अंतरराष्ट्रीय व्यापार
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Toggleवर्तमान समय वैश्वीकरण का युग है और इस वैश्वीकरण की दौर में सभी देश एक दूसरे से संचार एवं परिवहन के साधनों के माध्यम से जुड़ चुके हैं अतः अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का महत्व काफी ज्यादा बढ़ गया है
“सामान्यतः दो या दो से अधिक देशों के मध्य होने वाले वस्तुओं एवं सेवाओं के व्यापार (क्रय-विक्रय) को अंतर्राष्ट्रीय व्यापार कहते हैं।”
जैसे -:भारत और अमेरिका के मत वस्तु एवं सेवाओं का होने वाला क्रय-विक्रय।
विदेशी व्यापार की आवश्यकता
देश में प्राकृतिक संसाधन की अनुपलब्धता तथा जलवायु की असमानता के कारण सभी प्रकार की वस्तुओं एवं सेवाओं का पर्याप्त उत्पादन नहीं किया जा सकता। अतः आवश्यक वस्तु का आयात करने के लिए विदेशी व्यापार करना आवश्यक होता है, जैसे -:इंडोनेशिया में पाम तेल का सबसे अधिक उत्पादन होता है किंतु गेहूं का उत्पादन नहीं होता। भारत में पेट्रोलियम पदार्थों का उत्पादन नहीं होता
अन्य देशों से आधुनिक तकनीकी प्राप्त करने के लिए अंतरराष्ट्रीय व्यापार आवश्यक होता है,
अपने देश की अत्यधिक उत्पादित वस्तुओं को खपाने के लिए बाजार प्राप्ति हेतु,
संकट काल की स्थिति में अपने देश की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए,
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का महत्व
विदेशों से आवश्यक उत्पादों की प्राप्ति हो जाती है
देश को विदेशी मुद्रा की प्राप्ति होती है जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है।
विदेशों की मशीनें तथा उत्पादन तकनीक प्राप्त करने में सहायक है
देश ने अत्यधिक मात्रा में उपलब्ध कच्चे माल तथा उत्पादित माल को खपाने के लिए बाजार उपलब्ध कराने में सहायक है
संकट काल की स्थिति में देश की अर्थव्यवस्था को बचाने में सहायक है
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार विश्व स्तर पर वस्तु एवं सेवाओं में स्वस्थ प्रतियोगिता की स्थिति बनती है जिससे वस्तुओं की गुणवत्ता में सुधार आता है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार से विभिन्न देशों के मध्य आर्थिक एवं राजनीतिक संबंधों में सुधार आता है अंतरराष्ट्रीय शांति को बढ़ावा मिलता है ।
अंतरराष्ट्रीय व्यापार से हानियां
देश की आंतरिक सुरक्षा को खतरा।
देश दूसरे देशों पर निर्भर हो जाता परिणाम स्वरूप हम आत्मनिर्भरता के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पाते।
देश के लघु एवं छोटे उद्योग विदेशों के भारी मशीनीकरण उद्योगों की प्रतियोगिता नहीं कर पाते परिणाम स्वरूप उनका पतन होने लगता है।
भुगतान संतुलन पक्ष में ना होने पर देश का धन विदेशों में जाने लगता है।
प्रदर्शन प्रभाव या विलासिता को बढ़ावा मिलता है।
अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की संरचना
विदेशी व्यापार की संरचना का तात्पर्य है कि देश से किन किन वस्तुओं का और कितनी मात्रा में आयात-निर्यात हो रहा है।
आयात
जब हम विदेशों से किसी वस्तु या सेवा को अपने देश में मंगाते(क्रय करते) हैं तो इसे आयात कहते हैं
भारत में आयात की स्थिति
भरत वर्तमान में मुख्यतया
कच्चे माल– कच्चा पेट्रोलियम, वनस्पति तेल,लोह इस्पात,
पूंजीगत वस्तुएं – वे वस्तुएं जो, अन्य वस्तुओं के उत्पादन तथा उनके
प्रसंस्करण में सहायक हो उन्हें पूंजीगत वस्तुओं कहते हैं जैसे-: भारत धातु ,मशीन ,इलेक्ट्रॉनिक, उपकरण कंप्यूटर आदि का आयात करता है
पेट्रोलियम एवं तेल का आयात करता है
भारत सबसे ज्यादा कच्चा पेट्रोलियम सोना तथा रत्न आभूषण एवं इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं का आयात करता है
वर्तमान में भारत विदेशों से कुल 467 बिलियन डॉलर की वस्तु (merchandise)एवं सेवाओं का आयात करता है.
भारत के आयात में विभिन्न देशों की हिस्सेदारी-:
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निर्यात
जब हम अपने देश की वस्तु या सेवा लाभ प्राप्ति के उद्देश्य से दूसरे देश में भेजते (विक्रय करते)हैं तो इससे निर्यात कहा जाता है
भारत वर्तमान में मुख्यतः
कृषि संबंधित उत्पाद जैसे-: कॉफी, चाय ,तंबाकू, गरम-मसाले ,चावल, चीनी दूध सब्जियों, मछली ।
अयस्क एवं खाने से संबंधित उत्पाद जैसे -लोहा मैग्नीशियम कोयला ।
निर्मित वस्तुएं जैसे- सूती वस्त्र ,हैंडीक्राफ्ट ,हैंडलूम ,चमड़ा,आभूषण
आदि का निर्यात करता है।
वर्तमान में भारत विदेशों को कुल 314 बिलियन डॉलर की वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात करता है।
भारत के शीर्ष निर्यातक गंतव्य देश
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भारत के विदेशी व्यापार का स्वरूप
स्वतंत्रता प्राप्ति की पहले भारत मुख्यतः निर्मित माल का आयात करता था तथा कच्चे माल का निर्यात करता था जिससे भारत को काफी घाटा होता था किंतु स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भारत के विदेशी व्यापार के स्वरूप में परिवर्तन आया अब भारत मुख्यतः कच्चे माल तथा पूंजीगत वस्तुओं का आयात करता है एवं कृषि से संबंधित उत्पाद तथा निर्मित वस्तुओं का निर्यात करता है।
निर्यात संवर्धन
जब देश का निर्यात आयात से अधिक होता है तो देश के विदेशी व्यापार में व्यापार अधिशेष की स्थिति होती है।
इसके विपरीत जब देश का निर्यात आयात से कम होता है तो देश के विदेशी व्यापार में व्यापार घाटे की स्थिति होती है.
अतः व्यापारिक घाटे को कम करने तथा भुगतान संतुलन को अनुकूल करने के लिए सरकार आयात में कमी तथा निर्यात में वृद्धि करने हेतु निर्यात को प्रोत्साहित करती हैं। जिसे निर्यात संवर्धन कहते हैं
निर्यात संवर्धन हेतु भारत सरकार द्वारा किए गए प्रयास
एक्सपोर्ट प्रमोशन कैपिटल गुड्स स्कीम(EPCGS)-: इस स्कीम के तहत-यदि कोई उद्योगपति अपना उत्पादन बढ़ाने के लिए विदेशों से पूंजीगत वस्तुओं जैसे मशीनरी का आयात करता है तो उससे आयात शुल्क में छूट प्राप्त की जाएगी बशर्ते वह 6 साल के अंदर आयात शुल्क का 6 गुना उत्पाद निर्यात करें।
निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र (Export processing zone)-: भारत एशिया का पहला देश है जिसमें निर्यात को बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम 1965 में कांडला,( गुजरात )में निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र स्थापित किया
वर्तमान में अनेकों स्थानों पर निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र संचालित है निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्रों में सरकार आर्थिक कानूनों की कठोरता कम करते हुए उन्हें उतार रखती है तथा इन क्षेत्रों में केवल विदेशी निर्यात के लिए उत्पादन किया जाता है।
कृषि निर्यात क्षेत्र कृषि उत्पादों के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए कृषि निर्यात क्षेत्र स्थापित किए जाते हैं , जहां पर कृषि उत्पादों को एकत्रित करके उनका निर्यात किया जाता है।देश का पहला कृषि निर्यात क्षेत्र मध्य प्रदेश में स्थापित हुआ था।
व्यापार नीति
किसी देश की सरकार द्वारा बनाई जाने वाली वह नीति जो विदेशी आयात निर्यात को निर्देशित करती है उसी विदेशी व्यापार नीति कहा जाता है।
और भारत में वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय द्वारा सर्वप्रथम 1985 मैं 3 वर्षीय विदेश नीति बनाई गई थी तथा 1992 से प्रत्येक 5 वर्ष के लिए आयात निर्यात नीति बनाई जाती है,
वर्तमान समय में 2015 से 20 की विदेश व्यापार नीति संचालित है जिसे तत्कालीन वाणिज्य एवं उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमण 2015 में जारी किया था।
विदेश नीति के उद्देश्य
निर्यात को बढ़ावा देना।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा के वातावरण को बढ़ावा देकर, देश में गुणवत्तापूर्ण उत्पाद उपलब्ध कराना
विश्व व्यापार में देश की हिस्सेदारी बढ़ाना।
विदेशी व्यापार के माध्यम से देश में रोजगार को बढ़ाना
विदेशी व्यापार नीति 2021-26
Coming soon…….
कृषि निर्यात नीति
वर्ष 2018 में कृषि निर्यात नीति 2018 जारी की गई
इस नीति के प्रमुख उद्देश्य निम्न हैं-:
कृषि निर्यात को बढ़ाकर (30 अरब डॉलर से) 60 अरब डॉलर करना।
जल्दी खराब होने वाले कृषि उत्पादों का प्रसंस्करण करके उनका निर्यात करना।
रिसर्च एवं अनुसंधान करके कृषि उत्पादों की गुणवत्ता को बेहतर बनाकर बेचना।
गैर परंपरागत कृषि निर्यात को बढ़ावा देना।
भुगतान संतुलन
सामान्यतः एक वित्तीय वर्ष में किसी एक देश के निवासियों द्वारा विश्व के अन्य देश के साथ किए गए समस्त प्रकार के मौद्रिक लेनदेन के विवरण को भुगतान संतुलन कहते हैं।
और भुगतान संतुलन का प्रबंधन देश के प्रधान मौद्रिक प्राधिकरण (अर्थात भारत के लिए रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया) द्वारा किया जाता है।
भुगतान संतुलन के घटक
चालू खाता
पूंजी खाता।
चालू खाता
भुगतान संतुलन का वह खाता जिसमें दृश्य एवं अदृश्य मदों के आयात निर्यात का मौद्रिक रिकॉर्ड होता है
दृश्य खाता-: इस खाते में वस्तुओं (merchandise)के आयात तथा निर्यात का मौद्रिक विवरण होता है, इसे व्यापार खाता भी कहा जाता है।
अदृश्य खाता-: इस खाते में विभिन्न प्रकार की अदृश्य मर्दों की प्राप्तियों एवं भुगतान का विवरण होता है।
जैसे-:
सेवाओं (टूरिज्म ट्रांसपोर्ट आईटी सर्विस)के आयात निर्यात का विवरण,
आय-: लाभ ,ब्याज, लाभांश
अंतरण-: प्राप्त हुई या भेजी गई रकम, अनुदान या उपहार।
पूंजी खाता-:
भुगतान संतुलन कावह खाता जिसमें निम्न मदों का विवरण होता है
विदेशी निवेश-: fdi ,fii
विदेशी ऋण-: sovereign(सरकार द्वारा लिया गया, या दिया गया ऋण), commercial(देश के व्यापारिक कंपनी द्वारा लिया गया या दिया गया ऋण)
विदेशी बैंकिंग पूंजी-: nri.
व्यापार संतुलन और भुगतान संतुलन में अंतर
व्यापार संतुलन का तात्पर्य दो देशों के मध्य होने वाले वस्तुओं के आयात निर्यात के विवरण से है।
जबकि भुगतान संतुलन का तात्पर्यएक देश के निवासियों द्वारा विश्व के अन्य देश के साथ किए गए समस्त प्रकार के(वस्तुओं एवं सेवाओं के आयात निर्यात के साथ हस्तांतरण ,विदेशी ऋण, विदेशी आय) मौद्रिक लेनदेन के विवरण से है।
भुगतान संतुलन में दृश्य और अदृश्य दोनों मदों को शामिल किया जाता है जबकि व्यापार संतुलन में केवल दृश्य मदों को शामिल किया जाता है
भुगतान संतुलन सदैव संतुलित रहता है जबकि व्यापार संतुलन संतुलित या असंतुलित हो सकता है
भुगतान संतुलन को पक्ष में करने के उपाय
भारत में स्वतंत्रता के बाद से अब तक केवल वर्ष 1976 से 1979 को छोड़कर भारत का भुगतान संतुलन चालू खाते के आधार पर प्रतिकूल ही रहा है।
जो भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए हानिकारक है अतः भुगतान संतुलन को अनुकूल करने के लिए निम्न कदम उठाने चाहिए-:
अनावश्यक वस्तु एवं सेवा पर आयात शुल्क दर बढ़ाकर अनावश्यक आयात पर रोक लगाई जाए
निर्यात शुल्क में कमी की जाए
निर्यात संवर्धन जन का विकास करके निर्यात को बढ़ावा दिया जाए
अनुसंधान एवं विकास कार्यक्रम द्वारा उन्नत तकनीकी विकसित करके देश में ही आयातित वस्तुओं का उत्पादन किया जाए। तथा आयात प्रतिस्थापन की नीति अपनाई जाए।
आवश्यकतानुसार मुद्रा का अवमूल्यन किया जाए ताकि आयात कम हो और निर्यात अधिक।
देश के पर्यटक स्थलों तक पर्याप्त अधोसंरचना का विकास करके विदेशी पर्यटन को बढ़ावा दिया जाए।
विदेशी निवेश को बढ़ावा दिया जाए।
विदेशी पूंजी
विकासशील देशों के पास अपनी अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए पर्याप्त घरेलू साधन नहीं होते, अतः भारत जैसे विकासशील देश अपनी अर्थव्यवस्था का विकास सुनिश्चित करने के लिए विदेशी पूंजी की सहायता लेते हैं।
विदेशी पूंजी का सामान्य तात्पर्य -: “विदेशों से प्राप्त की गई ऐसी पूंजी से है जो देश की आर्थिक विकास में सहायक हो।”
विदेशी पूंजी किसी भी रूप में हो सकती है जैसे-: अन्य देशों द्वारा की गई आर्थिक सहायता, विदेशी निवेश, विदेशी ऋण।
भारत के विकास में विदेशी पूंजी की भूमिका
विदेशी पूंजी से देश में निवेश बढता है और निवेश बढ़ने से उत्पादन बढ़ता है उत्पादन बढ़ने से आय एवं रोजगार बढ़ता है।
देश के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के रूप में विदेशी पूंजी आने से विदेशों की तकनीक देश का देश में विस्तार होता है जिससे देश की अर्थव्यवस्था का विकास होता है।
देश में उत्पादन अधिक होने से निर्यात अधिक होने लगता है आयात कम होता है परिणाम स्वरूप भुगतान संतुलन पक्ष में आ जाता है।
प्राकृतिक आपदाओं के संकट से अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए विदेशी पूंजी सहायक होती है
विदेशी निवेश
विदेश के किसी उद्यमी द्वारा हमारे देश में किया गया निवेश, विदेशी निवेश कहलाता है।
विदेशी निवेश सामान्यतः दो प्रकार का होता है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI)
विदेशी पोर्टफोलियो निवेश(FPI)
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश
जब किसी विदेशी कंपनी या उघमी द्वारा हमारे देश की कंपनी में 10% से अधिक निवेश किया जाता है या हमारे देश में नई कंपनी स्थापित की जाती है जिससे विदेशी कंपनी को निवेशित कंपनी में प्रत्यक्ष रूप से प्रबंधन एवं नियंत्रण का अधिकार प्राप्त हो जाता है तो इसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कहते हैं।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रकार
ग्रीन फील्ड प्रत्यक्ष निवेश
जब विदेशी उद्योगपति(कंपनी) हमारे देश में आकर अपनी कंपनी(शाखा) स्थापित करता हैं तो इसे ग्रीन फील्ड निवेश कहते हैं
ग्रीन फील्ड निवेश में कंपनी का स्वामित्व विदेशी उद्योगपतियों का होता है
Example-: पेप्सी कंपनी
ब्राउनफील्ड प्रत्यक्ष निवेश
जब विदेशी उद्योगपति हमारे देश की कंपनी में सामान्यता 10% से अधिक निवेश करता है तो उसे ब्राउनफील्ड प्रत्यक्ष निवेश कहते हैं
ब्राउनफील्ड निवेश में कंपनी का स्वामित्व तो भारतीय के पास होता है किंतु कंपनी के प्रबंधन एवं नियंत्रण का कुछ (जितनी अनुपात में उस में निवेश किया है) अधिकार विदेशी उद्योगपति के पास में होता है
Example-: …..
वर्तमान में भारत में अलग-अलग आर्थिक क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने की दर अलग-अलग हैं।
जैसे-:
कृषि, खनन ,पैट्रोलियम ,प्राकृतिक गैस तथा औषधि निर्माण के उद्योगों में विदेशी कंपनी 100% तक FDI कर सकती है.
पेट्रो मार्केटिंग, मनोरंजन मीडिया, निजी क्षेत्र के बैंक आदि में विदेशी कं दोपनी 74% तक कर FDI सकती है।
समाचार पत्र, बीमा, सरकारी क्षेत्र के बैंक आदि में विदेशी कंपनी 49% तक FDI कर सकती है।
संपत्ति खरीदने बेचने के व्यापार, लॉटरी व्यापार ,परमाणु ऊर्जा आदि क्षेत्र में विदेशी कंपनी को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करने की अनुमति (0%) नहीं है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लाभ
विदेशी पूंजी से देश में निवेश बढता है और निवेश बढ़ने से उत्पादन बढ़ता है उत्पादन बढ़ने से आय एवं रोजगार बढ़ता है।
देश के विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि होती है
विदेशों की तकनीक देश का देश में विस्तार होता है जिससे देश की अर्थव्यवस्था का विकास होता है।
देश में उत्पादन अधिक होने से निर्यात अधिक होने लगता है आयात कम होता है परिणाम स्वरूप भुगतान संतुलन पक्ष में आ जाता है।
देश के बाजार में प्रतिस्पर्धा का माहौल बनता है परिणाम स्वरूप उत्पादों की गुणवत्ता में सुधार आता है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से हानि
बड़ी विदेशी कंपनियों के मशीनीकृत उत्पादों की प्रतियोगिता देश के लघु सूक्ष्म उद्योग नहीं कर पाते परिणाम स्वरुप इन का पतन होने लगता है
देश की आत्मनिर्भरता को खतरा होता है
देश की संप्रभुता को खतरा होता है
विदेशी कंपनियों द्वारा विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन से देश के लोगों में विलासिता की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।
देश के लोग विदेशों के समान का उपयोग करने लगते हैं जिससे देश की संस्कृति का विनाश होता है।
विदेशी पोर्टफोलियो निवेश
जब कोई विदेशी कंपनी या उद्योगपति भारतीय कंपनी में 10% से कम निवेश करता (शेयर खरीदती)है जिससे विदेशी उद्योगपति को निवेशित कंपनी में प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण एवं प्रबंधन का अधिकार प्राप्त नहीं होता तो इसे विदेशी पोर्टफोलियो निवेश कहते हैं।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश तथा विदेशी पोर्टफोलियो निवेश(FPI / FII) में अंतर
जब कोई विदेशी उद्योगपति या कंपनी भारतीय कंपनी में 10% से अधिक निवेश करती है तो इसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश कहा जाता है जबकि यदि विदेशी कंपनी भारतीय कंपनी में 10% से कम निवेश करती है तो इसे विदेशी पोर्टफोलियो निवेश कहते हैं।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से विदेशी कंपनी को निवेशित कंपनी में प्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण एवं प्रबंधन का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
जबकि विदेशी पोर्टफोलियो निवेश में विदेशी उद्योगपति को निवेशित कंपनी में नियंत्रण एवं प्रबंधन का अधिकार प्राप्त नहीं होता।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश दीर्घकालिक अवधि के लिए होता है जबकि विदेशी पोर्टफोलियो निवेश अल्पकालिक अवधि के लिए होता है।
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश द्वारा विदेशी कंपनी भारतीय कंपनी के उत्पादन में पूंजी लगाकर लाभ कमाती है
जबकि विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के अंतर्गत विदेशी कंपनी केवल भारतीय कंपनी के शेयर खरीद कर लाभ कमाती हैं या हानि सहती है।
बहुराष्ट्रीय कंपनी
ऐसी कंपनियां जिनका व्यवसाय एक से अधिक देशों में फैला हुआ होता है उसे बहुराष्ट्रीय कंपनियां कहते हैं
भारत में वर्तमान में लगभग 800 से अधिक बहुराष्ट्रीय कंपनियों का व्यवसाय है
जैसे-: मारुति-सुजुकी ,सोनी ,पेप्सी कोला, कोको कोला
बहुराष्ट्रीय कंपनी से लाभ
यदि कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी हमारे देश में स्थापित होती है तो उससे निम्न लाभ होते हैं-:
राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि (कोई भी बहुराष्ट्रीय कंपनी जब हमारे देश में अपने उद्योग स्थापित करती है तो देश में व्यापक मात्रा में उत्पादन होता है जिससे सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि होती है)
रोजगार के अवसरों में वृद्धि (जब हमारे देश में कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी का उद्योग स्थापित होता है तो करोड़ों लोगों को रोजगार प्राप्त होता है)
निर्यात में वृद्धि (हमारे देश में स्थापित बहुराष्ट्रीय कंपनी उच्च गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं का उत्पादन करते हैं जिनकी मांग विदेशों में होती है अतः राष्ट्रीय निर्यात में वृद्धि होती है)
आयात में कमी होती है क्योंकि हमें आयात करने योग्य आवश्यक वस्तुएं इन कंपनियों से प्राप्त हो जाती हैं
देश के उपभोक्ताओं को विश्व स्तर की गुणवत्तापूर्ण वस्तुएं प्राप्त हो जाती है(क्योंकि इनकी प्रतियोगिता विश्व स्तर पर होती है
संसाधनों का कुशलता में प्रयोग (बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास संसाधनों के प्रयोग की कुशलतम तकनीक होती है परिणाम स्वरूप हमारे देश के संसाधनों का कुशलतापूर्वक प्रयोग हो पाता है)
बहुराष्ट्रीय कंपनियों से हानि
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मशीनीकृत उत्पादों की प्रतियोगिता देश के लघु सूक्ष्म उद्योग नहीं कर पाते परिणाम स्वरुप इन का पतन होने लगता है
देश की आत्मनिर्भरता को खतरा होता है
देश की संप्रभुता को खतरा होता है
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन से देश के लोगों में विलासिता की प्रवृत्ति बढ़ने लगती है।
देश के लोग विदेशों के समान का उपयोग करने लगते हैं जिससे देश की संस्कृति का विनाश होता है।
देश के बाजार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के एकाधिकार की स्थिति उत्पन्न होने लगती है
जैसे -: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में अपना एकाधिकार कर लिया था
