महावीर स्वामी
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महावीर स्वामी का जीवन परिचय
जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का जन्म 540 ई.पू. में वैशाली के निकट कुण्डग्राम में ज्ञातृक क्षत्रिय कुल में हुआ था, उनके पिता सिद्धार्थ ज्ञातृक गणराज्य के प्रधान थे। रीति रिवाज के अनुसार युवा होने पर उनका विवाह यशोधरा नामक राजकुमारी के साथ हुआ, किंतु परिवारिक जीवन में उनकी रुचि नहीं थी अतः ज्ञान प्राप्ति के लिए 30 वर्ष की आयु में गृह त्याग करके सन्यास धारण कर लिया।
इसके बाद 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद उन्हें केवल्य(ज्ञान) प्राप्त हुआ,तभी से उन्हें महावीर के नाम से पुकारा जाने लगा।
इसके पश्चात महावीर ने अपने सिद्धांतों का प्रचार किया परिणाम स्वरूप मगध काशी कौशल वैशाली आदि प्रदेश के अनेकों राजा महाराजा व्यापारी एवं साधारण लोग जैन धर्म के अनुयाई बन गए, जैन सत्य से ज्ञात होता है कि मगध के सम्राट बिंबिसार, आजादशत्रु लिच्छवी वंश के चेटक, अवंती के नरेश चंद्रप्रधोत महावीर स्वामी के अनुयायी थे।
अंततः 72 वर्ष की आयु में 468 ई.पू. में पावापुरी (पटना) नामक स्थान पर महावीर स्वामी का निर्वाण प्राप्त हुआ।
जैन दर्शन की तत्व मीमांसा/अनेकांतवाद:-
जैन धर्म की तत्व मीमांसा वस्तुवादी ,सापेक्षतावादी एवं बहुतत्ववादी है,
वस्तुवादी:- जगत में ऐसी अनेकों द्रव्य (वस्तुएं) मौजूद हो सकती है जिनका हमें ज्ञान नहीं है।
सापेक्षतावादी:- किसी भी वस्तु के बारे में हमारा ज्ञान समय एवं स्थान के सापेक्ष होता है।
जैसे:- ठंडी के समय, भूमिगत जल गर्म प्रतीत होता है, गर्मी के समय ठंडा प्रतीत होता है।
और इन्हीं मतों (वस्तुवादी ,सापेक्षतावादी एवं बहुतत्ववादी) के आधार पर जैन धर्म में अनेकांतवाद का सिद्धांत दिया गया।
अनेकांतवाद:-
अनेकांतवाद शब्द 3 शब्दों से मिलकर बना है- अनेक+अंत+वाद।
यहां पर अनेक का अर्थ- बहुत है।
अंत का अर्थ- वस्तु या धर्म(गुण) दोनों से है।
वाद का अर्थ- सिद्धांत से है।
इस प्रकार अनेकांतवाद का अर्थ है :- जगत में अनेकों वस्तुएं(द्रव्य) हैं और उनके अनेकों या अनंत धर्म(गुण) होते हैं।
अतः एक सामान्य व्यक्ति किसी भी द्रव्य के केवल कुछ ही धर्म का ज्ञान कर पाता है, इसीलिए उसके पास किसी भी द्रव्य का आंशिक ज्ञान ही होता है।
प्रत्येक द्रव्य में दो प्रकार के धर्म(गुण) होते हैं
स्वरूप धर्म:- द्रव्य के वे धर्म(गुण) जो उसमें सदैव विद्वान रहते हैं अर्थात जिनके बिना उस द्रव्य का स्वरूप ही नहीं रह जाता।
जैसे- सोना में उसका चमकीलापन और पीलापन।
आगंतुक धर्म:- द्रव्य के वे धर्म जो परिवर्तनशील होते हैं अर्थात जो उसमें सदेव नहीं रहते हैं।
जैसे:- स्वर्ण का आकार।
जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा/स्यादवाद:-
जैन दर्शन का स्यादवाद सिद्धांत, अनेकांतवाद सिद्धांत की ही ज्ञानमीमांसीय अभिव्यक्ति है, क्योंकि अनेकांतवाद सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक द्रव्य(वस्तु) के अनंत धर्म (गुण) होते हैं, और एक साधारण मनुष्य अपने दृष्टिकोण से, उस वस्तु के केवल कुछ ही धर्म(गुण) का ज्ञान कर पाता है,अतः उसका ज्ञान आंशिक सत्य होता है, पूर्ण सत्य नहीं।
इसीलिए व्यक्ति को किसी एक दृष्टिकोण (या धर्म) पर आधारित अभिव्यक्ति अर्थात- “नय” देने के पहले स्यात् शब्द का प्रयोग करना चाहिए।
क्योंकि “स्यात्” शब्द का अर्थ है:- कि संबंधित बात या परामर्श केवल उसके एक दृष्टिकोण से सत्य है।
ताकि वह बात या परामर्श दोषमुक्त हो सके, और विवाद की संभावना समाप्त हो जाए।
इसे समझाने के लिए जैनदर्शन में हाथी और छः अंधों की कहानी का उल्लेख किया गया है। कहानी के अनुसार-:
छः अंधे हाथी का आकार जाने के उद्देश्य हाथी के अंगों को स्पर्श करते हैं,
1.एक अंधा- हाथी के पैर को स्पर्श करके निष्कर्ष के तौर पर कहता है कि, हाथी खंबे के आकार का है।
2.दूसरा अंधा- हाथी की सूंड को स्पर्श करके कहता है कि, हाथी अजगर के समान है।
3.तीसरा अंधा- हाथी के कान को स्पर्श करके कहता है कि, हाथी पंखे के समान है।
4.चौथा अंधा- हाथी के पेट को स्पर्श करके कहता है कि, हाथी दीवार के समान है।
5.पांचवा अंधा- हाथी की पूंछ को स्पर्श करके कहता है कि, हाथी रस्सी के समान है।
6.छठवां अंधा- हाथी के दांत को स्पर्श करके कहता है कि, हाथीपाला भाला के समान है।
अर्थात प्रत्येक अंधा अपने-अपने दृष्टिकोण से हाथी के आकार की अलग-अलग व्याख्या करता हैं, और यह व्याख्या उनके एक दृष्टिकोण से आंशिक रूप से सही होती है किंतु पूर्ण सत्य नहीं होती।
अतः उन्हें अपनी व्याख्या को दोष मुक्त बनाने के लिए कहना चाहिए कि-:
1.स्यात् हाथी का आकार खंभे के समान है।
2.स्यात् हाथी का आकार अजगर के समान है।
इत्यादि।
जिससे वे अपनी व्याख्या से दोषमुक्त भी हो जाएंगे और उनके मध्य विवाद भी नहीं होगा।
जैन-दर्शन का सप्तभंगी सिद्धांत:-
सप्तभंगी सिद्धांत, स्यादवाद सिद्धांत का व्यवहारिक रूप है, जिसके अनुसार वस्तु के किसी एक दृष्टिकोण या एक धर्म (गुण) पर आधारित अभिव्यक्ति अर्थात- “नय” निम्न प्रकार के हो सकते हैं:-
स्यात् है
स्यात् नहीं है
स्यात् है और स्यात् नहीं भी है
स्यात् अव्यक्तव्य है
स्यात् है तथा अव्यक्तव्य भी है
स्यात् नहीं है तथा अव्यक्तव्य भी है
स्यात् है,नहीं है तथा अव्यक्तव्य भी है
इस प्रकार उपरोक्त सिद्धांतों से यह स्पष्ट होता है कि जैन दर्शन काफी उदार दृष्टिकोण का है। इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपने विचारों का सम्मान करते हुए दूसरों की मनोवृत्ति एवं विचारों का भी सम्मान करना चाहिए। इसके बाद सत्य का आकलन करना चाहिए।
जैन-दर्शन की नीति-मीमांसा:-
बंधन एवं मोक्ष
भारतीय दर्शन की सामान्य अर्थ में बंधन का तात्पर्य निरंतर जन्म ग्रहण करके दुख झेलने से है। तथा मोक्ष का तात्पर्य जन्म मरण के बंधन से मुक्त होना है।
जबकि महावीर के दर्शन के अनुसार-: जीव/आत्मा का पुद्गल(शरीर) से संयोग ही बंधन है। और इसके विपरीत जीव/आत्मा का पुद्गल(शरीर) से वियोग ही निर्वाण(मोक्ष) है।
बंधन के कारण:-
तो यह प्रश्न उठता है कि जीव, पुद्गल से संयोग क्यों करता है अर्थात आत्मा शरीर को धारण क्यों करती है? इस प्रश्न का उत्तर के रूप में महावीर स्वामी कहते हैं कि- अज्ञान की अनुभूति के कारण जीव के अंदर लालसाएं पैदा होती हैं, जिससे वशीभूत होकर जीव शरीर की ओर लालायित होता है और शरीर से संयोग करता है। और जीव, उसी शरीर को धारण करता है जो उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार सुनिश्चित होता है।
निर्वाण(मोक्ष) की प्राप्ति:-
जैन दर्शन के अनुसार, व्यक्ति को अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है, और यह कर्म-फल की कड़ी ही जीव को शरीर से जोड़ती है, अतः जीव(आत्मा), पुद्गिल(शरीर) से तभी मुक्त हो सकता है जब, मनुष्य पूर्व जन्म के कर्मफल का नाश करें और इस जन्म में किसी प्रकार का कर्मफल संग्रहित ना करें। और इसके लिए जैन धर्म में त्रिरत्न, पंच महाव्रत जैसे साधन बताए गए हैं।
मोक्ष प्राप्ति के साधन:-
महावीर स्वामी ने कहा है कि, व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति के लिए निम्न नैतिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए:-
त्रिरत्न
जैन धर्म में मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन समय को बताए गए हैं जिन्हें त्रिरत्न कहा जाता है जो निम्न हैं-:
सम्यक ज्ञान:-
जैन दर्शन के अनुसार बंधन का मूल कारण अज्ञानता है, अतः मोक्ष प्राप्ति के लिए अज्ञानता का विनाश आवश्यक है और इस अज्ञान का नाश ज्ञान द्वारा किया जा सकता है। इसलिए व्यक्ति को ज्ञानी बनना चाहिए।
ज्ञान के पांच स्त्रोत है-:
मति- इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान।
श्रुति- व्याख्यान को सुनने से प्राप्त ज्ञान।
अवधि- वस्तुओं से प्राप्त ज्ञान।
मन: पर्याय- अन्य व्यक्ति के विचारों से प्राप्त ज्ञान।
कैवल्य- जितेंद्रियों से प्राप्त ज्ञान।
सम्यक दर्शन:-
सम्यक दर्शन का तात्पर्य है- जैन तीर्थंकरों एवं उनके सिद्धांतों पर दृढ़ विश्वास रखना।
सम्यक चरित्र:-
अहितकर कार्यों का वर्जन करते हुए, हितकर कार्यों के अनुसार आचरण करना सम्यक चरित्र है, अर्थात व्यक्ति को अपने मन, वचन और शारीरिक कर्मों पर संयम रखना चाहिए, यही व्यक्ति को निर्वाण की ओर ले जाता है।
जैसे- सुख-दुख , सुंदर-असुंदर के प्रति उदासीनता रखना।
पंच महाव्रत
महावीर स्वामी के अनुसार सम्यक चरित्र के अंतर्गत व्यक्ति को निम्नलिखित पांच महाव्रतों का पालन करना चाहिए:-
सत्य:- जैन दर्शन के अनुसार व्यक्ति को असत्य वचनों का परित्याग करके सदैव सत्य एवं मधुर वचन बोलने चाहिए,
अर्थात
बिना सोचे समझे नहीं बोलना चाहिए
भयभीत होने पर भी झूठी गवाही नहीं देना चाहिए
मिथ्या उपदेश नहीं देना चाहिए
क्रोध आने पर मौन रहना चाहिए
किसी की निंदा नहीं करनी चाहिए।
अहिंसा:-
जैन दर्शन के अनुसार मन ,वचन और कर्म से किसी के प्रति अहित/द्वेष की भावना ना रखना ही अहिंसा है।
अर्थात सभी के प्रति प्रेम, दया, करुणा की भावना रखनी चाहिए।
अस्तेय:-
अस्तेय का अर्थ है-: बिना अनुमति के किसी दूसरे की वस्तु ना तो ग्रहण करनी चाहिए, ना ही ग्रहण करने की इच्छा रखनी चाहिए।
इसके अंतर्गत निम्न बातों का ध्यान रखना चाहिए-
बिना आज्ञा के किसी भी व्यक्ति के घर में प्रवेश नहीं करना चाहिए।
किसी के घर में रहते समय गृह स्वामी की आज्ञा के बिना उसकी वस्तु का प्रयोग नहीं करना चाहिए।
अपरिग्रह:-
अपरिग्रह का अर्थ है- धन संग्रह ना करना। महावीर स्वामी के अनुसार सांसारिक वस्तुओं यहां तक की वस्त्र भी संग्रहित करके नहीं रखना चाहिए।
ब्रम्हचर्य:-
ब्रम्हचर्य का अर्थ है:- वासनाओं का परित्याग करना। अर्थात व्यक्ति को अपनी भावनाओं एवं कामना में वशीभूत होकर ऐसे कार्य नहीं करना चाहिए जो अनैतिक हैं।
महावीर के अनुसार कर्मवाद का सिद्धांत:-
महावीर स्वामी के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने किए हुए कर्मों का फल भोगना ही पड़ता है,
मनुष्य के सारे दुख या सुख पूर्व कर्म के कारण ही होते हैं, यह कर्म-फल की कड़ी ही जीव(आत्मा) को पुद्गल (शरीर) से जोड़े रखती है,
पूर्व जन्म के कर्मों के फल भोगने के लिए ही मनुष्य को दूसरा जन्म लेना पड़ता है। अर्थात यही पुनर्जन्म का कारण है।
महावीर के अनुसार पुनर्जन्म का सिद्धांत
महावीर स्वामी के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने पूर्व जन्म के संचित कर्मों को भोगने के लिए ही विभिन्न योनियों में जन्म लेना पड़ता है। अर्थात पुनर्जन्म का कारण कर्म-फल सिद्धांत है।
कायाक्लेश सिद्धांत:-
महावीर स्वामी ने सांसारिक बंधनों से मुक्ति पाने के लिए कठोर तपस्या पर बल दिया है जिस कायाक्लेश सिद्धांत कहा जाता है।
महावीर का अनीश्वरवादी सिद्धांत:-
महावीर स्वामी ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करते, उनका मानना है कि इस सृष्टि के रचयिता और हर्ता ईश्वर नहीं है बल्कि यह सृष्टि अनादि है।
आत्मवादी सिद्धांत:-
महावीर स्वामी आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं उनके अनुसार आत्मा अजर एवं अमर है।
महावीर स्वामी का स्त्रियों के प्रति मत:-
महावीर स्वामी तत्कालीन व्यवस्था के विपरीत स्त्रियों की स्वतंत्रता के पक्षधर थे उनके अनुसार स्त्रियों को भी निर्वाण प्राप्त करने का अधिकार है इसलिए उन्होंने अपने संघ के द्वार स्त्रियों के लिए भी खोल दिए थे।
पुद्गल:-
महावीर स्वामी के अनुसार पुद्गल का तात्पर्य- ऐसी अजीव वस्तुओं से है जिनमें आत्मा ना हो, जिसे इंद्रियों द्वारा स्पर्श किया जा सके एवं पकड़ा जा सके।
आस्त्रव:-
जैन दर्शन के अनुसार, पुद्गल कणों(शरीर) का जीव(आत्मा) की ओर विवाह होना आस्त्रव कहलाता है।
बंधन:-
जब जीव(आत्मा), पुद्गल से संयोग करता है जैन धर्म में इसे बंधन कहते हैं। और इसके विपरीत आत्मा की शरीर से मुक्ति ही मोक्ष है।
संवर:-
जैन धर्म के अनुसार मोक्ष प्राप्ति के लिए नए कर्मों के आगमन की प्रक्रिया को रोकना संवर कहलाता है।
निर्जरा:-
जैन धर्म के अनुसार पूर्व संचित कर्मों का विनाश करना ही निर्जरा है। और इसका विनाश पंच महाव्रत ,त्रिरत्नों का पालन करके किया जा सकता।
महावीर के दर्शन के नकारात्मक पहलू:-
महावीर ने अपने दर्शन में अत्यंत कठोर मार्ग प्रस्तावित किया है जिनका 100% पालन करना सांसारिक जीवन के लिए सहज नहीं है। जैसे:- वस्त्र तक का त्याग करना, किसी भी चीज की हिंसा ना करना।
महावीर का चिंतन काफी हद तक अव्यावहारिक है, और उसमें आपसी विरोधाभास भी है, क्योंकि जहां एक और महावीर स्वामी कहते हैं कि कृषि कार्य से बचना चाहिए और दूसरी और कहते हैं मांसाहार का सेवन नहीं करना चाहिए तो व्यक्ति क्या खाकर जिंदा रहेगा।
महावीर स्वामी के दर्शन के सकारात्मक पहलू:-
महावीर स्वामी ने अपने पंच महाव्रत में नैतिक आदर्शों के पालन की बात की है जिसके पालन से वर्तमान में चोरी हिंसा आतंकवाद जैसे अपराध समाप्त हो जाएंगे।
महावीर स्वामी ने ज्ञान मीमांसा का एक प्रमुख सिद्धांत स्यादवाद दिया है जिसके अनुसार मनुष्य का ज्ञान किसी विशेष दृष्टिकोण से सत्य होता है सभी दृष्टिकोण से नहीं इसको अपनाने से विभिन्न विचारकों के आपसी झगड़े समाप्त हो जायेंगे। क्योंकि सभी एक दूसरे की प्रति सहिष्णु बन जाएंगे।