षडदर्शन/ shad-darshan

षडदर्शन-: 

षडदर्शन/ shad darrshan

आस्तिक दर्शन-:

वह दर्शन जो, वेदों की सत्ता पर विश्वास करता है। उदाहरण– सांख्य दर्शन, योग दर्शन, वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, वेदांत, मीमांसा। 

नास्तिक दर्शन-: 

वह दर्शन जो, वेदों की सत्ता पर विश्वास नहीं करता है। उदाहरण- बौद्ध दर्शन, जैन दर्शन, चार्वाक दर्शन। 

आस्तिक दर्शन के प्रकार-:

  • ईश्वरवादी-: योग दर्शन, वैशेषिक दर्शन, न्याय दर्शन, वेदांत। 

  • अनिश्वरवादी-: सांख्य दर्शन, मीमांसा दर्शन। 

सांख्य दर्शन -:

  • सबसे प्राचीन भारतीय दर्शन। 

  • स्वरूप- अनिश्वरवादी। 

  • प्रवर्तक-‘ कपिल मुनि। 

तत्व मीमांसा-:

सांख्य दर्शन में “प्रकृतिकारणवाद” का सिद्धांत दिया गया है, जिसके अनुसार- इस जगत का कोई ना कोई कारण है, ‌ इस जगत की उत्पत्ति पुरुष एवं प्रकृति के संयोग से 25 तत्वों के आधार पर हुई है। 

अर्थात यह दर्शन द्वैतवादी है। 

  • बंधन-: पुरुष का प्रकृति के बंधन में फंसना। 

  • मोक्ष-: पुरुष का प्रकृति के बंधन से मुक्त होना।

ज्ञान मीमांसा 

ज्ञान प्राप्ति के निम्न तीन स्रोत हो सकते हैं

  • प्रत्यक्ष प्रमाण– इन्द्रीय अनुभूति द्वारा प्राप्त ज्ञान। 

  • अनुमान प्रमाण- अनुमान द्वारा ज्ञान; जैसे दुआ है तो आज होगी। 

  • शब्द प्रमाण- किसी प्रामाणिक ग्रंथ से प्राप्त ज्ञान

विशेष -:

सांख्य दर्शन में त्रिगुण की संकल्पना की गई है

  • रज, सत्, तम्। 

योग दर्शन -: 

  • सांख्य दर्शन का पूरक दर्शन। (इसमें जगत की उत्पत्ति के लिए पुरुष एवं प्रकृति के साथ-साथ ईश्वर को भी सहयोगी तत्व माना गया है (कुल तत्व= 26)

  • स्वरूप– ईश्वरवादी। 

  • प्रवर्तक-‘ महर्षि पतंजलि।

तत्व मीमांसा-:

इसमें बताया गया है कि-: “चित्तवृत्तिनिरोध” ही योग है। अर्थात चित्त (बुद्धि, मन एवं अहंकार) की वृत्तियों पर निरोध (नियंत्रण) रखना, योग है। 

चित्त की पांच वृत्तियां हैं -: 

  • प्रमाण- सत्य ज्ञान। 

  • विपर्याय– मिथ्या ज्ञान। 

  • विकल्प – कल्पना। 

  • निद्रा – नींद। 

  • स्मृति – स्मरण। 

चित्र के निरोध की पांच अवस्थाएं हैं जिन्हें

चित्तभूतिया कहा जाता है

  • क्षिप्त -: वह अवस्था जिसमें चित्त अस्थिर होता है। 

  • मूढ-: वह अवस्था जिसमें आलस या निद्रा आती है। 

  • विक्षिप्त – वह अवस्था जिसमें चित्त एक विषय से, दूसरे विषय की ओर संक्रमण करता है। 

  • एकाग्र – वह अवस्था जिसमें चित्त एक ही विषय पर केंद्रित होता है। 

  • निरूद्ध – वह अवस्था जिसमें चित्त विषय को छोड़कर स्वकेंद्रित होता है। 

अष्टांग योग-:

  • यम-: सत्य, अहिंसा, अस्तेय अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य का पालन करना। 

  • नियम-: नियम बद्ध तरीके से शौच(साफ सफाई) तप करें।

  • आसन-: एक सुनिश्चित समय सीमा तक स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त दैहिक स्थिति बनाना। 

  • प्राणायाम-: नियमित रूप से सांस लेना एवं छोड़ना। 

  • प्रत्याहार-: इंद्रियों को संबंधित विषय से हटाकर मन में विलीन करना। 

  • धारणा-: अपनी इंद्रियों के माध्यम से प्रसन्नता, सुख, शांति ,संतोष आदि आध्यात्मिक संपदाओं को धारण करना। 

  • ध्यान-: मन की चंचलता को समाप्त कर एकाग्रता का ध्यान करना। 

  • समाधि-: ध्यान के माध्यम से परमात्मा में विलीन हो जाना

न्याय दर्शन-: 

  • न्याय दर्शन को भारतीय दर्शनों का प्रवेश द्वार कहा जाता है,जो तर्क एवं प्रमाण पर आधारित है। 

  • स्वरूप-: ईश्वरवादी दर्शन। 

  • प्रवर्तक-: महर्षि गौतम। 

तत्त्वमीमांसा -: 

  • न्याय-:

न्याय दर्शन के अनुसार, “नीयते अनेन इति न्याय:” अर्थात- वह प्रक्रिया जिसके द्वारा मस्तिष्क किसी निष्कर्ष पर पहुंचता है, न्याय में दो तत्वों की भूमिका होती है

  • तर्क

  • प्रमाण (प्रत्यक्ष प्रमाण, अनुमान प्रमाण ,शब्द प्रमाण ,उपमान प्रमाण,)

  • सृष्टि निर्माण-: 

न्याय दर्शन के अनुसार इस सृष्टि का निर्माण ईश्वर द्वारा 16 मूल पदार्थों से हुआ है। 

  • मोक्ष-‘ 

16 मूल पदार्थों का ज्ञान ही हमें अज्ञानता से दूर करता है जो मोक्ष प्राप्ति का साधन है। 

  • कर्मफल सिद्धांत-: 

न्याय दर्शन में “आत्मा” की अस्तित्व को स्वीकारा गया है, इसके अनुसार शरीर कर्म करता है जिसके फल की अनुभूति आत्मा को होती है। 

ज्ञान मीमांसा-:

ज्ञान प्राप्ति के निम्न चार स्रोत है-:

  • प्रत्यक्ष प्रमाण, 

  • अनुमान प्रमाण , (धुंआ है, तो आग होगी

  • शब्द प्रमाण ,(प्रमाणिक ग्रंथों में निहित शब्दों का ज्ञान)

  • उपमान प्रमाण(कौवा और कबूतर एक जैसे हैं कौवा उड़ता है तो कबूतर भी उड़ता होगा)

वैशेषिक दर्शन -: 

  • न्याय दर्शन का पूरक है। 

  • स्वरूप-: ईश्वरवादी दर्शन। 

  • प्रतिपादन-: महर्षि कणाद। 

तत्त्वमीमांसा-:

 सृष्टि विचार

सृष्टि का निर्माण छोटे-छोटे परमाणुओं से हुआ है, सृष्टि के निर्माण में निम्न चार तत्वों के परमाणु शामिल हैं-:

  • पृथ्वी 

  • वायु

  • अग्नि

  • जल। 

 पदार्थवाद-

जगत में दो प्रकार के पदार्थ पाए जाते हैं-:

  • अभाव- जिनकी इंद्री अनुभूति नहीं होती है। (जैसे- समय, 

  • भाव- जिनकी इंद्री अनुभूति होती है ,

इन्हें निम्न में छह भागों में बांटा गया है-:

  • द्रव्य-: पृथ्वी, वायु, जल,अग्नि,आकाश, दिक, काल, आत्मा, मन। 

  • गुण– 24 प्रकार के गुण। 

  • कर्म– कर्म द्रव्य को प्रभावित करते हैं। 

  • सामान्य– बहुत से द्रव्य एक दूसरे के समान होते हैं। 

  • विशेष – कुछ द्रव्य विशिष्ट होते हैं। 

  • समवाय- प्रत्येक द्रव्य का अस्तित्व होता है। 

मीमांसा दर्शन-:

  • वेदों पर आधारित दर्शन है। 

  • स्वरूप– अनिश्वरवादी। 

  • प्रतिपादन- महर्षि जैमिनी। 

 

तत्त्वमीमांसा

आत्मा-: 

नित्य एवं अविनाशी है, जो व्यवहार एक जगत में, शरीर के साथ संयुक्त रूप में देखने को मिलती है। 

ईश्वर-: 

यह अनिसारवादी दर्शन है इसके अनुसार ईश्वर जगत का निर्माता नहीं है। 

मोक्ष-: 

मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्मकांड की आवश्यकता है,

इस दर्शन में कर्म के पांच प्रकार बताए गए हैं

  • नित्य कर्म-: जो रोज किए जाते हैं (जैसे- स्नान, पूजा)

  • अनित्य कर्म -: जो विशेष अवसर पर किए जाते हैं (जैसे-विवाह)

  • काम्य कर्म -: जो किसी मनोवांछित इच्छापूर्ति हेतु किए जाते हैं। 

  • निषिद्ध कर्म -: जो अनैतिक होते हैं (जैसे- मांस भक्षण,हिंसा।)

  • प्रायश्चित-‘ निषिद्ध कर्मों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए किए जाने वाले कर्म। 

और नित्य, अनित्य एवं प्रायश्चित कर्म ही मोक्ष प्राप्ति के साधन है। 

ज्ञान मीमांसा-:

पूर्व मीमांसा दर्शन में, ज्ञान के निम्न छह स्रोत बताए गए है। 

  1. प्रत्यक्ष प्रमाण

  2. अनुमान प्रमाण , (धुंआ है, तो आग होगी

  3. शब्द प्रमाण ,(प्रमाणिक ग्रंथों में निहित शब्दों का ज्ञान)

  4. उपमान प्रमाण(कौवा और कबूतर एक जैसे हैं कौवा उड़ता है तो कबूतर भी उड़ता होगा)

  5. अर्थोपत्ति -: कल्पना के आधार पर निकल गया अर्ध-ज्ञान।

  6. अनुपलब्धि -: किसी वास्तु की अनुपस्थिति पर, उसका ज्ञान।

वेदांत दर्शन-: 

  • यह अद्वैतवादी दर्शन है। 

  • आदि ग्रंथ-: ‘ब्रह्मसूत्र’। 

  • स्वरूप-: ईश्वरवादी 

  • प्रतिपादक-: बदरायण। (शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, माधवाचार्य, निंबार्काचार्य)

तत्त्वमीमांसा-:

  • ब्रह्म-विचार-

ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्यम् जीवो…

  • मायावाद-

इस जगत की सत्ता वास्तविक नहीं है, किंतु माया के भ्रम के कारण यह वास्तविक प्रतीत होता है यह ठीक उसी प्रकार होता है जिस प्रकार एक जादूगर के प्रभाव से हम भ्रमित हो जाते हैं किंतु जब माया का प्रभाव समाप्त होता है तो हम कह उठते हैं…

  • विवर्तवाद-: 

ब्रह्म एवं जगत दोनों एक है, किंतु ब्रह्म से ही जगत निर्मित है, अर्थात ब्रह्म, जगत का कारण है और जगत ब्रह्म का विवर्त रूप है। 

ज्ञान मीमांसा-: 

उत्तर मीमांसा दर्शन में, ज्ञान के निम्न छह स्रोत बताए गए है। 

  • प्रत्यक्ष प्रमाण, 

  • अनुमान प्रमाण , (धुंआ है, तो आग होगी

  • शब्द प्रमाण ,(प्रमाणिक ग्रंथों में निहित शब्दों का ज्ञान)

  • उपमान प्रमाण(कौवा और कबूतर एक जैसे हैं कौवा उड़ता है तो कबूतर भी उड़ता होगा)

  • अर्थोपत्ति -: कल्पना के आधार पर निकल गया अर्ध-ज्ञान।

  • अनुपलब्धि -: किसी वास्तु की अनुपस्थिति पर, उसका ज्ञान। 

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