स्वामी दयानंद सरस्वती
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स्वामी दयानंद सरस्वती का जीवन परिचय
स्वराज्य, स्वधर्म, स्वभाषा व स्वसंस्कृति के अग्रदूत स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 1824 को गुजरात की कठियावाड क्षेत्र में एक ब्रह्मण परिवार के घर हुआ था। किंतु स्वामी दयानंद सरस्वती ब्रह्मणवादी अनैतिक रीतियों (मूर्ति पूजा, जन्म आधारित जाति व्यवस्था) का समर्थन न करके विरोध करते थे।
उनका मानना था कि हमारी प्राचीन समय की वैदिक संस्कृति सर्वोपरि है, लेकिन वर्तमान में वैदिक संस्कृति का ह्रास होता जा रहा जिससे भारत एवं भारतीय समाज की स्थिति भी दयनीय होती जा रही है अतः हमें भारतीय समाज की उन्नति एवं विकास के लिए पुनः शुद्ध वैदिक संस्कृति की ओर लौटना चाहिए, इस संदर्भ में उन्होंने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की एवं यह नारा भी दिया कि- “वेदों की ओर लौटो”।
दयानंद सरस्वती के दार्शनिक विचार:-
स्वामी दयानंद सरस्वती 1875 ईस्वी में हिंदू धर्म की पुरोहित वादी बुराइयों को दूर करके, शुद्ध वैदिक संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए आर्य समाज की स्थापना की।
और समाज के सिद्धांतों से स्वामी दयानंद सरस्वती के दार्शनिक सिद्धांतों की जानकारी प्राप्त होती है और आर्य समाज के सिद्धांत निम्नलिखित हैं:-
ईश्वर निर्गुण, निराकार ,सर्वशक्तिमान एवं शाश्वत है।
ईश्वर एक है वही सृष्टि का रचयिता पालन कर्ता और संहर्ता है।
मनुष्य की आत्मा कर्म के लिए स्वतंत्र है लेकिन फल प्राप्ति के लिए ईश्वर के अधीन है अतः हमें अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलता है।
सर्वोच्च संस्कृति वेदिक संस्कृति है अतः हमें वैदिक संस्कृति का प्रचार-प्रसार करके इसको स्थापित करना चाहिए।
समाज की उन्नति के लिए शिक्षा का प्रचार किया जाना चाहिए।
हमें सब की उन्नति में अपनी उन्नति समझना चाहिए अर्थात प्रत्येक मानव के प्रति प्रेम-भाव रखना चाहिए।
स्वामी दयानंद सरस्वती के सामाजिक विचार:-
स्वामी दयानंद सरस्वती के समय समाज में काफी ज्यादा अंधविश्वास एवं कुरीतियों विद्यमान थी, जो समाज की दयनीय स्थिति का के कारण था अतः स्वामी दयानंद सरस्वती एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जो वैदिक संस्कृति पर आधारित हो जहां पर प्रत्येक व्यक्ति स्वर्गिक के सुख की अनुभूति करे।
उनके सामाजिक व्यवस्था के संबंध में सामाजिक विचार निम्नलिखित थे:-
जातिवाद का विरोध:-
स्वामी दयानंद सरस्वती जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विरोधी तथा वेदों में उल्लेखित योग्यता एवं कर्मों पर आधारित वर्ण व्यवस्था व्यवस्था के समर्थक थे।
क्योंकि उनका मानना था कि व्यक्ति को जन्म के आधार पर नहीं बल्कि उसके गुणों क्षमताओं के आधार पर श्रेष्ठ समझा जाना चाहिए।
महिला उत्थान के समर्थक:-
स्वामी दयानंद सरस्वती के समय स्त्रियों की स्थिति काफी दयनीय थी उनके साथ अन्याय एवं पशुओं के समान व्यवहार किया जाता था जबकि वे नारी को सम्मान देने और स्त्री पुरुष समानता के पक्षधर थे, अतः उन्होंने बाल विवाह ,सती प्रथा व बहु पत्नी प्रथा का विरोध किया एवं पुरुषों की भांति नारी शिक्षा का समर्थन किया।
सामाजिक समरसता पर बल:-
स्वामी दयानंद सरस्वती समाज को अंधविश्वास एवं कुरीतियों के अंधकार से निकालकर, सुसंस्कृत समाज की स्थापना करना चाहते थे जो सामाजिक समरसता पर आधारित हो, जिसमें सभी एक दूसरे के सहयोगी हों न कि प्रतियोगी।
स्वामी दयानंद सरस्वती के धार्मिक विचार:-
स्वामी दयानंद सरस्वती शुद्ध वैदिक धर्म पर विश्वास करते थे अतः धर्म के संबंध में उनके विचार निम्नलिखित थे:-
एकेश्वरवाद में विश्वास:-
दयानंद सरस्वती बहुदेववाद के स्थान पर एकेश्वरवाद पर विश्वास करते थे, उनका मानना था कि भले ही ईश्वर के नाम अनंत है लेकिन ईश्वर तत्व रूप में एक ही है। ईश्वर ने इस सृष्टि का निर्माण किया है।
मूर्ति पूजा का विरोध:-
स्वामी दयानंद सरस्वती वेदों में विश्वास करते थे और वेदों में मूर्ति पूजा के स्थान पर श्रद्धा को ज्यादा महत्व दिया गया है अतः दयानंद सरस्वती मूर्ति पूजा के विरोधी थे वे मानते थे कि मूर्ति पूजा कोई धार्मिक कार्य नहीं है बल्कि यह एक अंधविश्वास है।
वेद संबंधी विचार:-
दयानंद सरस्वती जी के अनुसार ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है और सृष्टि के मनुष्य का मार्गदर्शन करने के लिए ईश्वर ने वेदों की रचना की है अतः हमें वेदों के अनुसार ही अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए।
वैदिक अध्ययन में स्त्री एवं दलितों का समावेश:-
स्वामी दयानंद सरस्वती का मानना था कि वेदों में कहीं भी नहीं लिखा है कि स्त्री एवं शूद्र पूजा-पाठ या वैदिक अध्ययन नहीं कर सकते अतः स्त्रियों एवं शूद्रों को भी वैदिक अध्ययन करने का उतना ही अधिकार है जितना कि पुरोहित वर्ग को है।
अन्य धर्मों के प्रति दृष्टिकोण:-
स्वामी दयानंद सरस्वती अन्य धर्म के प्रति द्वेष की भावना नहीं रखते थे, किंतु उनके समय इस्लाम और ईसाई धर्म के मौलवी और पादरी हिंदू धर्म का उपहास कर रहे थे तथा लोभ-लालच देकर हिंदू धर्म के लोगों को धर्म परिवर्तन के लिए विवश कर रहे थे, अतः उन्होंने इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप ‘शुद्धि आंदोलन’ चलाकर हिंदू धर्म का प्रचार, प्रसार एवं विस्तार किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती के राजनीतिक विचार:-
दयानंद सरस्वती ने स्पष्ट रूप रूप से राजनीतिक सिद्धांत का प्रतिपादन नहीं किया लेकिन उनके द्वारा दिए गए भाषणों या व्यक्त किए गए विचारों से उनके राजनीतिक दृष्टिकोण की जानकारी प्राप्त होती है जिसका विवरण निम्नलिखित है:-
स्वराज्य की भावना:-
स्वामी दयानंद सरस्वती का दर्शन स्वराज्य की भावना पर आधारित था,वे स्वराज्य ,स्वधर्म, स्वभाषा, स्वदेश के प्रबल समर्थक थे, यही स्वराज्य(राष्ट्रवाद) की भावना कालांतर में राष्ट्रीय आंदोलन का प्रेरणा स्त्रोत बनी।
उपयोगिता:- वर्तमान समय में प्रशासनिक अधिकारी भी दयानंद सरस्वती की स्वराज्य की भावना से प्रेरित होकर कार्य करेंगे तो प्रशासन ने ईमानदारी ,सत्यनिष्ठा जैसे मूल्य स्थापित होंगे एवं भ्रष्टाचार का उन्मूलन होगा।
प्रबुद्ध राजतंत्र के समर्थक:-
स्वामी दयानंद सरस्वती प्रबुध्द राजतंत्र के समर्थक थे,वे राजनीति और नैतिकता को एक दूसरे के पूरक मानते हुए यह चाहते थे कि राज्य का राजा वही होना चाहिए जो आध्यात्मिक एवं नैतिक गुणों से परिपूर्ण हो, धर्म के शुद्ध रूप को पालन करता हो।
प्रजातंत्र की पोषक:-
दयानंद सरस्वती लोकतंत्रवादी थे, भले ही भी प्रबुद्ध राजतंत्र पर विश्वास करते थे लेकिन उनका मत था कि राजा का चुनाव उसकी योग्यता एवं गुणों के आधार पर जनता द्वारा ही किया जाना चाहिए।
स्वतंत्रता एवं समानता के समर्थक:-
दयानंद सरस्वती ऐसे राज्य की स्थापना चाहते थे जिसमें व्यक्ति को व्यक्तिगत स्वतंत्रता प्राप्त हो तथा सभी के साथ समान व्यवहार किया जाए।
और वर्तमान में प्रशासकों को चाहिए कि वह जाति ,धर्म ,वर्ग की भावना से ऊपर उठकर अधिक अधिक कल्याण का कार्य करें।
ग्राम स्वशासन:-
स्वामी दयानंद सरस्वती सत्ता के विकेंद्रीकरण की पक्षधर थे,वे ग्राम को प्रशासनिक इकाई के रूप में मान्यता देकर ग्राम स्वशासन की बात करते थे।
स्वामी दयानंद सरस्वती के शिक्षा संबंधी विचार:-
स्वामी दयानंद सरस्वती के अनुसार शिक्षा मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ आभूषण एवं हथियार है, शिक्षा ही मनुष्य एवं समाज का उत्थान कर सकती है। अतः वे मानते थे कि शिक्षा सभी वर्गों के लिए एवं अनिवार्य होनी चाहिए और राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह सभी व्यक्तियों को शिक्षित करें।
दयानंद सरस्वती की शिक्षा प्रणाली का स्वरूप
स्वामी दयानंद सरस्वती की शिक्षा व्यवस्था प्राचीन गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था पर आधारित थी। इसका विवरण निम्नलिखित है-:
सर्वप्रथम माता-पिता द्वारा बालक को नैतिक शिक्षा दी जाए। 8 वर्ष की उम्र होने पर उसे गुरुकुल भेजा जाए।
सभी लोगों को शिक्षित करने के लिए गांव में शहर से 5 किलोमीटर दूर गुरुकुल स्थापित किये जाएं।
गुरुकुल में 8 वर्ष से 22 वर्ष तक विद्यार्थी शिक्षा अर्जन करें।
शिक्षा अर्जन के दौरान विद्यार्थियों से अनुशासन का कठोरता पूर्व पालन करवाया जाए।
लड़के लड़कियों के लिए प्रथक प्रथक शिक्षण संस्थानों की व्यवस्था की जाए।
सभी व्यक्तियों को व्याकरण , संगीत, साहित्य, आयुर्वेद ,राजनीति ,भूगोल ज्योतिष शास्त्र व वेद आदि का अध्ययन करवाया जाए।
स्वामी दयानंद सरस्वती और राष्ट्रवाद:-
स्वामी दयानंद सरस्वती ने तत्कालीन समय में प्रचलित ऐसी कुरीतियां या अंधविश्वास जो भारतीयों को आपस में विभाजित कर रही थी जैसे- जाति प्रथा आदि का विरोध करके भारत को एकजुट किया तथा भारतीयों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए सर्वप्रथम यह कहा कि “भारत भारतीयों के लिए है”इसके अलावा उन्होंने स्वराज, स्वदेश, स्वभाषा ,स्वधर्म जैसे विचारों का प्रतिपादन करके भारतीयों के अंदर राष्ट्रीयता की भावना का विकास एवं विस्तार किया। जिसके कारण बाद में यही राष्ट्रीय भावना राष्ट्रीय आंदोलन में बदल पायी। अर्थात हम कह सकते हैं कि भारत में राष्ट्रवाद की भावना का विकास में स्वामी दयानंद सरस्वती का अमूल्य योगदान है।
दयानंद सरस्वती का योगदान:-
भारतीय इतिहास में स्वामी दयानंद सरस्वती का अमूल्य योगदान है क्योंकि उन्होंने जहां एक और देश में विद्यमान धार्मिक कुरीतियों की आलोचना करके समाज को संगठित करने का प्रयास किया तो वहीं दूसरी ओर विदेशी धर्मों या पाश्चात्य संस्कृति प्रभाव से अपनी संस्कृति की रक्षा रक्षा की और भारत में राष्ट्रवाद की भावना का विकास किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती के योगदान को निर्णय बिंदुओं से देख सकते हैं;-
सामाजिक सुधार:-
स्वामी दयानंद सरस्वती के समय समाज में काफी ज्यादा पुरोहित वादी कृतियां विद्यमान थी जैसे -; बाल विवाह, जातिवाद, छुआछूत, सती प्रथा आदि उन्होंने इन सभी कुप्रथाओं कुछ समाप्त करके समाज को संगठित करने का प्रयास किया इस संदर्भ में उन्होंने आर्य समाज की स्थापना की।
वैदिक संस्कृति को पुनर्जीवित किया:-
स्वामी दयानंद सरस्वती के समय भारतीय लोग आत्मग्लानि महसूस कर रहे थे और हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्म अपना रहे थे क्योंकि एक ओर हिंदू धर्म में अनेकों कुरीतियां विद्यमान थी जिससे लोगों का विश्वास हिंदू धर्म के प्रति समाप्त हो रहा था तो दूसरी ओर इस्लाम धर्म एवं ईसाई धर्म का प्रचार बढ़ता जा रहा था ऐसी स्थिति में स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म की कुरीतियों पर प्रहार करके भारतीयों के अंदर वैदिक संस्कृति के प्रति आकर्षण पैदा किया और शुद्धि का आंदोलन चलाकर धर्म परिवर्तन को रोका। अर्थात भारतीय संस्कृति के रक्षा की।
राष्ट्रवाद की भावना जगायी:-
स्वामी दयानंद सरस्वती ने तत्कालीन समय में प्रचलित ऐसी कुरीतियां या अंधविश्वास जो भारतीयों को आपस में विभाजित कर रही थी जैसे- जाति प्रथा आदि का विरोध करके भारत को एकजुट किया तथा भारतीयों के अंदर राष्ट्रवाद की भावना जगाने के लिए सर्वप्रथम यह कहा कि “भारत भारतीयों के लिए है”इसके अलावा उन्होंने स्वराज, स्वदेश, स्वभाषा ,स्वधर्म जैसे विचारों का प्रतिपादन करके भारतीयों के अंदर राष्ट्रीयता की भावना का विकास एवं विस्तार किया। जिसके कारण बाद में यही राष्ट्रीय भावना राष्ट्रीय आंदोलन में बदल पायी।
गुरुकुल कांगड़ी
स्वामी दयानंद सरस्वती के दर्शन पर वैदिक शिक्षा पद्धति शिक्षा प्रदान करने के लिए 1902 में हरिद्वार के पास कांगड़ी में स्वामी श्रद्धानंद ने गुरुकुल स्थापित किया जिसे गुरुकुल कांगड़ी कहा जाता है।