दार्शनिक चिंतक सुकरात/ Socrates

[सुकरात]

दार्शनिक चिंतक सुकरात/ Socrates

सुकरात का जीवन परिचय

जन्म:- 469 ई.पू. एथेंस में। 

मृत्यु:- 399 ई.पू. (विष का प्याला पीकर)

पिता:- मूर्तिकार एवं शिल्पकार थे। 

विशिष्टता:- पश्चिमी दर्शन के जनक कहे जाते हैं। (हालांकि उन्होंने कोई किताब नहीं लिखी थी बल्कि उनके विचारों को उनके शिष्यों ने संग्रहित किया)

प्रमुख कथन:- 

  • मैं केवल एक ही बात जनता हूं, कि मैं कुछ नहीं जानता हूं। 

  • अज्ञान ही अनैतिक कार्यों का कारण है।

सुकरात की दार्शनिक समस्या

सुकरात के समय काल में सोफिस्ट मत का प्रचलन था, जिसके अनुसार:- 

  • इंद्रियां ही ज्ञान का अंतिम स्त्रोत है। 

  • सत्य, आत्मनिष्ट एवं परिवर्तनशील होता है, क्योंकि मनुष्य ही सभी वस्तुओं का मापदंड है। 

यह मत एथेंस के नागरिकों के मध्य अराजकता की स्थिति फैला रहा था,क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अपने अनुसार सत्य की व्याख्या कर रहे थे, चोर के अनुसार चोरी करना सत्य है और रक्षक के अनुसार चोरी करना असत्य है। 

अतः सुकरात ने सोफिस्टों के मतों का खंडन करते हुए अपने निम्न विचार प्रस्तुत किए:-

  • ज्ञान का अंतिम स्त्रोत इंद्रियां नहीं बल्कि बुद्धि (नैतिक चेतना)है क्योंकि इन्द्रियों से भ्रमजनित ज्ञान उत्पन्न होता है जैसे:-तारे टिमटिमाते हुए दिखाई देते हैं, जल में डूबी हुई लकड़ी के भी नजर आती है। 

  • सत्य आत्मनिष्ट ना होकर, वस्तुनिष्ठ एवं शास्वत होता है। जो परिवर्तित नहीं हो सकता। जैसे:- प्रत्येक की जीव की मृत्यु होना,सार्वभौमिक एवं अपरिवर्तनशील सत्य है। 

सुकरात के चिंतन की दार्शनिक पद्धति:- 

सुकरात की दर्शनिक पद्धति की पांच विशेषताएं हैं:- 

  • संदेहआत्मक 

  • वाद-विवादात्मक/प्रश्नोत्तर शैली

  • परिभाषात्मक

  • अनुभवात्मक/आगमनात्मक

  • निगमनात्मक। 

संदेहआत्मक पद्धति:- 

सुकरात के अनुसार किसी भी तथ्य या समस्या का सत्य जाने के लिए बौद्धिक रूप से विनम्र होना आवश्यक है। 

अतः सुकरात किसी भी तथ्य या समस्या का सत्य जाने के लिए, उसके प्रति संदेह एवं अपनी अज्ञानता प्रकट करते हैं क्योंकि यह संदेह ही सत्य तक पहुंचने का साधन है। इसे “सुकरात विडंबना” कहते हैं।

किंतु वे तत्कालीन सोफिस्टों के विपरीत सत्य के साधन पर संदेह करते थे, न कि सत्य पर। 

वाद-विवादात्मक/प्रश्नोत्तर शैली:-

सुकरात तार्किक वाद-विवाद के समर्थक थे, अर्थात वे तर्क वितर्क द्वारा ही सत्य तक पहुंचने का प्रयास करते थे,

इस पद्धति के अनुसार सुकरात के समक्ष कोई प्रश्न रखा जाता था, तो सुकरात प्रश्नकर्ता से ही उसका हल ढूंढने को कहते थे और प्रश्नकर्ता के उत्तर की लगातार आलोचना करते रहती थे, जब तक कि प्रश्नकर्ता स्वयं संतोषजनक हल नहीं दे देता था। इस पद्धति को धात्री प्रणाली कहा गया है। 

क्योंकि जिस प्रकार एक धात्री का कार्य बच्चा देना नहीं होता बल्कि, बच्चे को जन्म देने में मदद करना भर है, उसी प्रकार सुकरात प्रश्नकर्ता को केवल उत्तर ढूंढने में मदद करते थे, ना कि उत्तर देते थे। क्योंकि उनका मानना था कि व्यक्ति के अंदर ही ज्ञान निहित होता। 

परिभाषात्मक या प्रत्यात्मक:-

सुकरात के अनुसार किसी भी वस्तु का वास्तविक ज्ञान उसके प्रत्ययों या परिभाषाओं में विद्यमान रहता है। न कि उसके परिवर्तनशील प्रत्यक्षों या संवेदनाओं में।  क्योंकि किसी भी वस्तु की परिभाषा उसके सामान्य एवं मूलभूत गुणों को देखकर बनती है।

जैसे:- वह प्राणी जो जिसके अंदर बुध्दि होती है उसे मनुष्य कहते हैं, क्योंकि मनुष्य के अंदर बुद्धि होना मनुष्य का सामान्य गुण है। किंतु प्रत्यक्ष रूप से देखने पर कोई व्यक्ति बुद्धि नहीं भी दिख सकती है। 

अनुभवात्मक/आगमनात्मक

सुकरात की यह शैली विशेष अनुभवों से सामान्य सत्य का ज्ञान कराने वाली विधि है। 

जैसे:- हमने एक पक्षी को देखा तो उसके दो पंखे दिखे, दूसरे पक्षी को देखा तो भी उसके दो पंख दिखे ,तीसरे पक्षी को देखा तो उसके भी दो पंख दिखे, तो इन अनुभवों से इस सत्य का ज्ञान हुआ, कि पक्षियों की दो पंख होते हैं। 

निगमनात्मक:-

सुकरात की यह शैली सामान्य अनुभव से विशेष सत्य का ज्ञान कराने वाली विधि है। 

जैसे:- पक्षियों के दो पंख होते हैं कौवा एक पक्षी है अतः कौवा के भी दो पंख होते हैं। 

सुकरात के अनुसार सत्य की पूर्ण संतुष्टि के लिए आगमन के साथ निगमन का उपयोग किया जाना चाहिए। 

सुकरात की ज्ञान मीमांसा

सुकरात के अनुसार इंद्रियों द्वारा प्राप्त अनुभव या संवेदना वास्तविक ज्ञान नहीं है, क्योंकि वह ज्ञान भ्रमजनित व आत्मनिष्ठ होता है। अर्थात प्रत्येक व्यक्ति की दृष्टि से ज्ञान अलग-अलग हो सकता हैं जबकि वास्तविक ज्ञान वस्तुनिष्ठ (नित्य) एवं सार्वभौमिक होता है, जो इंद्रिय संवेदना उसे नहीं, बल्कि तर्क वितर्क द्वारा आंतरिक चेतना से संप्रत्ययों (परिभाषा) के रूप में प्राप्त होता है। 

अर्थात संप्रत्यय पर आधारित ज्ञान वस्तुनिष्ठ एवं सार्वभौमिक होता है। 

जैसे:- किसी व्यक्ति ने हरे रंग की मिर्ची देखी, किसी व्यक्ति ने लाल रंग की मिर्ची देखी, तो दोनों का अलग-अलग ज्ञान हुआ। जबकि मिर्ची का वास्तविक ज्ञान यह है कि मिर्ची तीखी होती है। जो मिर्ची का सामान्य गुण है। 

 

सुकरात की नीति मीमांसा (नैतिक विचार):-

सुकरात तत्कालीन समय के सोफिस्टों के इस मत का कि:- “जो व्यक्ति की इच्छा को संतुष्ट करें वही शुभ या नैतिक है” खंडन करके सार्वभौमिक एवं वस्तुनिष्ठ नैतिकता की स्थापना करना चाहता था। 

सार्वभौमिक नैतिकता के लिए ज्ञान होना आवश्यक

और सुकरात के अनुसार सार्वभौमिक नैतिकता के लिए व्यक्ति के अंदर सार्वभौमिक या वस्तुनिष्ठ ज्ञान होना आवश्यक है। 

क्योंकि वास्तविक नैतिकता वह नहीं है जो इंद्रिय संतुष्टि प्रदान करे, बल्कि नैतिकता वही होगी जो वस्तुनिष्ठ ज्ञान के अनुसार उचित हो। जैसे:-  हो सकता है कि एक चोर को लगे कि चोरी करना अच्छा है क्योंकि वह उसकी इंद्रियों को संतुष्टि प्रदान करती है किंतु वास्तविक ज्ञान के अनुसार चोरी करना नैतिक नहीं है। 

ज्ञान ही सद्गुण है

अतः व्यक्ति के अंदर सद्गुणों के विकास के लिए व्यक्ति को नैतिक अनैतिक का ज्ञान होना आवश्यक है,क्योंकि जब व्यक्ति को उचित अनुचित का ज्ञान होगा तो वह सुख प्राप्ति के लिए सदैव नैतिक/उचित कार्य करेगा,वह जान‌ बूझकर बुरा कर्म नहीं कर सकता है। क्योंकि कोई व्यक्ति हानिकारक कार्य करके दुख प्राप्त करना नहीं चाहता है। इस संदर्भ में उनका कथन है कि:-“ज्ञान ही सदगुण हैं”। 

जैसे:- चोर को यह ज्ञान ही नहीं है कि चोरी करना गलत है इसलिए वह चोरी कर रहा है यदि उसी यह आत्म ज्ञान हो जाएगा, कि चोरी करना अनैतिक कार्य तो वह चोरी नहीं करेगा। 

सुकरात के अनुसार ज्ञान 

सुकरात ने ज्ञान शब्द का प्रयोग विवेक के अर्थ में किया है, अर्थात ज्ञान व्यक्ति का वह गुण है जो उसे उचित और अनुचित भेद कराता है। अतः ज्ञानी व्यक्ति ही नैतिक कर्म कर सकता है जिस व्यक्ति को ज्ञान नहीं है वह नैतिक कर्म नहीं कर सकता हैं, इसलिए उन्होंने कहा है- ज्ञान ही सद्गुण है और सद्गुण ही ज्ञान है। 

सद्गुण संबंधी मत:-

सुकरात के अनुसार:- शुभ या उचित कर्मों का ज्ञान ही सद्गुण है इसलिए उन्होंने ज्ञान को ही सद्गुण कहा है, सद्गुण की विशेषताएं:-

  • सद्गुण शिक्षणीय है अर्थात शिक्षा द्वारा प्राप्त किया जा सकता है

  • सद्गुण ही आनंद है क्योंकि आनंद शुभ कर्मों से मिलता है और वही व्यक्ति जो सद्गुणी एवं ज्ञानी है वही शुभ कर्म कर सकता है। 

सुकरात ने केवल ज्ञान को ही सद्गुण के रूप में स्वीकार किया है उनका मानना है कि करुणा, साहस ,धैर्य, न्याय आदि उसी के रूप हैं। 

सुकरात के अनुसार ज्ञान और सद्गुण का संबंध:– 

सुकरात के अनुसार सद्गुण और ज्ञान में तादात्म्य में संबंध होता है, इसलिए सुकरात में कहा है- ज्ञान ही सद्गुण है और सद्गुण ही ज्ञान है। 

अर्थात जो व्यक्ति ज्ञानी होगा उसे नैतिक एवं अनैतिक का भेद पता होगा, अथर्व सुख प्राप्त करने के लिए नैतिक कर्म करेगा, परिणाम स्वरुप वह सद्गुणी भी होगा और जो अज्ञानी होगा उसे उचित अनुचित का भेद ही पता नहीं होगा, वह अनुचित कर्म करेगा अतः सद्गुणी नहीं होगा। 

नैतिक बुराइयां अज्ञान से पैदा होती हैं /अज्ञान की सबसे बड़ा पाप है यही मनुष्य को अनुचित कार्य की ओर प्रवृत्त करता है” पुष्टि करो:

सुकरात के अनुसार मनुष्य सदैव सुख चाहता है दुख नहीं चाहता, अतः वह सदैव वही कार्य करता है जो उसकी दृष्टि से उचित होते हैं। ताकि उसे सुख प्राप्त हो। किंतु जब व्यक्ति को उचित अनुचित का वास्तविक ज्ञान नहीं होता तो वह अपने अनुभव के आधार पर अनुचित कार्य को भी उचित समझकर करता है जिससे बुराइयां पैदा होती हैं अतः यदि वास्तविक ज्ञान हो तो वह अनुचित काम नहीं करेगा, परिणाम स्वरूप बुराइयां पैदा नहीं हो। अज्ञान ही बुराइयों की जड़ है। 

सुकरात के अनुसार ज्ञान किससे प्राप्त होता है?

सुकरात के अनुसार ज्ञान आंतरिक चेतना द्वारा संप्रत्ययों से प्राप्त होता है। 

तथा संप्रत्ययों से प्राप्त किया परिवर्तनशील या आत्म नष्ट ना होकर वस्तुनिष्ठ एवं सार्वभौमिक होता है। 

 

सुकरात के दर्शन का मूल्यांकन:-

सुकरात पश्चिमी सभ्यता के सबसे महत्वपूर्ण एवं प्रवर्तक दर्शनिक हैं जिनके दर्शन को आधार बनाकर ही प्लेटो,अरस्तु जैसे दार्शनिकों ने अपने दर्शन प्रस्तुत किए, हालांकि उनके दर्शन में कुछ पूर्वाग्रह भी मौजूद थे जैसे- केवल अज्ञानी व्यक्ति ही अनुचित कर्म कर सकता है ज्ञानी नहीं। लेकिन यह दर्शन उस समय ज्ञान की वस्तुनिष्ठता को स्थापित करने के लिए आवश्यक था। 

उनके लगभग सभी उपदेश तत्कालीन सोफिस्ट की इंद्रिय सुख आधारित सत्य ज्ञान विचारधारा के विरुद्ध ही रहे, क्योंकि उन्होंने वस्तुनिष्ठ व सार्वभौमिक ज्ञान एवं नैतिकता स्थापित करने का प्रयास किया। उनका दर्शनशास्त्र में अमूल्य योगदान है और सदैव रहेगा। 

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