[चार्वाक दर्शन]
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Toggleचार्वाक दर्शन की उत्पत्ति-:
चार्वाक दर्शन किसने दिया है?यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है अतः चार्वाक दर्शन के प्रतिपादन के संबंध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अनेकों तर्क दिए जाते हैं जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं:-
कुछ विद्वानों का मानना है कि चार्वाक दर्शन चार्वाक नामक ऋषि द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
कुछ विद्वानों कहते हैंकि- गुरु बृहस्पति ने दानवों को भ्रमित करने के लिए चार्वाक दर्शन का प्रतिपादन किया। इसलिए इसे बृहस्पति दर्शन भी कहा जाता है।
अनेकों विद्यमान बताते हैं कि चार्वाक शब्द “चर्ब” धातु से बना है जिसका अर्थ है चबाना। चुंकि है दर्शन खाने-पीने अर्थात- चबाने पर अधिक बल देता है इसलिए इसे चार्वाक दर्शन कहा जाता है।
चार्वाक दर्शन भारतीय दर्शन में सबसे प्राचीन भौतिकवादी एवं अवैदिक दर्शन है, संभवतः इस दर्शन का सर्वाधिक प्रचलन वैदिक काल के समय, वैदिक दर्शन के विरुद्ध रहा है।
यह वैदिक धर्म के विरुद्ध का दर्शन है क्योंकि:-
जहां वैदिक धर्म ईश्वरवादी दर्शन है, तो दूसरी ओर चार्वाक अनीश्वरवादी दर्शन दर्शन है।
वैदिक दर्शन परलौकिक दर्शन है, जो यह मानता है कि इस लोक(जगत) के अलावा भी अन्य लोक हैं जैसे-देव लोक, पाताल लोक। जबकि चार्वाक दर्शन भौतिकवादी दर्शन है जिसके अनुसार केवल यही संसार ही एकमात्र लोक है।
वैदिक दर्शन आत्मा, पुनर्जन्म,स्वर्ग-नर्ग,मोक्ष पर विश्वास करता है, जबकि चार्वाक दर्शन इन सभी पर विश्वास नहीं करता।
वैदिक दर्शन के अनुसार इस जगत का निर्माण पांच तत्वों से हुआ है-: पृथ्वी ,अग्नि, वायु, जल, आकाश जबकि चारबाग दर्शन के अनुसार इस जगत का निर्माण चार तत्वों से हुआ है-: पृथ्वी, अग्नि ,वायु ,जल।
वैदिक दर्शन में धार्मिक कर्मकांड(यज्ञ, बलि) को महत्व दिया गया है, जबकि चार्वाक दर्शन में वैदिक कर्मकांड की आलोचना की गई है।
वैदिक दर्शन के अनेकों सिद्धांत परोपकार पर आधारित है, जैसे वैदिक दर्शन में कहा गया है कि:- परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः । परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थ मिदं शरीरम् ॥
भावार्थ :
परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदीयाँ परोपकार के लिए ही बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती हैं अर्थात् यह शरीर भी परोपकार के लिए ही है ।
जबकि चार्वाक दर्शन के लगभग सभी सिद्धांत स्वार्थवाद या सुखवाद पर आधारित है। जैसे इसमें कहा गया है कि हमें सुख के लिए उधार लेकर भी घी पीना चाहिए।
चार्वाक की तत्व मीमांसा:-
चार्वाक की तत्व मीमांसा , इनकी प्रत्यक्षवादी ज्ञान मीमांसा पर निर्भर है, जिसके अनुसार जो प्रत्यक्ष है वही सत्य है इस आधार पर जगत दिखता है इसलिए जगत सत्य है और आत्मा , स्वर्ग नरक, पुनर्जन्म एवं ईश्वर का असत्य है। क्योंकि क्योंकि प्रत्यक्ष नहीं है।
चार्वाक दर्शन की तत्व मीमांसा को जड़वादी या भौतिकवादी तत्व मीमांसा भी कहा जाता है। जो निम्न है:-
चार्वाक दर्शन का जगत विचार:-
चार्वाक दर्शन के अनुसार यह जगत मिथ्या ना होकर सत्य है, क्योंकि हमें जगत की प्रत्यक्ष अनुभूति होती है। तथा इस जगत का निर्माण निम्न चार जड़-पदार्थों से स्वाभावगत(बिना ईश्वर के) हुआ है;-
पृथ्वी
जल
अग्नि
वायु
चार्वाक दर्शन में आकाश के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया गया है क्योंकि आकाश की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती है।
तथा इस जगत के निर्माण का कोई विशेष प्रयोजन नहीं है।
आलोचना एवं उनका प्रतिउत्तर:-
चार्वाक दर्शन की आलोचना करते हुए ईश्वरवादी यह प्रश्न करते हैं कि-: यदि जगत का निर्माण ईश्वर के बिना, केवल इन्हीं चार तत्वों से स्वभावगत हुआ है तो जगत में उपस्थित सजीव वस्तुओं के अंदर चेतना कहां से आई? इसके प्रत्युत्तर में चार्वाक दर्शन कहता है कि जिस प्रकार पान, कत्था, चूना, सुपारी में से किसी का भी रंग लाल नहीं होता, किंतु जब इन को एक साथ चबाया जाता है तो स्वत: ही लाल रंग की उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार इन चार जड़-तत्वों(धरती, अग्नि, वायु ,जल) के सही अनुपात में मिलने से चेतना में स्वत: ही उत्पन्न हो जाती है।
चार्वाक दर्शन का आत्मा संबंधी विचार
चार्वाक दर्शन के अनुसार शरीर से भी कोई नित्य आत्मा नहीं होती है, बल्कि शरीर के अंदर केवल चेतना होती है जो शरीर का ही गुण है, जिसके जिसके द्वारा हम सोच, समझ और ज्ञान कर पाते हैं।
और यह चेतना शरीर के साथ उत्पन्न होती है और मृत्यु के उपरांत शरीर के नष्ट होने के साथ चेतना भी समाप्त हो जाती है,अर्थात जीवन का पूर्ण अंत हो जाता है। इसे “देहात्यावाद” सिद्धांत कहते हैं।
इस सिद्धांत के अंतर्गत चार्वाक दर्शन में यह तर्क दिया गया:-
यदि शरीर के अंदर शरीर से भिन्न आत्मा होती है, तो शरीर की मृत्यु के उपरांत प्रत्यक्ष दिखाई देनी चाहिए। किंतु ऐसा नहीं होता अर्थात- आत्मा नहीं होती है।
आलोचना:-
चूंकि इस शरीर का निर्माण जड़-तत्वों(पृथ्वी, अग्नि ,जल, वायु) से हुआ है, और इनमें से किसी भी तत्व में चेतना नहीं होती है, तो फिर इन्हीं जड़ तत्वों से बने इस शरीर में चेतना कहां से आ जाती है?
इसके प्रत्युत्तर में चारबाग दर्शन कहता है कि जिस प्रकार पान, कत्था, चूना, सुपारी में से किसी का भी रंग लाल नहीं होता, किंतु जब इन को एक साथ चबाया जाता है तो स्वत: ही लाल रंग की उत्पत्ति हो जाती है, उसी प्रकार इन चार जड़-तत्वों(धरती, अग्नि, वायु ,जल) के सही अनुपात में मिलने से चेतना में स्वत: ही उत्पन्न हो जाती है।
चार्वाक दर्शन का ईश्वर संबंधी विचार
चार्वाक दर्शन, ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करता है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष पर विश्वास करता है जबकि ईश्वर की प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती है।
वह ना तो ईश्वर को निमित्त कारण के रूप में स्वीकार करता और ना ही उपादान कारण के रूप में। अर्थात ना तो ईश्वर ने इस जगत को बनाया है और ना ही यह जगत ईश्वर का ही विस्तार रूप बल्कि इस जगत का निर्माण चार जड़-तत्वों के उपादान कारण से हुआ।
आलोचना या प्रश्न?
कार्य-कारण सिद्धांत के अनुसार-: प्रत्येक कार्य का कोई ना कोई कारण अवश्य होता है यदि जगत का निर्माण हुआ है तो इसका कोई ना कोई कारण अवश्य होगा और वह कारण ईश्वर है। अर्थात ईश्वर है।
व्यवस्था मूलक तर्क के अनुसार-: यह जगत व्यवस्थित रूप से चलता है और इस व्यवस्था को बनाने का कार्य ईश्वर करता है। अर्थात ईश्वर है।
यदि ईश्वर नहीं है तो इस जगत का निर्माण करने वाला कौन है अर्थात उन जड़-तत्वों को मिलाकर वस्तुओं का निर्माण किसने किया है?
इसके प्रत्युत्तर में चार्वाक दर्शन कहता है कि जगत के ये जड़-तत्व अपने-अपने स्वभाव के अनुसार स्वयं ही संयुक्त होकर जगत का निर्माण करते हैं। इसके लिए किसी ईश्वर की आवश्यकता नहीं होती।
चार्वाक दर्शन के स्वर्ग-नरक संबंधी विचार:-
वैदिक दर्शन के अनुसार स्वर्ग एवं नरक वह स्थान होता है,जहां आत्मा अपने कर्मों का फल प्राप्त करती है। किंतु चार्वाक दर्शन के अनुसार स्वर्ग नर्ग नहीं होता , क्योंकि किसी को भी इसकी प्रत्यक्ष अनुभूति नहीं होती है। चार्वाक दर्शन में कहा गया है:- सुखेन स्वर्ग: दुखेन नरक:।
अर्थात यदि मनुष्य सुखी है तो उसके लिए यही जगत स्वर्ग है यदि दुखी है तो यह जगत ही उसके लिए नर्क है।
पुनर्जन्म संबंधी विचार:-
इनके अनुसार ना तो आत्मा होती है और ना ही आत्मा का का पुनर्जन्म नहीं होता मृत्यु के साथ ही जीवन का पूर्ण अंत हो जाता है।
चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा:-
चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा प्रत्यक्षवादी है, चार्वाक दर्शन में कहा गया है कि- “प्रत्यक्षमेवैकमं प्रमाणम्”अर्थात् जो प्रत्यक्ष है वही प्रमाणित (वास्तविक) ज्ञानक् या वही सत्य है। किंतु प्रत्यक्ष का अर्थ केवल आंखों से देखना नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष वह सब है जिसकी अनुभूति इंद्रियों द्वारा की जा सकती है। और जिसकी इंद्रियों द्वारा अनुभूति नहीं की जा सकती उसका अस्तित्व ही नहीं है जैसे:- ईश्वर,आत्मा की अनुभूति नहीं की जा सकती अतः इनका अस्तित्व भी नहीं होता।
चारबाग दर्शन की ज्ञान मीमांसा के दो पक्ष है
मंडन पक्ष
खंजन पक्ष
मंडन पक्ष:- चार्वाक दर्शन में प्रत्यक्ष को ही वास्तविक ज्ञान माना गया है। क्योंकि प्रत्यक्ष पूर्ण विश्वसनीय एवं प्रमाणिक होता है
खंडन पक्ष:- चार्वाक दर्शन में प्रत्यक्ष के अलावा ज्ञान प्राप्ति के अन्य साधनों जैसे-: अनुमान प्रमाण, शब्द प्रमाण, उपमान प्रमाण आदि का खंडन किया गया है।
क्योंकि ये पूर्ण विश्वसनीय एवं प्रमाणित नहीं है बल्कि ये संदेहयुक्त होते हैं।
[अनुमान प्रमाण:- पूर्व अनुभव पर आधारित आकलन किया गया ज्ञान। जैसे- धुआ है तो आग होगी।
शब्द प्रमाण:- विश्वासनीय व्यक्ति या पुस्तक के माध्यम से प्राप्त ज्ञान। जैसे- वेदों में लिखा है या ब्राम्हण ने कहा है कि ईश्वर होता है तो होता।
उपमान प्रमाण:- किसी की उपमा के माध्यम से प्राप्त ज्ञान। जैसे- जंगल में दिखने वाली नीलगाय का ज्ञान गाय की उपमा से होना।]
चार्वाक दर्शन की ज्ञान मीमांसा की आलोचना:-
चार्वाक दर्शन के अनुसार केवल प्रत्यक्ष ही प्रमाणिक सत्य है जबकि अनेकों बार प्रत्यक्ष भी मिथ्या या गलत हो सकता है जैसे-पृथ्वी की सतह को देखने पर प्रतीत होता है कि पृथ्वी चपटी है किंतु यह वास्तविक सत्य नहीं है। बल्कि पृथ्वी गोल है
चार्वाक दर्शन में अनुमान प्रमाण का खंडन किया गया है, जबकि सभी तर्क-वितर्क अनुमान पर ही आधारित है अनुमान ही व्यक्ति को बुद्धि से लिया तर्कशील बनाता है अन्यथा मनुष्य और पशु में अंतर नहीं रह जाएगा। यहां तक कि स्वयं चार्वाक दर्शन में भी यह अनुमान लगाया गया है कि आत्मा नहीं होती ,पुनर्जन्म नहीं होता ,ईश्वर नहीं होते।
चार्वाक दर्शन में केवल प्रत्यक्ष को ही ज्ञान प्राप्ति का एकमात्र साधन बताकर ज्ञान के क्षेत्र को संकुचित कर दिया गया है।
चार्वाक दर्शन की नीति मीमांसा या नैतिक विचार:-
चार्वाक दर्शन की नीतिमीमांसा को “भौतिकवादी सुखवाद” का सिद्धांत भी कहा जाता है, क्योंकि चार्वाक दर्शन में केवल भौतिक सुख को महत्व दिया गया है। चार्वाक दर्शन की नैतिकता का सार यह है कि:- व्यक्ति को वही कार्य करना चाहिए जो उसे इंद्रिय सुख प्रदान करें, और ऐसे कार्य नहीं करना चाहिए जो उसे दुख प्रदान करें। चार्वाक दर्शन में इस बात को यह उदाहरण देकर भी समझाया गया है कि जब तक जियो सुख से जियो और उधार लेकर भी घी पीना पड़े तो पियो। क्योंकि मृत्यु के बाद पुनः यह जीवन नहीं मिलने वाला है।
वैदिक कालीन भारतीय दर्शन में व्यक्ति के चार पुरुषार्थ अर्थात उद्देश्य बताए गए:-
धर्म
अर्थ
काम
मोक्ष
किंतु चार्वाक दर्शन में केवल काम अर्थात- इंद्रिय सुख को ही एकमात्र और सर्वोच्च पुरुषार्थ (जीवन का उद्देश्य)बताया गया है, तथा अर्थ(धन) को इंद्रिय सुख प्राप्ति का साधन बताया गया है।
इस प्रकार चार्वाक दर्शन धर्म और मोक्ष का खंडन करते हुए केवल अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ स्वीकारता है।
धर्म का खंडन:-
प्राय: वैदिक दर्शन के अनुसार वैदिक ग्रंथों में उल्लेखित कृतियों के अनुसार आचरण करना धर्म है और उसके विपरीत आचरण करना अधर्म है।
चार्वाक दर्शन के अनुसार हमें धर्म का पालन नहीं करना चाहिए।
क्योंकि धर्म, वैदिक ग्रंथों के अनुरूप है और वैदिक ग्रंथ अप्रमाणिक ग्रंथ हैं जिनकी रचना धूर्त ब्राह्मणों ने अपनी जीविका उपार्जन के लिए, साधारण लोगों को मूर्ख बनाने हेतु की है। जिसकी सिद्धांत निरर्थक एवं विरोधाभासी है
इसी क्रम में चार्वाक वैदिक कर्मकांडओ की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यदि श्राद्ध पक्ष में अर्पित किया हुआ भोजन परलोक के प्रेत-आत्माओं की भूख मिटा सकता है, तो हमें कुछ ही दूरी में निवास करने वाले रिश्तेदारों को घर से ही भोजन अर्पित कर देना चाहिए कर देना चाहिए उनकी भूख मिट जाएगी।
यदि बली से स्वर्ग मिलता है तो अपने बूढ़े माता-पिता की बलि चढ़ा देनी चाहिए, ताकि उन्हें स्वर्ग मिल जाए।
मोक्ष का खंडन:-
चार्वाक दर्शन के अनुसार शरीर की मृत्यु के साथ ही चेतना की मृत्यु हो जाती है और आत्मा तो होती ही नहीं अतः जब शरीर से भिन्न कोई आत्मा ही नहीं होती तो मोक्ष मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता। अर्थात जब आत्मा नहीं है तो मोक्ष किसे मिलेगा?
इसलिए हमें सभी सुख इसी जीवन में भोग लेने चाहिए, परलोकिक सुख की कल्पना में वर्तमान के सुख का त्याग नहीं करना चाहिए।
चार्वाक दर्शन की दुख मिश्रित सुख अवधारणा-:
चार्वाक दर्शन के अनुसार मनुष्य को दुख मिश्रित सुख स्वीकार कर लेना चाहिए, संभावित दुख के भय से सुख का त्याग नहीं करना चाहिए।
जिस प्रकार एक किसान हिरण फसल नष्ट कर देंगे इसके भय से, खेती करना नहीं छोड़ते। एक मांसाहारी कांटे के डर से मछली खाना नहीं छोड़ता। उसी प्रकार हमें सुख पाने के लिए दुख का भी सहन करना चाहिए,अर्थात दुख मिश्रित सुख को भोगना चाहिए।
चार्वाक दर्शन की नीति मीमांसा की आलोचना:-
चार्वाक दर्शन भौतिकवाद एवं स्वार्थवाद के दोषों से भरा पड़ा है, क्योंकि उसके अनुसार हमें जीवन का उद्देश्य केवल सुख प्राप्त करना समझना चाहिए भले ही अनैतिक कार्य क्यों ना करना पड़े। यह यह सिद्धांत समाज में स्वार्थपन, हड़प की प्रवृत्ति को बढ़ाएगा तथा सहानुभूति, दया ,करुणा,सहयोग एवं भाईचारे की भावना को कम करेगा। जो शांति व्यवस्था के लिए आवश्यक है।
चार्वाक दर्शन की मान्यता है कि:- वही कार्य नैतिक है जो सुख प्रदान करें, जो नैतिकता की बिल्कुल अनुपयुक्त परिभाषा है, क्योंकि यदि किसी व्यक्ति को ऐसा करने से सुख मिलता है दूसरों को प्रताड़ित करना पसंद है तो यह नैतिक नहीं हो सकता। क्योंकि दूसरों को कष्ट हो रहा।
चार्वाक दर्शन के अनुसार निजी सुख की कामना करना व्यक्ति का स्वाभाविक धर्म है जबकि यह कथन भी असत्य है क्योंकि अनेकों ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने दूसरों का भला करने के लिए अपने सुख के त्याग की भावना रखी है जैसे बुद्ध ,गांधी आदि।
चार्वाक दर्शन के अनुसार सभी सुख (मानसिक और शारीरिक)बराबर है, जबकि ऐसा नहीं है, शारीरिक सुखों की तुलना में आध्यात्मिक व मानसिक सुख उच्च कोटि का होता है।