आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति
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Toggleआयुर्वेद शब्द संस्कृत की दो शब्दों से मिलकर बना है “आयु”+ “वेद”। यहां पर आयु का अर्थ है जीवन और वेद का अर्थ है विज्ञान अर्थात आयुर्वेद जीवन को स्वस्थ रखने का विज्ञान है।
वास्तव में आयुर्वेद विश्व का प्राचीनतम चिकित्सा विज्ञान है जो लगभग 5000 वर्ष पूर्व से प्रचलित है।
विशेषताएं
यह पूर्ण रूप से प्राकृतिक सिद्धांतों पर आधारित है। इसके अंतर्गत व्यक्ति के अनुसार प्राकृतिक पदार्थों का उपयोग करते हुए जीवन शैली संचालित करने का वर्णन किया गया है।
इस चिकित्सा प्रणाली में रोग के उपचार के बजाय, रोग ना होने देने पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है।
आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति में व्यक्तिपरक इलाज किया जाता है अर्थात प्रत्येक व्यक्ति का उसकी प्रकृति के अनुसार अलग-अलग विधियों से उपचार किया जाता है।
इस प्रणाली का उपचार शोधन और शमन प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है।
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के अनुसार मानव का शरीर चार मूल तत्वों से मिलकर बना है-:
त्रिदोष-: कफ वात पित्त। इनमें असंतुलन होने से रोग उत्पन्न होता है।
धातु-: शरीर को संबल प्रदान करने वाले पदार्थ जैसे-: रक्त ,मांस ,अस्थि, वीर्य,
अग्नि-: अग्नि का तात्पर्य जठराग्नि से है यह शरीर की उपापचयी एवं पाचन क्रिया में मदद करती है।
मल-: मल का तात्पर्य मल ,मूत्र,पसीना से है जो शरीर के विषैले अपशिष्ट को बाहर निकालते हैं।
आयुर्वेद में रोगों का निवारण-:
रोग की पहचान-:
आयुर्वेद में सर्वप्रथम अग्रो लिखित परीक्षण द्वारा रोगी के रोग की स्थिति एवं कारण का पता लगाया जाता है। -:
नाड़ी परीक्षण।
हृदय गति परीक्षण।
मल एवं मूत्र परीक्षण।
त्वचा को स्पर्श करके परीक्षण।
चेहरे की स्थिति का परीक्षण।
जीभ, नाखून एवं आंखों का परीक्षण।
उपचार-:
आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति में रोग की स्थिति का पता लगाने के पश्चात निम्न विधियों के माध्यम से उपचार किया जाता है-:
शोधन-: इसके अंतर्गत पंचतत्व शोधन क्रिया के माध्यम से शरीर की दूषित पदार्थों को बाहर निकाला जाता है। जैसे-: वमन करवा कर।
शमन-: इसके अंतर्गत रोगी को औषधियां देकर उसके अंदर से दूषित पदार्थ बाहर निकाला जाता है। जैसे -:काढा पिलाकर।
आहार क्रिया-: इसके अंतर्गत उपयुक्त आहार ग्रहण करवा कर रोगी का उपचार किया जाता है। जैसे-:शुगर वाले व्यक्ति को शक्कर रहित भोजन करवाकर।
आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति का महत्व-:
एलोपैथिक चिकित्सा पद्धति की तुलना में कम खर्चीली है। इस चिकित्सा पद्धति में महंगी रसायनों की आवश्यकता नहीं होती बल्कि जड़ी बूटियों एवं काढा आदि की उपलब्धि आवश्यकता होती है जो आस पास निशुल्क उपलब्ध होते हैं।
इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है।
इसमें लोगों के प्रभाव का नहीं बल्कि रोगों के कारण कोई समाप्त कर दिया जाता है अर्थात यह लोगों का परमानेंट इलाज है।
यह आहार-विहार पर आधारित चिकित्सा पद्धति। अतः इस चिकित्सा पद्धति को आसानी से अपनाकर रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाई जा सकती है और रोगों से बचा जा सकता है।
आयुर्वेद के लिए राष्ट्रीय संस्थान
राष्ट्रीय आयुर्वेद विद्यापीठ नई दिल्ली-1976
आयुर्वेद का स्नातकोत्तर शिक्षा व अनुसंधान संस्थान जामनगर (गुजरात)।
त्रिदोष -:
आयुर्वेद में त्रिदोष के बारे में कहा गया है-: “दुषणात दोषा: धारणात धानव:”अर्थात जब वात, कफ और पित्त असंतुलित हो जाते हैं तो रोग उत्पन्न होता है जब यह संतुलित रहते हैं तो शरीर रोग मुक्त रहता है।
आयुर्वेद में त्रिदोष-:
वात-: यह वायु एवं आकाश भूततत्वों से मिलकर बना होता है।
इसकी पहचान शरीर में मौजूद हवा के रूप में की जाती है।
इसका मुख्य कार्य रक्त परिसंचरण करना होता है।
बात दोष के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित है-: नींद ना आना,शरीर दुर्बल होना, रूखापन आदि।
उपाय– कपालभाति योग तथा त्रिफला का सेवन।
पित्त-: यह जल तथा अग्नि भूततत्वों से मिलकर बना होता है।
इसकी पहचान शरीर में मौजूद ऊष्मा के रूप में की जाती है।
इसका मुख्य कार्य भोजन को बचाना होता है।
पित्त दोष के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित हैं-: कब्ज रहना, मल त्यागने में परेशानी, एसिडिटी।
उपाय-: शीतल स्थान में रहे, ठंडी पर पदार्थ का सेवन।
कफ-: यह पृथ्वी और जल तत्व से मिलकर बनता है।
इसकी पहचान शरीर में मौजूद श्लेष्म के रूप में की जाती है।
इसका मुख्य कार्य शरीर में नमी बनाए रखना एवं हड्डियों का संचालन करना होता है।
कफ दोष के प्रमुख लक्षण -: घुटनों में दर्द, श्वसन संबंधी बीमारी, नींद अधिक आना।
उपाय-: हल्दी,अदरक आदि का सेवन।
पंचमहाभूत -:
आयुर्वेद के अनुसार हमारा शरीर तथा यह समस्त ब्रह्मांड पांच मूलभूत तत्वों से हुआ है।
रामायण में भी कहा कि-: “छिति, जल, पावक,गगन, समीरा।पंच रचित अति अधम शरीरा।।”
जब यह पंचतंत्र संतुलित मात्रा में हमारे शरीर में होते हैं तो हम रोग मुक्त रहते हैं।
विपरीत पंचतरों की संतुलन बिगड़ने से शरीर रोग युक्त हो जाता है।
पंचतत्व-
आकाश -:
आकाश पंच महाभूत तत्वों का पहला तथ्य जिसे अंतरिक्ष भी कहा जाता है।
आकाश का संबंध हमारे शरीर के गुहा स्थान से है। (मुख गुहा,अमाशय गुहा)
आकाश तत्व का कोश- आनंदमय कोश माना जाता है।
वायु -:
यह दूसरा महत्वपूर्ण पंचभूत तत्व है।
वायु का संबंध हमारे शरीर के श्वसन तंत्र से है।
वायु तत्व का कोश विज्ञानमय कोश माना जाता है।
अग्नि -:
तीसरा प्रमुख पंच महाभूत तत्व।
अग्नि का संबंध हमारे शरीर के जठराग्नि से है जो पाचन में सहायक है।
वायु तत्व का कोश मनोमय कोष माना गया है।
जल-:
चौथा महत्वपूर्ण पंचभूत तत्व।
इसका संबंध हमारे शरीर के उत्सर्जन तंत्र तथा श्वेत ग्रंथियां से है।
जल तत्व का कोश प्राणमय कोश को माना गया है।
पृथ्वी-:
यह पांच भूतों का अंतिम तत्व है।
इसका संबंध हमारे शरीर की कंकाल तंत्र से है।
पृथ्वी तत्व का कोश- अन्नमय कोश है।
दिनचर्या-:
दिनचर्या दो शब्दों से मिलकर बना है दिन और चार्य दिन का अर्थ होता है- दिवस, चर्या का अर्थ होता है आचरण।
अर्थात प्रतिदिन किए जाने वाले दैनिक कर्मों को दिनचर्या कहते है।
अष्टांगहृदयम में आयुर्वेदिक दिनचर्या का वर्णन है -:
प्रातः उत्थान -: सूर्योदय के पहले ब्रह्म मुहूर्त में जागना।
उष: पान-: गुनगुना पानी पीना।
मलोत्सर्जन-: मलमूत्र का त्याग करना।
दंत धावन:-औषधीय वृक्ष की दातून से दांतों को साफ करना।
नस्य क्रिया -: गुनगुना सरसों या तिल का तेल नाक में डालना।
अभ्यंग -: शरीर की तेल से मालिश करना।
व्यायाम-: सूर्य नमस्कार, योग एवं आसन आदि करना।
स्नान-: गार्डन के नीचे वाले भाग को उष्ण जल से तथा सर को ठंडे जल से धोना।
भोजन -: संतुलित तथा शाकाहारी भोजन चबा-चबाकर खाना।
तांबूल सेवन-: पान का सेवन करना ,पान के सेवन से पाचन शक्ति मजबूत होती है।
निद्रा -: 6 से 8 घंटे की नींद लेना।
ऋतुचर्या-:
ऋतुओं के मौसम के अनुरूप उपयुक्त जीवन शैली का पालन करना।
अष्टांग हृदय में ऋतुचर्या का उल्लेख किया गया है-:
आयुर्वेद में छह ऋतुएं मानी जाती है-:
वर्षा ऋतु,
शरद ऋतु,
हेमंत ऋतु,
शिशिर ऋतु,
बसंत रितु
ग्रीष्म ऋतु
वर्षा ऋतुचर्या -:
इस ऋतु का समय जुलाई अगस्त में होता है
क्या करें-
शहद का सेवन करें
उबला पानी पीएं
तेल से शरीर की मालिश करें
क्या ना करें-
शीतल जल का सेवन न करें
दिन में नहीं सोना चाहिए।
शरद ऋतुचर्या –
इस ऋतु का समय सितंबर अक्टूबर में होता है।
क्या करें-
रस युक्त भोजन करें।
अंगूर, मुनक्काb2ṇ का सेवन करें।
क्या ना करें-
गरम मसालेदार भोजन न करें।
दिन में नहीं सोना चाहिए।
हेमंत ऋतुचर्या –
इस ऋतु का समय नवंबर दिसंबर में होता है।
क्या करें –
दूध,दही, घी का सेवन करें।
नमकीनी एवं खट्टा आहार लें
क्या ना करें
उपवास न करें। (क्योंकि ऊष्मा की अधिक जरूरत होती है)
शीतलता में ना रहे।
शिशिर ऋतुचर्या
इस ऋतु का समय जनवरी-फरवरी में होता है।
क्या करें
दूध,दही, घी का सेवन करें
वाष्प स्नान करना।
तेल से मालिश करें।
गर्म वस्त्र पहनें।
क्या ना करें
ठंडी हवा से बचें।
उपवास न करें।
बसंत ऋतुचर्या
इसका समय मार्च अप्रैल में होता है।
क्या करें
प्रातः धूप का सेवन करें।
नस्य-क्रिया करें।
गेहूं की बाली का सेवन करें।
क्या ना करें
भारी भोजन न करें
दिन में नहीं सोना चाहिए।
ग्रीष्म ऋतुचर्या
इसका समय मई जून में होता है
क्या करें
शीतल एवं तरल आहार करें
सुबह की सैर करें
क्या ना करें
भारी भोजन का सेवन न करें।
धूप में न जाएं।
पंचकर्म-:
पंचकर्म आयुर्वेदिक शुद्धिकरण की एक प्रक्रिया है।
आचार्य सुश्रुत के अनुसार पांच क्रम में निम्न पांच क्रिया शामिल है-:
1.वमन-:
मुख द्वारा शरीर से दूषित पदार्थों को बाहर निकलना।
यह विधि मुख्ता कफ दोष के रोगियों के लिए ज्यादा लाभप्र होती है।
इस विधि में वमन औषधीय देकर उल्टी कराई जाती है।
2.विरेचन-:
मल मार्ग के द्वारा दूषित पदार्थों को बाहर निकलना।
यह विधि मुख्यतः पित्त रोगियों के लिए लाभप्रद है।
इसमें विरेचन औषधीय देकर दस्त लगवाए जाते हैं।
3.बस्ती-:
इस विधि के अंतर्गत काढा या तेल को मल-मार्ग, गुदा-मार्ग या मूत्र मार्ग से शरीर में प्रवेश कराकर उपचार किया जाता है।
यह विधि मुख्य वात रोगियों के लिए अधिक लाभप्रद है।
4.नस्य विधि -:
इस विधि में नाक के माध्यम से औषधि तेल डाला जाता है।
यह विधि सिर तथा गर्दन के रोगियों के लिए अधिक लाभप्रद है।
5. रक्तमोक्षण-:
जोंक या सुई आदि के माध्यम से दूषित रक्त बाहर निकलना।
यह विधि चर्म रोग या रक्त संबंधी रोगों के लिए अधिक लाभप्रद है।
जैविक घड़ी-:
जीवधारी में सुबह को उठने से लेकर रात के सोने तक, वातावरणीय समय के अनुसार विभिन्न शारीरिक क्रियाओं का एक रिदम होता है,जिसे जैविक घड़ी कहते हैं।
जैविक घड़ी यह निर्धारित करती है कि
हम कितने बजे सोएंगे,
कितने बजे उठेंगे,
कब हमें भूख लगेगी,
किस समय हमें आलस आएगी
किस समय हम ऊर्जावान रहेंगे आदि।
और बायोलॉजिकल क्लॉक के निर्धारण में हाइपोथैलेमस की सुप्राचैस्मेटिक न्यूक्लियस तथा पीनल ग्रंथि के मेलाटोनिन हार्मोन की अहम भूमिका होती है।
-:दिन के समय प्रकाश की उपस्थिति में मेलाटोनिन हार्मोन का श्रवण काम होता है जिससे हमें नींद नहीं आई जिसकी भी प्रीत रात के समय अंधेरे की उपस्थिति में मेलाटोनिन हार्मोन का श्रावण अधिक होता है जिससे हमें नींद आती है।
बायोलॉजिकल क्लॉक बिगड़ने से समस्याएं-:
भोजन के अपच की समस्या।
अनिद्रा की समस्या।
हाई ब्लड प्रेशर की समस्या।
एकाग्रता में कमी।
निर्णय क्षमता में कमी।
अतः जैविक घड़ी को संतुलित बनाकर रखना आवश्यक है इसके लिए-:
एक निश्चित समय पर सोए।
देर रात तक स्क्रीन टाइम बिताने से बचें।
निश्चित समय पर खाना खाएं।
सूर्य नमस्कार आदि करें।