श्री अरविंद घोष
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जीवन परिचय:-
पूर्ण अद्वैतवादी चिंतक एवं महान राजनीतिक विचारक श्री अरविंद घोष जी का जन्म 1872 ईसवी को कोलकाता के एक संपन्न परिवार में हुआ था, इनके पिता डॉक्टर कृष्णधन घोष कोलकाता की प्रसिद्ध सिविल सर्जन थे।वे पाश्चात्य संस्कृति से पूर्णता रंगे हुए थे और अरविंद घोष को भी पश्चात संस्कृति के प्रभाव में लाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अरविंद घोष को 7 वर्ष की उम्र में ही इंग्लैंड ले जाकर और वहां उनकी शिक्षा-दीक्षा पूरी करवाई, अरविंद घोष प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के धनी थे उन्होंने 1890 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय में प्रवेश किया और पढ़ाई करने के बाद वे आईसीएस की परीक्षा में पास हो गए किंतु उन्हें अंग्रेज सरकार की दासता स्वीकार नहीं थी इसलिए उन्होंने ics की नौकरी छोड़ दी।
इसके बाद वे 1893 को भारत वापस लौटे और बड़ोदरा नरेश के यहां प्रशासनिक एवं अध्यापक के पदों पर नौकरी करने लगे, और लगभग 13 वर्ष नौकरी करने के बाद 1905 में वे बंग भंग आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेकर राजनीति में आ गए और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल का नेतृत्व करने लगे किंतु 1908 हिंदी में अरविंद को गिरफ्तार करके अलीपुर जेल में रख दिया गया हालांकि 1909 में उनकी रिहाई हुई इसके बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया और 1910 में पांडुचेरी में अरविंदो आश्रम की स्थापना करके 1910 से अपने जीवन के अंत तक वही योगाभ्यास करते रहे।
अंततः 1950 में पांडुचेरी में ही उनकी मृत्यु हो गई।
अरविंद घोष की प्रमुख रचनाएं:-
एसेज ऑन गीता, द लाइफ डिवाइन, द सिंथेसिस ऑफ़ योगा, ऑन द वेदा।
अरविंद घोष का दर्शन:-
परमतत्व की सत्ता:-
अरविंद घोष पूर्ण अद्वैतवादी दार्शनिक हैं क्योंकि उन्होंने अपने दर्शन में केवल परमतत्व की सत्ता को स्वीकारते हुए कहा है कि यह जगह परमतत्व की ही अभिव्यक्ति है तो यह प्रश्न उठता है कि परमतत्व क्या है? इसके उत्तर में वो कहते हैं कि परम तत्व पूर्ण चेतना है इसका स्वरूप सच्चिदानंद है अर्थात यह सत, चित, आनंद से युक्त है।
जगत:-
उन्होंने इस जगत को शंकराचार्य की भांति मिथ्या ना मानकर वास्तविक माना है और कहा है जगत परमतत्व (ब्रह्म) का ही स्वरूप एवं लीलामय अभिव्यक्ति है।
सृष्टि विचार:-
श्री अरविंद ने जगत की प्रक्रिया को दो रूप में व्यक्त किया है:-
आरोहण (विकास)
अवरोहण (प्रति विकास)
उनके अनुसार जगत की 8 अवस्थाएं या स्तर हैं:-
जड़ , प्राण, मन, मानस, अति मानस, आनंद, चित्, सत्।
और जब जगत अपने निम्नतर स्तर से उच्चतर स्तर की ओर बढ़ता है तो जगत की इस प्रक्रिया को आरोहण या विकास कहते हैं। इसके विपरीत जब जगत उच्चतर स्तर (सच्चिदानंद) से निम्नतम स्तर की ओर बढ़ता है तो जगत की यह प्रक्रिया अवरोहण कहलाती है।
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श्री अरविंद के अनुसार अभी तक जगत अर्थात व्यक्ति आरोहण की तीन स्तरों को पार कर के चौथे स्तर अर्थात- “मानस” तक पहुंच पाया है और अब आरोहण की प्रक्रिया द्वारा अगला स्तर आने वाला है जब व्यक्ति मानस की स्थिति से अति मानस की स्थिति में पहुंच जाएगा। अति मानस की स्थिति में मनुष्य पूर्ण चेतन की अवस्था को प्राप्त कर लेगा।
और अति मानस की स्थिति में पहुंचने के लिए मनुष्य को पूर्ण योग करना चाहिए।
पूर्ण (समग्र)योग:-
सामान्यतः भारतीय दर्शन के अनुसार योग का तात्पर्य- आत्मा के परमात्मा से मिलन की साधना से है, तथा योग के भिन्न भिन्न रूप बताएं गए हैं जैसे- हठ योग, राजयोग, शक्ति योग, कर्म योग, ज्ञान योग।
किंतु श्री अरविंद घोष का योग, समग्र या पूर्ण योग है जिसमें अन्य सभी योग जैसे- हठ योग, राजयोग, शक्ति योग, कर्म योग, ज्ञान योग अति का सामंजस्य है और उनके योग का लक्ष्य- मानस को अति मानस स्वरूप में बदलना है,क्योंकि अतिमानस की स्थिति में मनुष्य पूर्ण चेतन की अवस्था को प्राप्त कर लेगा।
अरविंद घोष अपनी समग्र योग में गृहस्थ या सांसारिक जीवन को त्याग कर, आत्मा को परमात्मा में मिलाने की बात नहीं करते बल्कि वे सांसारिक जीवन का पालन करते हुए,साधना द्वारा अध्यात्मिक दर्जे में पहुंचकर इस जीवन को ही दिव्य बनाने की बात करते हैं।
श्री अरविंद घोष ने संपूर्ण योग की तीन प्रक्रिया बताई है:-
आत्मिकता की प्रक्रिया
आध्यात्मिकता की प्रक्रिया
अतिमानसीकरण की प्रक्रिया
आत्मिकता की प्रक्रिया:-
इसके अंतर्गत मनुष्य अपने भीतर की आत्मीय शक्ति को जागृत करता है, तथा अपने चिंतन का सकारात्मक दृष्टिकोण सतत रूप से बनाए रखता है। इस प्रक्रिया से मनोवृत्ति में सकारात्मक परिवर्तन आता है वह (मनुष्य)निम्न स्तर से उच्च स्तर की ओर अग्रसर होता है।
आध्यात्मिकता की प्रक्रिया:-
यह पूर्ण योग की दूसरी कड़ी है इसके अंतर्गत मनुष्य आत्म को आध्यात्मिकता से जोड़कर आध्यात्मिक चिंतन द्वारा दिव्य ज्ञान की ओर उन्मुख होता है।
अतिमानसीकरण की प्रक्रिया:-
यह पूर्ण योग की तीसरी एवं अंतिम कड़ी है इसमें आत्मा उच्चतर चेतना अर्थात अति मानस की स्थिति को प्राप्त कर लेती है। और सभी प्रकार का मानसिक विकास शांत हो जाता है।
श्री अरविंद घोष के राजनीतिक विचार:-
अरविंद घोष एक महान राजनीतिक दार्शनिक होने के सर साथ एक प्रसिद्ध राजनीतिक चिंतक भी थे उनका राजनीतिक चिंतन निम्नलिखित है:-
पूर्ण स्वराज:-
अरविंद घोष पूर्ण स्वराज की प्रबल समर्थक थे क्योंकि उनका मानना था कि- पराधीन राष्ट्र अव्यवस्थित होकर अपनी शक्ति खो देता है, तथा पराधीन राष्ट्र के नागरिकों की स्वतंत्रता भी छिन जाती है। जो राष्ट्र एवं व्यक्ति दोनों की उन्नति के लिए बाधा है अतः राष्ट्र विकास की पहली शर्त राष्ट्र की स्वाधीनता है। इसी विचार के तहत उन्होंने कांग्रेस के गरम दल विचारधारा से संपर्क रखते हुए स्वदेशी आंदोलन का भरपूर समर्थन भी किया था।
व्यक्ति की स्वतंत्रता:-
अरविंद घोष व्यक्ति की स्वतंत्रता को उतना ही महत्व देते हैं जितना कि राष्ट्र की स्वतंत्रता को। उनका मानना है कि व्यक्ति की स्वतंत्रता जहां एक ओर व्यक्ति का विकास होगा वहीं दूसरी ओर व्यक्ति के विकास से राष्ट्र का विकास होगा अर्थात संपूर्ण राष्ट्र के विकास के लिए व्यक्तिगत स्वतंत्रता आवश्यक है।
साम्यवाद:-
श्री अरविंदो के अनुसार राज्य एवं समाज का यह कर्तव्य है कि वह लोगों के मध्य आर्थिक समानता स्थापित करे।
अध्यात्मिक राष्ट्रवाद:-
श्री अरविंद की दृष्टि में राष्ट्रवाद केवल एक सीमित आंदोलन नहीं बल्कि राष्ट्रवाद का आस्था का विषय है उन्होंने अपनी एक घोषणा में कहा था कि “राष्ट्रवाद कोरा राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है, बल्कि राष्ट्रवाद ऐसा धर्म है जो ईश्वर की देन है”
राष्ट्र के उत्थान में ही व्यक्तियों की प्रगति एवं उत्थान निहित है , और यह भारत राष्ट्र तो साक्षात भगवती है जो शताब्दियों से बड़े प्यार दुलार से अपनी संतानों का पालन पोषण करती आई है, लेकिन आज वह विदेशी शासन की बेड़ियों से जकड़ी हुई है और स्वतंत्रता के लिए कराह रही है अतः अब भारत माता की संतानों का यह कर्तव्य है कि वह भारत माता की पांव में बंधी बेड़ियों को काटे और विदेशी शासन से मुक्ति दिलाएं।
इस प्रकार उन्होंने भारत के राष्ट्रवाद को अध्यात्म से जोड़ कर उसे और भी ज्यादा व्यापक रूप दिया।
स्वदेशी या निष्क्रियता का सिद्धांत:-
अरविंद घोष के अनुसार भारत में स्वराज्य प्राप्ति के 3 तरीके उपलब्ध थे:-
प्रार्थना व याचिकाओं का तरीका।
सहस्त्र विद्रोह का तरीका।
आत्मविकास और निष्क्रिय प्रतिरोध का तरीका।
और श्री अरविंद घोष जी मानते थे कि प्रार्थना एवं याचिकाओं के द्वारा आजादी मिलना संभव नहीं है इसकी पुष्टि नरम दल की असफलता से होती है।
तथा सशस्त्र विद्रोही द्वारा भी आजादी संभव नहीं है क्योंकि ब्रिटिश सरकार इसे दबा देगी, इस प्रकार भारतीयों के पास आजादी का केवल एक ही रास्ता है आत्म-विकास एवं निष्क्रिय प्रतिरोध का तरीका।
अर्थात ब्रिटिश सरकार से सहयोग एवं समर्थन वापस लेकर स्वदेशी शिक्षा, स्वदेशी कपड़े, स्वदेशी वस्तुओं ,का इस्तेमाल किया जाए और विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए।
इनकी इसी नीति को महात्मा गांधी ने सत्याग्रह के रूप में अपनाया।
विश्व संघ की संकल्पना:-
अरविंद घोष ने अपनी रचना the ideal of human unity में विश्व संघ की अवधारणा को प्रस्तुत किया है।
उनके अनुसार सार्वभौमिक “मानवीय एकता” की स्थापना के लिए एक ऐसे विश्व संघ का निर्माण किया जाए,
जिसमें सभी राष्ट्र अपनी स्वतंत्रता बनाए रखते हुए स्वेच्छा से शामिल हों।
विश्व संघ की रचना का आधार शक्ति ना हो और ना ही शक्तिशाली राष्ट्रों का वर्चस्व हो।
प्रत्येक राष्ट्र समान समझा जाए।
विश्व संघ के सदस्यों में अहम की भावना ना हो बल्कि वे मानवता की भावना से ओतप्रोत हों।
विश्व संघ का सर्वोच्च लक्ष्य मानव एकता स्थापित करना हो।
श्री अरविंद घोष के पांच स्वप्न:-
एक ऐसा आंदोलन हो जो एक स्वतंत्र और संगठित भारत बनाएं।
एशिया के लोग स्वतंत्र होकर उभरे।
समस्त मानव जाति के लिए एक न्याय संगत विश्व संघ की स्थापना हो।
संसार को भारत का आध्यात्मिक उपहार प्राप्त हो।
उच्चतम चेतन प्राप्ति के विकास चरण की शुरुआत हो।