योग चिकित्सा

योग चिकित्सा

Yoga योग चिकित्सा

योग शब्द संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है जुड़ना। जैसे-: हमारे शरीर के पंचत्वों का प्रकृति के पंचतत्व से जुड़ना, शरीर का मस्तिष्क से जुड़ना। 

और योग के माध्यम से शरीर को स्वस्थ या रोगमुक्त रखना योग चिकित्सा कहलाती है। 

योग के जनक महर्षि पतंजलि को माना जाता है क्योंकि महर्षि पतंजलि ने सबसे पहले योग के संबंध में” अष्टांग योग” की रचना की। 

अष्टांग योग के अनुसार योग के चरण-: 

अष्टांग योग में योग के आठ चरण बताए गए हैं-: 

  • यम-: सत्य, अहिंसा, अस्तेय अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य का पालन करना। 

  • नियम-: नियम बद्ध तरीके से शौच(साफ सफाई) तप करें।

  • आसन-: एक सुनिश्चित समय सीमा तक स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त दैहिक स्थिति बनाना। 

  • प्राणायाम-: नियमित रूप से सांस लेना एवं छोड़ना। 

  • प्रत्याहार-: इंद्रियों को संबंधित विषय से हटाकर मन में विलीन करना। 

  • धारणा-: अपनी इंद्रियों के माध्यम से प्रसन्नता, सुख, शांति ,संतोष आदि आध्यात्मिक संपदाओं को धारण करना। 

  • ध्यान-: मन की चंचलता को समाप्त कर एकाग्रता का ध्यान करना। 

  • समाधि-: ध्यान के माध्यम से परमात्मा में विलीन हो जाना। 

शारीरिक स्वास्थ्य के लिए योग-: 

  • आसन-:

  • प्राणायाम-: 

  • ध्यान-:

योग का महत्व-:

  • योग चिकित्सा पद्धति रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने में सहायक है जिससे हम विभिन्न रोगों से मुक्त रहते हैं । अर्थात यह रोग के उपचार की बजाय रोग को ही नहीं होने देती। 

  • योग चिकित्सा पद्धति से कोई दुष्प्रभाव नहीं होता। 

  • योग चिकित्सा पद्धति काफी ज्यादा सरल होती है इसे आसानी से अपनाया जा सकता है। 

  • यह अन्य चिकित्सा पद्धति की तुलना में कम खर्चीली होती है।

  • योग मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में सहायक। 

  • योग एकाग्रता एवं तनाव से मुक्ति , ताजगी प्रदान करने में सहायक है। 

भारत में योग चिकित्सा के लिए विकसित संस्थान-: 

  • मुरारी जी देसाई राष्ट्रीय योग संस्थान नई दिल्ली। 

  • पतंजलि योगपीठ, हरिद्वार। 

पंचकोश सिद्धांत -:

योग शास्त्रों के अनुसार मानव अस्तित्व के पांच कोष होते हैं। 

सर्वप्रथम तैत्तरीय उपनिषद में पंचकोश की अवधारणा का वर्णन मिलता है। 

यह पांच कोच निम्नलिखित है-:

  1. अन्नमय कोश

1.अन्नमय कोश-:

  • इस कोश का तात्पर्य हमारे प्रत्यक्ष शरीर से है, जो हमें दिखाई देता है, जिसे हम स्पर्श कर सकते हैं। 

  • क्योंकि यह अन्न से बना होता है इसीलिए इसे अन्नमय कोश कहते हैं

  • इस कोश का संबंध पंचमहाभूत में से पृथ्वी महाभूत से है। 

  • इसी के अंदर त्रिदोष तथा सप्त धातु (रस,रक्त,मांस,मेद (वसा),अस्थि,मत्था,शुक्र)समाहित है। 

  • इस कोश को स्वस्थ रखने के लिए-:

    • ऋतभुक (मौसमी भोजन करना)

    • मितभुक(भूख से कम भोजन ग्रहण करना)

    • हितभुक(अपने शरीर की प्रकृति के अनुसार भोजन करना)

    • निद्रा (6 से 8 घंटे की नींद)

    • योग(प्रतिदिन 30 मिनट योग करना)

2.प्राणमय कोश-:

  • इस कोश का तात्पर्य जीवन की चेतन शक्ति से है। 

  • यह, अन्नमय कोश को संचालित करने का कार्य करता है। 

  • इस कोर्स का संबंध जल महाभूत तत्व से है। 

  • प्राण के पांच प्रकार हैं –

    • व्यान(संपूर्ण शरीर में विद्वान चेतना)

    • प्राण (इसका संबंध श्वसन तंत्र से होता है)

    • उदान(यह हृदय के पास होता है)

    • समान (नाभि वाले क्षेत्र में विद्वान चेतना)

    • अपान(यह नाभि के नीचे वाले हिस्से में होता है)

  • इसको स्वस्थ रखने के लिए प्राणायाम करना चाहिए। 

3.मनोमय कोश -:

  • इस कोश का तात्पर्य हमारी बुद्धि तथा पंच-इंद्रियों से है। 

  • यह कोश अन्नमय कोश तथा प्राणमय कोश को नियंत्रित रखता। 

  • इस कोश का संबंध अग्नि पंचभूत से है

  • इसी में त्वचा,कान ,नाक ,जीभ, आंखें समाहित है। 

  • इसको स्वस्थ रखने के लिए ध्यान करना चाहिए। 

4.विज्ञानमय कोश -:

  • इस कोश का अर्थ है सत्य का ज्ञान। 

  • यह कोश हमें परलोक जीवन का ज्ञान कराता है। 

  • इस कोश का संबंध वायु महाभूत से है। 

5.आनंदमय कोश-:

  • इस कोश का तात्पर्य आत्मा के सुख से है। 

  • जब उपरोक्त चारों कोश स्वस्थ होते हैं तो ही हमें इस कोश की प्राप्ति होती है। 

  • इस कोश का संबंध आकाश महाभूत से है। 

षट्कर्म -:

यह शरीर को शुद्ध एवं स्वस्थ रखने की प्रक्रिया है

सत्कर्म का वर्णन है हठयोग प्रदीपिका तथा घेरंड संहिता में मिलता है। 

1.धोति-:

इसके अंतर्गत फिर अर्थात आमाशय को साफ किया जाता है। 

प्रकार-:

  • जल धोती- जल पीकर उसकी उल्टी की जाती है। 

  • वस्त्र धोती- 21 फीट लंबे कपड़े को निकाल कर पुनः खींचा जाता। 

लाभ -:

यह कर्म कब्ज कफ एवं एसिडिटी में लाभप्रद है। 

2.नेति-:

इसके अंतर्गत नाक की सफाई की जाती है। 

प्रकार-:

जल नेति– एक नासिका छिद्र से जल डालकर दूसरी नासिका छिद्र से बाहर निकाला जाता है। 

सूत्र नेति- एक नासिका छिद्र से धागा डालकर दूसरी नासिका छिद्र से बाहर निकाला जाता है।

लाभ

यह कर्म साइनस माइग्रेन एवं कमजोर दृष्टि वाले रोगियों के लिए लाभदायक है। 

3.वस्ती 

इसके अंतर्गत मॉल मार्ग से पानी डालकर पुनः वापस निकला जाता है। 

लाभ

बवासीर,कब्ज एवं अपच के लिए लाभदायक है। 

4.त्राटक-

इसके अंतर्गत किसी एक बिंदु को बिना पलक झटका लगातार देखते रहना होता है। 

लाभ

आंखों की कमजोरी दूर होती है, अनिद्रा की समस्या समाप्त होती है। 

5.नौलि-

इसमें पेट की मसल्स को सिकोड़कर,पुनः छोड़ा जाता है। 

लाभ 

गैस्ट्रिक, अपच, भूख न लगने की समस्या दूर होती है। 

6. कपालभाति

नियमित तरीके से लंबी सांस लेना एवं छोड़ना। 

लाभ

स्वसन रोगियों के लिए लाभदायक जैसे- दमा ,सर्दी ,अस्थमा। 

योग मुद्रा -;

विभिन्न शारीरिक मुद्राएं योग चिकित्सा प्रणाली का हिस्सा हैं। 

मुद्रा का अर्थ है-: शारीरिक अंगों की कोई विशेष स्थिति। 

मुद्रा विज्ञान के अनुसार हमारे शरीर की पांचों उंगलियां किसी न किसी एक महाभूत तत्व का प्रतिनिधित्व करती हैं। 

.योग मुद्रा -; विभिन्न शारीरिक मुद्राएं योग चिकित्सा प्रणाली का हिस्सा हैं। 

ज्ञान मुद्रा-

इसमें तर्जनी को मोड़कर अंगूठे से स्पर्श कर जाता है और शेष तीन उंगलियां को सीधी रखा जाता है।

.ज्ञान मुद्रा- इसमें तर्जनी को मोड़कर अंगूठे से स्पर्श कर जाता है और शेष तीन उंगलियां को सीधी रखा जाता है।

महत्व -: एकाग्रता बढ़ती है सकारात्मक भावनाएं आती है अवसाद कम होता है। 

2.वायु मुद्रा -:

इसमें तर्जनी उंगली को आधा मोडकर उसे अंगूठे के नीचे दबाया जाता है,और शेष तीन उंगलियां को सीधी रखा जाता है। 

.वायु मुद्रा -: इसमें तर्जनी उंगली को आधा मोडकर उसे अंगूठे के नीचे दबाया जाता है,और शेष तीन उंगलियां को सीधी रखा जाता है। 

महत्व-: सीने में होने वाले दर्द से राहत मिलती है।

3.सूर्य(अग्नि) मुद्रा-: 

इस मुद्रा में अनामिका उंगली को आधा मोड कर अंगूठे के नीचे दबाया जाता है। 

..सूर्य(अग्नि) मुद्रा-:  इस मुद्रा में अनामिका उंगली को आधा मोड कर अंगूठे के नीचे दबाया जाता है

4.वरुण(जल) मुद्रा -:

इस मुद्रा में कनिष्का अंगुली को मोड़कर अंगूठी के नीचे दबाया जाता है। 

महत्व:-इससे कब्ज, पेट की चर्बी तथा अपच की समस्या दूर होती है। 

4.वरुण(जल) मुद्रा -:

इस मुद्रा में कनिष्का अंगुली को मोड़कर अंगूठी के नीचे दबाया जाता है। 

.4.वरुण(जल) मुद्रा -:

हत्व -:

शरीर के परिसंचरण तंत्र को सक्रिय रखने में सहायक। 

5. शून्य(आकाश) मुद्रा-: 

इस मुद्रा में मध्यमा उंगली को आधा मोड कर अंगूठे के नीचे दबाया जाता है

.5. शून्य(आकाश) मुद्रा-: 

हत्व -: यह मुद्रा कान के दर्द में उपयोगी होती है। 

6.प्राण मुद्रा -:

इस मुद्रा में अनामिका एवं कनिष्का उंगली को मोड़कर अंगूठे के नीचे दबाया जाता है। 

.6.प्राण मुद्रा -:

आदि मुद्रा -:

इस मुद्रा में अंगूठे को मोड़कर उसके ऊपर अन्य सभी उंगलियों रखकर मुट्ठी बनायी जाती है। 

 

 

 

महत्व -: यह मुद्रा प्रतिरक्षा तंत्र को मजबूत करती है तथा आंखों की दृष्टि बढ़ाती है। 

आदि मुद्रा -:

इस मुद्रा में अंगूठे को मोड़कर उसके ऊपर अन्य सभी उंगलियों रखकर मुट्ठी बनायी जाती है। 

.आदि मुद्रा -:

महत्व -:

नर्वस सिस्टम को आराम मिलता है, ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है। 

ध्यान मुद्रा -:

इस मुद्रा में एक हाथ की उंगलियों को दूसरे हाथ के ऊपर रखकर, त्रिकोणात्मक आकृति में दोनों हाथ के अंगूठों का स्पर्श किया जाता है। 

.ध्यान मुद्रा -:

महत्व -: ध्यान, एकाग्रता में वृद्धि होती है। 

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