नैतिक दुविधा

नैतिक दुविधा

नैतिक विविधता का अर्थ-

सामान्यतः दो नैतिक मूल्यों में से किसी को चुनने की असमंजस्य पूर्ण स्थिति नैतिक दुविधा कहलाती है।

अर्थात नैतिक दुविधा का तात्पर्य व्यक्ति की उस असमंजस पूर्ण जटिल स्थिति से है, जिसके अंतर्गत

  • व्यक्ति के पास दो नैतिक विकल्प होते हैं 

  • और दोनों में से किसी एक को चुनना अनिवार्य होता है 

  • किंतु दोनों में से किसी एक को चुनने पर पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती है। 

उदाहरण के लिए:- 

  • अतिक्रमण क्षेत्र में बनी ,निर्धन वृद्ध महिला की झोपड़ी को हटाने का निर्णय लेना। 

यदि वृद्ध महिला की झोपड़ी हटाते हैं तो वृद्ध महिला के प्रति संवेदनशीलता के मूल्य का हनन होगा, यदि नहीं हटाते तो कर्तव्य निष्ठा का हनन होगा।  

  • घर में छिपे व्यक्ति के बारे में सत्य या असत्य बताने का निर्णय लेना।

यदि वह घर में छिपे व्यक्ति के बारे में सत्य बताता है तो उस व्यक्ति की जान को खतरा है अर्थात संवेदनशीलता के मूल्य का हनन होगा, और यदि सत्य नहीं बताता हैं तो सत्यनिष्ठा के मूल्य का हनन होगा। 

  • एक खतरनाक अपराधी है जो बड़े ही मुश्किल से सामने आया है लेकिन वह एक निर्देश व्यक्ति को पकड़ा हुआ है और कहता है कि यदि आप आंगे बढो़गे तो मैं इसे गोली मार दूंगा, ऐसी स्थिति में उसे पकड़ने या ना पकड़ने का निर्णय लेना। 

यदि अपराधी को पकड़ने जाते हैं तुम निर्दोष की हत्या होगी यदि नहीं पकड़ते तो कर्तव्य परायणता मूल्य का हनन होगा। 

  • किसी राशन कार्ड बनाने वाले अधिकारी को यह अधिकार दिया गया है कि वह 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों का राशन कार्ड बनाए लेकिन एक किसान ऐसा है जिसकी भूमि तो 3 हेक्टेयर है लेकिन वह बिल्कुल बंजर है उससे बिल्कुल भी आमदनी नहीं होती उसकी स्थिति बहुत ज्यादा दयनीय है उसे भी लगता है कि बनाना चाहिए ,ऐसी स्थिति में यदि वह राशन कार्ड नहीं बनाता है तो अपने कर्तव्यों का तो पालन करता है लेकिन अपनी नैतिकता को पीछे छोड़ता है, यदि बनाता है तो वह नियमों की अवहेलना करता है। 

नैतिक दुविधा के घटक:-

  • दो या दो से अधिक नैतिक विकल्प होते हैं

  • दोनों मूल्यों के मध्य टकराव की स्थिति रहती है। अर्थात दोनों ही विकल्प अलग-अलग दृष्टिकोण से उचित प्रतीत होते हैं। 

  • दोनों में से किसी एक विकल्प को चुनना अनिवार्य होता है। 

  • दोनों में से किसी एक को वरीयता प्रदान करने की असमर्थता होती है। 

  • दोनों में से किसी एक को चुनने पर पूर्ण संतुष्टि नहीं मिलती है।

नैतिक दुविधाओं के प्रकार:-

समान्यत: दो विकल्पों में से किसी एक विकल्प को चुनने की असमंजस पूर्ण स्थिति दुविधा कहलाती है किंतु सभी दुविधाएं नैतिक दुविधाएं नहीं होती है, नैतिक दुविधा है वही होतीं है जिसके अंतर्गत व्यक्ति के पास दो विकल्प उपलब्ध हों, उनमें से कम से कम एक विकल्प का संबंध नैतिकता से हो और दूसरे विकल्प का संबंध भी या तो नैतिकता से हो या नियम कानून से। 

जैसे:- सरकारी संपत्ति का निजी कार्यों के लिए उपयोग करें या ना करें का प्रश्न दुविधा है, लेकिन यह नैतिक दुविधा नहीं है क्योंकि आचार संहिता(कानून) एवं नैतिकता दोनों के अनुसार सरकारी संपत्ति का उपयोग केवल सरकारी कार्य के लिए करना चाहिए निजी कार्य के लिए नहीं यह बिल्कुल स्पष्ट है। अर्थात यहां पर एक विकल्प बिल्कुल अनुचित और दूसरा उचित है। यहां पर नैतिक दुविधा की स्थिति ही उत्पन्न नहीं होती। 

नैतिक दुविधा के प्रकार

  • व्यक्तिगत लाभ बनाम सार्वजनिक लाभ की दुविधा:-

  • वरीयता देने की दुविधा:-

  • कानून बनाम धर्म की दुविधा:-

  • दो नैतिक मूल्यों के मध्य टकराव की दुविधा:-

व्यक्तिगत लाभ बनाम सार्वजनिक लाभ की दुविधा:-

इसे स्वार्थ और कर्तव्य के मध्य निर्णयण की दुविधा भी कहा जा सकता है। जहां पर व्यक्ति को अपने व्यक्तिगत लाभ के सार्वजनिक लाभ में से किसी एक को चुनना पड़ता है। 

उदाहरण के लिए किसी लोक सेवक को सड़क निर्माण परियोजना का कार्य सौंपा गया है, ऐसे में उसके पास दो विकल्प हैं एक तो अपने घर के पास से सड़क बनवाना जिससे उसे आने जाने में आसानी होगी वह शीघ्रता से अपना कार्य कर पाएगा, पर दूसरा विकल्प है अधिक सघन एवं दुर्गम क्षेत्र में सड़क बनाना जिस से अधिक लोगों को लाभ होगा। यहां पर व्यक्तिगत लाभ या सार्वजनिक लाभ में से किसी एक को चुनने की नैतिक दुविधा है। 

वरीयता देने की दुविधा:-

एक लोक सेवक की कार्यकाल में अनेकों ऐसे अवसर आते हैं जब किसी दो विकल्पों में से किसी एक को वरीयता देना होता है, जैसे:-जनता के कार्य के लिए फील्ड पर जाने के दौरान ,जनप्रतिनिधि का फोन आना की तुरंत यहां आओ, ऐसी स्थिति में यदि वह जनकल्याण के लिए फील पड़ जाता है तो जनप्रतिनिधि नाराज हो जाएगा यदि वह जनप्रतिनिधि के पास जाता है तो जनता का कल्याण रुक जाएगा। अर्थात यहां पर दोनों में से किसी एक को वरीयता देने की नैतिक दुविधा है। 

कानून बनाम धर्म की दुविधा:-

यह भी संभव है कि लोक सेवक को कानूनी और धर्म में से किसी एक को चुनना पड़े तब भी नैतिक दुविधा की स्थिति उत्पन्न होती है, उदाहरण के लिए कानून में है लिखा है की रात को आवाज करना गुनाह है जबकि धर्म के अनुसार रात को भजन करना पुण्य का काम है ऐसे किसी एक को चुनना भी नैतिक दुविधा होगी। 

दो नैतिक मूल्यों के मध्य टकराव की दुविधा:

इस प्रकार की नैतिक दुविधा के अंतर्गत लोक सेवक के पास दो नैतिक विकल्प होते हैं एक कानून का पालन करना दूसरा करुणा यह संवेदनशीलता का अनुपालन करना।  

उदाहरण के लिए:- 

किसी राशन कार्ड बनाने वाले अधिकारी को यह अधिकार दिया गया है कि वह 2 हेक्टेयर से कम भूमि वाले किसानों का राशन कार्ड बनाए लेकिन एक किसान ऐसा है जिसकी भूमि तो 3 हेक्टेयर है लेकिन वह बिल्कुल बंजर है उससे बिल्कुल भी आमदनी नहीं होती उसकी स्थिति बहुत ज्यादा दयनीय है उसे भी लगता है कि बनाना चाहिए ,ऐसी स्थिति में यदि वह राशन कार्ड नहीं बनाता है तो अपने कर्तव्यों का तो पालन करता है लेकिन अपनी करुणा ,संवेदनशीलता को पीछे छोड़ता है, यदि बनाता है तो वह नियमों की अवहेलना करता है। इन दोनों में से किसी एक विकल्प का लेना देना नैतिक दुविधा है।

नैतिक दुविधा का समाधान

एक लोक सेवक को अपनी नैतिक दुविधा का समाधान निम्न आधारों पर करना चाहिए:-

नियम एवं कानूनों की सर्वोच्चता:-

नैतिक दुविधा की स्थिति से निपटने के लिए लोक सेवक को सर्वप्रथम नियम एवं कानून के अनुसार दो विकल्पों में से किसी एक उचित विकल्प का चुनाव करना चाहिए। 

सार्वजनिक हित को वरीयता:-

जब किसी नैतिक दुविधा का समाधान नियमों एवं कानूनों के निर्देशों के अनुसार स्पष्ट तरीके से ना हो तो ऐसे विकल्प को चुनना चाहिए जिससे सर्वाधिक सार्वजनिक कल्याण हो। 

अर्थात व्यक्तिगत हितों के स्थान पर सार्वजनिक कल्याण को महत्व देना चाहिए। 

कार्य परिणाम के आधार पर:-

लोक सेवक को असमंजस की स्थिति में कोई भी निर्णय ,संबंधित कार्य के भावी परिणाम का आकलन करके लेना चाहिए। उदाहरण के लिए:-किसी भ्रष्ट व्यक्ति को केवल करुणा य दया के कारण छोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि इससे भविष्य में भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा। 

दार्शनिकों के सिद्धांत के आधार पर:-

नैतिक दुविधा की स्थिति में दर्शकों के सिद्धांत एवं उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए उदाहरण के आधार पर किसी एक विकल्प का चुनाव करना चाहिए। 

उच्च अधिकारियों से विमर्श करके

जब उपरोक्त किसी भी तरीके से नैतिक दुविधा समाधान ना हो तो वरिष्ठ या अनुभवी अधिकारियों से परामर्श लेकर नैतिकता से बाहर निकलना चाहिए। 

अंतरात्मा का मार्गदर्शन:-

इसके बाद भी यदि किसी भी आधार से नैतिक दुविधा का समाधान नहीं मिलता तो अंततः अंतरात्मा के मार्गदर्शन के अनुसार उचित विकल्प का चयन करना चाहिए। 

नैतिक मार्गदर्शन के स्त्रोत:-

ऐसे मानक जो किसी व्यक्ति या लोकसेवक को नैतिक दुविधा की स्थिति से निकालकर उचित निर्णय लेने का आधार प्रस्तुत करते हैं उन्हें नैतिक मार्गदर्शन का स्त्रोत कहते हैं। 

जैसे:-

  • नियम एवं कानून की सर्वोच्चता,
  • सार्वजनिक हित की वरीयता,
  • संबंधित निर्णय का भावी परिणाम,
  • दार्शनिकों के सिद्धांत,
  • अधिकारियों या अनुभवी व्यक्तियों का परामर्श,
  • अंतरात्मा की आवाज। 

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