रवींद्रनाथ टैगोर के दार्शनिक विचार

[रविंद्र नाथ टैगोर]

. रवींद्रनाथ टैगोर के दार्शनिक विचार

रवींद्रनाथ टैगोर का जीवन परिचय

भारत के नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध कवि शिक्षाविद एवं प्रकृति प्रेमी रवींद्रनाथ टैगोर का जन्म 1861 को कोलकाता के एक समृद्ध ठाकुर परिवार में हुआ था। इनके पिता देवेंद्र नाथ टैगोर स्वयं महान समाज सुधारक एवं ब्रह्म समाज के नेता थे। 

उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पास के ही सेंट जेवियर स्कूल में पूरी की 17 वर्ष की उम्र में बैरिस्टर की पढ़ाई करने के लिए लंदन चले गए जहां उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय से कानून का अध्ययन किया,और लंदन से वापस अपने स्वदेश लौटकर समाज सुधार एवं मानव के आध्यात्मिक विकास के कार्य में लग गए जैसे-

उन्होंने 1901 में शांति निकेतन की स्थापना की। 

1906 में बांग्लादेश के राष्ट्रगान अमर सोनार बांग्ला की रचना की। 

1911 में भारत के राष्ट्रगान जन गण मन की रचना की। 

1912 में गीतांजलि की रचना की जिसके लिए 1913 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 

1921 में कृषि अर्थशास्त्री लियोनार्ड से मिलकर अपने आश्रम के समीप ही ‘ग्रामीण पुनर्निर्माण संस्थान’ की स्थापना की। 

इसके अलावा वे जीवन भर अनेकों जन कल्याणकारी रचनाओं द्वारा जनजागृति फैलाने का कार्य करते रहें और अंततः 1941 को अपने देह का त्याग करके ,आत्मतत्व में विलीन हो गए। 

रविंद्र नाथ टैगोर के दार्शनिक विचार:-

रवींद्रनाथ टैगोर जी के दर्शन में प्रकृति प्रेम, मानवता, समन्वयवाद, सार्वभौमिकता एवं सर्जनशीलता का अद्भुत संगम देखने को मिलता है। रविंद्र नाथ टैगोर की दार्शनिक विचारों को निम्न बिंदुओं द्वारा समझा जा सकता है:-

नव्य वेदांत वादी:-

रविंद्र नाथ टैगोर जी नव वेदान्त परंपरा के दार्शनिक थे, अर्थात वे मानते थे कि मानव ब्रह्म का ही अंश है अतः हमें मानव को ईश्वर का रूप समझकर उसके प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए। किंतु वे शंकराचार्य की भांति जगत को मिथ्या ना मानकर जगत की सत्ता को भी स्वीकार करते थे। उनके अनुसार मनुष्य एवं जगत दोनों ईश्वर की सृजनात्मक शक्ति की अभिव्यक्ति है। 

मानवतावादी:-

टैगोर जी उच्च कोटि के मानवतावादी थे, उनका लगभग संपूर्ण दर्शन मानव कल्याण पर केन्द्रित है, और उन्होंने अपनी मानवता को प्रेम से जोड़ा है अर्थात उनके अनुसार प्रेम ही ऐसा तत्व है,जो मानव को मानवता से जोड़ता है। 

अतः मानव मात्र के प्रति प्रेमभाव रखना ही मानव का धर्म है क्योंकि यही मार्ग मानव को मानवता की ओर ले जाता है। 

प्रकृति प्रेमी:-

रविंद्र नाथ टैगोर प्रकृति प्रेमी थे, उनका मानना था कि प्रकृति और मनुष्य के मध्य घनिष्ठ संबंध होता है प्रकृति मनुष्य का पालन पोषण करती है तो मनुष्य के अंदर प्रकृति के प्रति प्रेम-भाव स्वभाव में हीं विद्यमान रहता है। वह प्रकृति की ओर आकर्षण का भाव की अनुभूति करता है। 

रविंद्र नाथ टैगोर स्वयं भी प्रकृति से अटूट प्रेम करते थे इसलिए उन्होंने वन में शांति निकेतन की स्थापना की थी और अक्सर वहां ही रहा करते थे। 

समन्वयवादी:-

टैगोर जी पूर्व के आध्यात्मिक जीवन और पश्चिम के भौतिकवादी जीवन के सामंजस्य पर बल देते थे, क्योंकि उनके अनुसार मनुष्य के 2 स्वरूप होते हैं- ससीम,असीम। 

ससीम:- इसके अंतर्गत मनुष्य भौतिकता की ओर भागता है,

असीम:- इसके अंतर्गत मनुष्य अपनी सीमा को पार करके अध्यात्म एवं प्रकृति से जुड़ना चाहता है। 

(टैगोर जी के अनुसार ससीम पक्ष के साथ-साथ असीम पक्ष की ओर भी जाना चाहिए,क्योंकि असीम पक्ष व्यक्ति को वैचारिक सर्जनात्मक तक की ओर ले जाता है।

और टैगोर जी के अनुसार मनुष्य को ससीम और असीम दोनों (इच्छाओं) के मध्य सामंजस्य बैठाकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। 

रवींद्रनाथ टैगोर के सामाजिक विचार:-

रविंद्र नाथ टैगोर ब्रह्म समाज से जुड़े प्रमुख समाज सुधारक थे उनके समाज से संबंधित विचार निम्नलिखित थे:-

समानता:-टैगोर जी जाति, धर्म, भाषा, लिंग आधारित भेदभाव के विरोधी एवं सामाजिक समानता के पक्षधर थे। 

एकता:- रविंद्र नाथ टैगोर ने सदैव हिंदू मुस्लिम की आपसी सांप्रदायिकता का विरोध किया और उनके मध्य एकता का समर्थन किया। 

छुआछूत की विरोधी:-रविंद्र नाथ टैगोर मानव प्रेम को सर्वोपरि मानते हुए छुआछूत के विरोधी थे। 

रविंद्र नाथ टैगोर के राजनीतिक विचार:-

राज्य संबंधी विचार:-

रवींद्रनाथ टैगोर ने समाज और राज्य में अंतर स्पष्ट करते हुए कहा है कि- समाज व्यक्तियों के पारस्परिक सहयोग पर आधारित एक स्वाभाविक एवं प्राकृतिक संस्था है जबकि राज्य कृतिम संस्था है जिसका निर्माण शक्तिशाली लोगों ने अपने हितों की पूर्ति के लिए किया है। राज्य शक्ति के बल पर चलता है जबकि समाज सद्भावना के बल पर चलता है अतः उन्होंने राज्य की तुलना में समाज को सर्वोपरि माना है। 

लोकतंत्र के पक्षधर:-

रविंद्र नाथ टैगोर राज्य की सत्ता में जनता की भागीदारी पर बल देते हैं, अर्थात राज्य के शासन व्यवस्था में जनता का हस्तक्षेप होना चाहिए,

 इसके अलावा भी गांधी जी की तरह राजनीति को नैतिकता से जोड़कर कहते हैं कि सच्चा लोकतंत्र वही है जिसकी राजनीति में नैतिकता हो। 

स्वतंत्रता व समानता के समर्थक:-

रविंद्र नाथ टैगोर व्यक्ति की स्वतंत्रता एवं समानता के प्रबल समर्थक थे उन्होंने स्वतंत्रता के दो पक्ष बताए हैं

  • आत्मिक स्वतंत्रता- चिंतन-मनन, आत्म-निर्णयन एवं आध्यात्मिक विकास की स्वतंत्रता। 

  • भौतिक स्वतंत्रता- बाहरी स्वतंत्रता। 

उन्होंने दोनों में से आत्मिक स्वतंत्रता को सर्वश्रेष्ठ एवं अनिवार्य माना है। 

अंतर्राष्ट्रीयता के समर्थक:-

रविंद्र नाथ टैगोर महान राष्ट्रवादी होने के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रवादी भी थे, लेकिन वे संकीर्ण राष्ट्रवाद की तुलना में सार्वभौमिक मानवता को पहले पायदान पर रखते थे ,अर्थात वे केवल एक देश की नहीं बल्कि सभी देश के देशवासियों की मानवता की बात करते थे उनका दर्शन वसुदेव कुटुंबकम अर्थात विश्व बंधुत्व की भावना पर आधारित था, इसी विचारधारा के अनुसार उन्होंने 1921 में विश्व भारती विश्वविद्यालय की स्थापना की। अर्थात में एक सच्चे अंतरराष्ट्रवादी थे। 

विश्व शांति के समर्थक:-

रविंद्र नाथ टैगोर साम्राज्यवाद से घृणा करते थे तथा विश्व शांति के प्रबल समर्थक थे,वे चाहते थे कि- पाश्चात्य सभ्यता और पूर्वी सभ्यता का मिश्रण कर दिया जाए ताकि एक ऐसी संस्कृति विकसित हो जो सभी के लिए पूजनीय एवं मानवता से परिपूर्ण हो, ताकि विश्व शांति स्थापित हो सके । ।  

राष्ट्रीय आंदोलन में भूमिका

रविंद्र नाथ टैगोर एक अच्छे साहित्यकार ,शिक्षाविद एवं मानवतावादी विचारक होने के साथ-साथ साम्राज्य विरोधी राष्ट्रवादी भी थे उनकी राजनीतिक जीवन की शुरुआत 1888 से तब होती है जब उन्होंने कोलकाता में हुए अखिल भारतीय कांग्रेस के सम्मेलन में भाग लिया। 

इसके बाद उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में प्रत्यक्ष या शारीरिक रूप से तो नहीं किंतु वैचारिक सक्रियता एवं समर्थन के रूप में सदैव राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े रहे। 

उनकी राष्ट्रीय आंदोलन की भूमिका को निम्न बिंदुओं द्वारा समझा जा सकता है:-

  • 1905 में- बंगाल विभाजन के समय रक्षाबंधन का दिवस मनाकर, हिंदू-मुस्लिम के प्रति प्रेम एवं बंगाल विभाजन के विरोध का भाव प्रकट किया। 

  • 0996 अमर सोनार बांग्ला और 1911 में जन गण मन की रचना करके भारत और बंगाल को एकजुट किया। 

  • 1919 में जलियांवाला हत्याकांड के विरोध में सर की उपाधब्रिटिशटे सरकार को लौटा दी। 

  • 1930 के सविनय अवज्ञ आंदोलन का समर्थन किया। 

रविंद्रनाथ टैगोर के शिक्षा संबंधी विचार:-

रविंद्र नाथ टैगोर महान कवि,मानवतावादी दार्शनिक होने के साथ-साथ महान शिक्षाविद् भी थे,वे तत्कालीन समय की अंग्रेजी शिक्षा को बंधन एवं अनुपयोगी मानते हुए उसकी आलोचना करते थे, क्योंकि उनके अनुसार उच्चतम शिक्षा वह नहीं है जो विद्यार्थी के मस्तिष्क में केवल जानकारी भरे, बल्कि सर्वश्रेष्ठ शिक्षा वह है जो विश्व के साथ व्यक्ति का सामंजस्य स्थापित करे। उन्होंने शिक्षा के संबंध में अपनी पुस्तक ‘शिक्षा हेरफेर’ में अपने विचार प्रस्तुत किए हैं जो निम्नलिखित हैं

रविंद्र नाथ टैगोर के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य:-

  • व्यक्ति की बौद्धिक शक्ति का विकास करना। 

  • व्यक्ति के चरित्र का निर्माण करना। 

  • व्यक्ति के अंदर नैतिकता एवं आध्यात्मिकता का विकास करना। 

  • व्यक्ति के अंदर सार्वभौमिक मानवता एवं सामाजिकता का विकास करना। 

  • व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना। 

शिक्षा का पाठ्यक्रम:-

गुरुदेव के अनुसार शिक्षा का उद्देश व्यक्ति के व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करना होता है अतः उन्होंने पाठ्यक्रम में निम्न विषय शामिल करने की बात कही है:-

  • इतिहास ,भूगोल, साहित्य,

  • विज्ञान ,प्रयोगशाला कार्य, आलेखन

  • नाटक, पर्यटन, खेलकूद,

  • बागवानी ,चित्रकला ,हस्तकला 

  • समाज सेवा,

शिक्षण प्रणाली की विशेषताएं:-

गुरुदेव के अनुसार शिक्षा प्रणाली निम्न प्रकार की होनी चाहिए:-

  • शिक्षा नगरों शहरों से दूर प्राकृतिक परिवेश में दी जानी चाहिए।  

  • गुरु शिष्य दोनों के मध्य विनम्रता पूर्ण व्यवहार होना चाहिए अर्थात गुरु शिष्य का मार्गदर्शन करें तथा शिष्य गुरु की हर आज्ञा का पालन करें 

  • शिक्षक को सदैव सीखते रहना चाहिए क्योंकि एक जलता दीपक ही दूसरे दीपक को चला सकता है।

  • भ्रमण विधि, निरीक्षण विधि, वाद विवाद विधि, प्रकृति के अनुसरण की विधि द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए। 

  • विद्यार्थी को विद्यालय में शारीरिक दंड नहीं दिया जाना चाहिए। 

  • प्रारंभिक शिक्षा मातृभाषा में दी जानी चाहिए। किंतु उनका मानना था कि भारत के विद्यार्थी को विदेशी भाषा का भी ज्ञान होना चाहिए।  

अतः हम कह सकते हैं कि उनकी शिक्षा प्रणाली में सैद्धांतिक शिक्षा के स्थान पर व्यावहारिक शिक्षा, संकीर्ण शिक्षा के स्थान पर सार्वभौमिक शिक्षा, रोजगार विमुख शिक्षा के स्थान पर रोजगार उन्मुख शिक्षा को महत्व दिया गया है जो वर्तमान समय की भी तीव्र आवश्यकता है। 

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