्रकृति के अनुसार कुछ विशेष प्रकार के भोजन से परहेज करवाया जाता है।
जैसे-: एसिडिटी वाले व्यक्ति को अम्लीय भोजन ना देना। अपच होने पर कुछ समय भोजन ना देना।
मृदा उपचार चिकित्सा-:
इस चिकित्सा के अंतर्गत रोगी के रोग से संबंधित अंगों में, मिट्टी की पट्टी बांधकर या मिट्टी का स्नान करवाकर उपचार किया जाता है।
क्योंकि मिट्टी हमारे शरीर के दूषित पदार्थों को शोखकर बाहर निकाल दी थी तथा हमारे शरीर को ठंडक पहुंचाती है।
जलोपचार चिकित्सा-:
इस चिकित्सा के अंतर्गत रोगी को उसके रोक की प्रकृति के अनुसार या ठंडी गर्म पानी से स्नान करवाया जाता है, भाप या बर्फ से सीखा जाता है।
इसके प्रभाव से शरीर की सभी मांसपेशियां एवं रक्त परिसंचरण तंत्र सक्रिय हो जाता है।
मालिश थेरेपी-:
इस पद्धति के अंतर्गत विभिन्न प्रकार से शरीर की मालिश की जाती है जैसे कंपन करते हुए स्पर्श करना,थपथपाना, जोड़ों को हिलाना, ठोंकना, प्रेटिसाज। जिसके प्रभाव से रक्त परिसंचरण तंत्र प्रभावी हो जाता है एवं सभी मांसपेशियां एक्टिव हो जाती।
एक्यूप्रेशर-:
इस पद्धति के अंतर्गत शरीर की ऊर्जा संग्राहक बिंदु(एक्यूप्वाइंट) को दबाया जाता है। जिससे हमारे शरीर के सभी तंत्र उपयुक्त तरीके से कार्य करने लगते हैं।
वर्तमान में प्राकृतिक चिकित्सा का अनुसंधान एवं विकास करने के लिए पुणे में राष्ट्रीय प्राकृतिक चिकित्सा संस्थान संचालित है जिसकी स्थापना 1945 में महात्मा गांधी ने “क्योर फाउंडेशन ट्रस्ट” के नाम से की थी।
सिद्ध चिकित्सा प्रणाली-:
यह भी प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली है। इसका विकास महर्षि अगस्त द्वारा किया गया। इसीलिए महर्षि अगस्त को सिद्ध चिकित्सा प्रणाली का जनक कहा जाता है।
सिद्ध चिकित्सा प्रणाली आयुर्वेदिक एवं प्राकृतिक चिकित्सा प्रणाली पर आधारित है इसमें भी यह बताया गया है कि मनुष्य तभी रोगी बनता है जब उसके अंदर वात ,पित्त और कफ असंतुलित मात्रा में हो जाते हैं।
तथा इस पद्धति में आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की भांति जीवा, आंख, स्पर्श , मूत्र,रंग आदि के माध्यम से परीक्षण किया जाता है।
तथा इस पद्धति में चांदी ,पारा, आर्सैनिक ,शीशा ,सल्फर आदि खनिज धातुओं के रस का इस्तेमाल औषधि के रूप में किया जाता है।
इसका सर्वाधिक प्रचलन तमिलनाडु के क्षेत्र में है।
यूनानी पद्धति-:
यह यूनान में (लगभग 2500 वर्ष पूर्व)विकसित परंपरागत प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति है। भारत में इस चिकित्सा पद्धति का विस्तार हकीम अजमल खान ने किया।
विशेषताएं
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यह पूर्ण रूप से प्राकृतिक सिद्धांतों पर आधारित है। इसके अंतर्गत प्रकृति के अनुसार प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करते हुए जीवन शैली संचालित करने का वर्णन किया गया है।
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इस चिकित्सा प्रणाली में रोग के उपचार के बजाय, रोग ना होने देने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है।
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आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में व्यक्तिपरक इलाज किया जाता है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति का उसकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग विधियों से उपचार किया जाता है।
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यूनानी चिकित्सा पद्धति के जनक हिप्पोक्रेट्स ने बताया कि शरीर में निम्न चार देहद्रव होते हैं-:
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रक्त
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कफ
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पीला पित्त
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काला पित्त।
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और इनमें असंतुलन होने से व्यक्ति अस्वस्थ हो जाता है।
यूनानी चिकित्सा पद्धति में रोगों का निवारण-:
रोगों की पहचान-:
इस चिकित्सा पद्धति में निम्नलिखित परीक्षण द्वारा रोगी के रोगों की स्थिति एवं कारण का पता लगाया जाता है-:
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नारी पढ़कर।
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चेहरे का हाव भाव देखकर।
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मल मूत्र का परीक्षण करके।
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त्वचा स्पर्श द्वारा उसकी तहसीर का परीक्षण करके।
उपचार-:
यूनानी चिकित्सा पद्धति में रोगों की स्थिति का पता लगाने के पश्चात निम्न विधियों के माध्यम से उपचार किया जाता है-:
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इलाज बिल तकबीर-: इसके अंतर्गत उपयुक्त शारीरिक जीवन पद्धति अपनाकर रक्त को शुद्ध किया जाता है।
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इलाज एक गिजा-: इसके अंतर्गत रोगी को उसकी व्यक्तिगत प्रवृत्ति के अनुसार उपयुक्त आहार ग्रहण करने की सलाह दी जाती है।
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इलाज बिल दवा-: इसके अंतर्गत यूनानी चिकित्सक ( अर्थात हकीम) रोगी को रोग से संबंधित उपयुक्त जड़ी बूटियों या खनिजों की पिसी हुई दवा, काढ़ा देता है।
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इलाज बिल यद-: जब उपरोक्त तीन विधियों से रोगी का रोग ठीक नहीं होता तो अंत में रोगी का रोग ठीक करने के लिए मामूली सी सर्जरी की जाती।
इस चिकित्सा पद्धति के जनक हिप्पोक्रेट्स को माना जाता है। यह आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की तरह ही है किंतु आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में उपचार हेतु शोधन एवं वनस्पतियों से निर्मित औषधियों को अधिक प्रधानता दी जाती है, जबकि यूनानी चिकित्सा पद्धति में, उपयुक्त आहार युक्त जीवनशैली अपनाने एवं खनिज, धातु पदार्थों से बने औषधियों के प्रयोग को अधिक प्रधानता दी जाती है
भारत में यूनानी चिकित्सा के प्रमुख संस्थान-:
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केंद्रीय यूनानी चिकित्सा अनुसंधान संस्थान-: हैदराबाद।
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मध्य प्रदेश आयुर्वेद तथा यूनानी चिकित्सा पद्धति एवं प्राकृतिक चिकित्सा बोर्ड -:भोपाल।
होम्योपैथी-:
होम्योपैथी प्राकृतिक नियमों पर आधारित चिकित्सक की पद्धति है। जिसका विकास डॉक्टर” सैम्यूअल हेरिमेन” ने किया,
होम्योपैथी ग्रीक भाषा का शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है “होम्यो”+”पेथोस”यहां पर होम्यो का अर्थ है – सामान पेथोस का अर्थ है -चिकित्सा। अर्थात-: समान रोग के लिए समान उपचार।
होम्योपैथी मुख्यतः “सिमिलिया सिमिलिबस क्यूरेंटर” के सिद्धांत पर कार्य करता है जिसका अर्थ है-: कि रोगी को संबंधित रोग के उपचार के लिए उसी लक्षण वाली दवा दी जाए, जो दवा स्वस्थ व्यक्ति को देने पर उसी प्रकार के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए दस्त लगने वाले व्यक्ति को कम मात्रा में ऐसी दवा दी जाती है जो व्यक्ति को दस्त लगाने के लिए उत्तरदाई होती है। ताकि व्यक्ति के शरीर का पूर्ण अपशिष्ट दस्त के रूप में निकल जाए और उसे दस्त ना लगे।
होम्योपैथी के सिद्धांत-:
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समरूपता का सिद्धांत-: इस सिद्धांत के अनुसार,रोगी को संबंधित रोग के उपचार के लिए उसी लक्षण वाली दवा दी जाए, जो दवा स्वस्थ व्यक्ति को देने पर उसी प्रकार के लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं। उदाहरण के लिए दस्त लगने वाले व्यक्ति को कम मात्रा में ऐसी दवा दी जाती है जो नृत्य को दस्त लगाने के लिए उत्तरदाई होती है। ताकि व्यक्ति के शरीर का पूर्ण अपशिष्ट दस्त के रूप में निकल जाए और उसे दस्त ना लगे।
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एक औषधि का सिद्धांत-: होम्योपैथी चिकित्सा में मरीज को एक समय में केवल एक ही प्रकार की औषधि लेने की सलाह दी जाती है। इसीलिए लहसुन अदरक हल्दी आदि खाने पर रोक लगाई जाती है।
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औषधि की न्यून मात्रा का सिद्धांत-: होम्योपैथी चिकित्सा में औषधि न्यूनतम मात्रा में दी जाती है ताकि औषधि का दुष्प्रभाव ना दिखे।
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व्यक्तिपरख सिद्धांत-: होम्योपैथी चिकित्सा में व्यक्ति के लक्षणों के आधार पर औषधि दी जाती है ना कि व्यक्ति की बीमारी के आधार पर। एक ही बीमारी के अलग-अलग लक्षणों वाले व्यक्तियों को अलग-अलग औषधियां दी जाती हैं। अतः इसमें रोगी के पूरे जीवन की हिस्ट्री का व्याख्यान आवश्यक होता है।
होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के लाभ
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आयुष चिकित्सा पद्धति में एलोपैथी चिकित्सा पद्धति की तुलना में लागत बहुत कम आती है। क्योंकि इसमें उपचार के लिए प्राकृतिक तत्वों की द्वारा बनाई गई औषधियों का उपयोग किया जाता है।
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आयुष चिकित्सा पद्धति का एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की भांति कोई साइड इफेक्ट नहीं होता। क्योंकि इस चिकित्सा पद्धति में बहुत कम मात्रा में दवा दी जाती है।
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यह चिकित्सा पद्धति गर्भवती महिलाओं , दूध पिलाने वाली महिलाओं एवं बच्चों के लिए सुरक्षित होती है
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आयुष चिकित्सा पद्धति रोग का स्थाई इलाज है क्योंकि इस चिकित्सा पद्धति में रोग के कारण को समाप्त कर दिया जाता है। जबकि एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में रोग के प्रभाव को समाप्त किया जाता है
होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति के दोष-:
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आपातकाल की स्थिति के लिए अनुपयुक्त।
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होम्योपैथी चिकित्सा पद्धति तभी कारगर सिद्ध होती है जब चिकित्सक द्वारा बताई गई जीवनशैली या आहार को अपनाया जाए , अन्यथा नहीं।
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यदि स्वस्थ व्यक्ति को होम्योपैथिक दवा दी जाए तो उसके भयंकर साइड इफेक्ट हो सकते हैं
एलोपैथी और होम्योपैथी में अंतर-:
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एलोपैथी शब्द अर्थ है विपरीत चिकित्सा अर्थात इसमें लक्षणों को दबाने के लिए लक्षणों के विपरीत चिकित्सा की जाती है, जबकि होम्योपैथी शब्द का अर्थ है सामान चिकित्सा अर्थात इसमें रोगी के लक्षणों को जड़ से समाप्त करने के लिए वही दवाइयां दी जाती है जो स्वस्थ व्यक्ति को देने पर संबंधित लक्षण उत्पन्न कर सकती हैं।
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एलोपैथी में रोग को दबाने या कम करने का उपचार किया जाता है जबकि होम्योपैथी में लोगों को शरीर से बाहर निकलने का उपचार किया जाता है।
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एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति में अधिक मात्रा में कम गुणवत्ता वाली दवाइयां दी जाती हैं जबकि होम्योपैथी में केवल लक्षणों से संबंधित कम मात्रा में दवाइयां दी जाती।
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एलोपैथी में बीमारी के आधार पर दवाइयां दी जाती है अर्थात एक समान बीमारी वाले व्यक्तियों को एक समान दवाइयां दी जाती हैं जबकि होम्योपैथी में लक्षणों के आधार पर दवाइयां दी जाती हैं अर्थात एक सामान बीमारी होने पर भी अलग-अलग लक्षणों वाले व्यक्तियों को अलग-अलग दवाइयां दी जाती हैं।
भारत में होम्योपैथी चिकित्सक के विकास विस्तार के लिए
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राष्ट्रीय होम्योपैथी संस्थान – कोलकाता
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केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद – दिल्ली संचालित है।
सोवा-रिग्पा
यह एक परंपरागत चिकित्सा प्रणाली है जिसका सर्वाधिक प्रचलन तिब्बत वाले क्षेत्र में इसलिए इस तिब्बती चिकित्सा प्रणाली के नाम से जाना जाता है।
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जनक-: यूथोंन योटोंन पोंगो।
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यह आयुर्वेद की ही समतुल्य है।
जांच एवं उपचार विधि
जांच के लिए- स्पर्श परीक्षण ,मूत्र परीक्षण ,माल परीक्षण, रंग परीक्षण।
उपचार के लिए-: औषधीय पौधों की अर्क का तथा विभिन्न खनिजों की भस्म का प्रयोग किया जाता है।
इस चिकित्सा प्रणाली के प्रमुख सिद्धांत
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शरीर में रोग का स्थान
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मारक दवा (एंटीडोट)
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रोग निवारण करने वाली उपचार विधि
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औषधी बनाने व इस्तेमाल करने की विद्या
विशेषता-:
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जड़ से इलाज
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कम खर्चीली
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व्यक्ति परख इलाज
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बहुत कम साइड इफेक्ट।
विशेष-: भारत में इस पद्धति के विकास के लिए नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सोवा-रिग्पा, लेह में स्थापित किया गया है।