तुलसीदास जी के धार्मिक एवं दार्शनिक विचार

-:गोस्वामी तुलसीदास:-

.तुलसीदास जी के धार्मिक एवं दार्शनिक विचार

तुलसीदास जी का जीवन परिचय

महाकवि गोस्वामी तुलसीदास का जन्म 1532 ईसवी में बांदा जिले की राजापुर क्षेत्र में हुआ था। माना जाता है कि तुलसीदास का जन्म 12 महीने गर्भ में रहने के बाद हुआ था, जिसकी वजह से भी काफी हष्ट पुष्ट पैदा हुए थे और उन्होंने जन्म लेने के बाद सबसे पहले राम शब्द बोला था। इसलिए उनका नाम रामबोला पड़ गया। 

30 वर्ष की उम्र में तुलसीदास जी का विवाह रत्नावली से हुआ, वे अपनी पत्नी से बहुत ही प्रेम करते थे एक बार दी पत्नी से मिलने गए तब उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि “तुम जितना प्रेम मेरे इस हाड मास से बने शरीर से करते हो, यदि उतना प्रभु से करते तो तुम्हें मोक्ष की प्राप्ति होती”रत्नावली इसी कथन ने तुलसीदास के अंदर चेतना जागृत की और प्रभु की भक्ति में लीन हो गए। जिसके कारण उन्हें तुलसीदास के नाम से जाना गया। 

तुलसीदास की प्रमुख रचनाएं:- 

राम चरित्र मानस, दोहावली, कवितावली, गीतावली, वैराग्य संदीपनी, पर्वती मंगल, विनय पत्रिका आदि है। 

रामचरित्र मानस:- 

रामचरितमानस तुलसीदास की सबवे प्रमुख एवं महत्वपूर्ण रचना है, जिसमें भगवान राम की जीवन कथा एवं उनके आदर्शों का वर्णन है। 

रामचरितमानस में कुल सात खंडों में विभक्त है – बालकांड, अयोध्याकांड, अरण्यकांड, किष्किन्धाकांड, सुंदरकांड, लंकाकांड (युद्धकांड) और उत्तरकांड। 

तथा तुलसीदास की रामचरितमानस में 1172 दोहे हैं। 

तुलसीदास के दार्शनिक विचार:-

ब्रह्म संबंधी विचार:-

तुलसीदास जी सगुण एवं साकार ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, उनके अनुसार केवल एक ही परमात्मा है उसका नाम है- राम। जो जगत के कण-कण में व्याप्त है। 

आत्मा संबंधी विचार:-

तुलसीदास के अनुसार आत्मा ईश्वर का ही अंश है जो अजर, अमर , शाश्वत एवं नित्य है। मृत्यु के बाद आत्मा परमात्मा में ही विलीन हो जाएगी। 

कर्मफल सिद्धांत में विश्वास:-

तुलसीदास कर्मफल सिद्धांत पर विश्वास रखते थे अर्थात व्यक्ति जैसा कर्म करेगा उसे वैसा ही फल मिलेगा। इस संदर्भ में उन्होंने कहा है:-

कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जसकरहि सोईफल चाखा। 

अर्थात यह दुनिया कर्म प्रधान है जो जैसा कार्य करेगा वैसा फल भोगेगा। 

मोक्ष संबंधी विचार:-

तुलसीदास के अनुसार जीवन मरण के बंधन से मुक्त होना मोक्ष है,और मोक्ष का सबसे उत्कृष्ट रास्ता भक्ति मार्ग ही है। अतः हमें मोक्ष प्राप्ति के लिए ईश्वर के प्रति प्रेम एवं भक्ति रखना चाहिए। 

तुलसीदास जी के नैतिक विचार:-

परोपकार ही धर्म है:-

तुलसीदास के अनुसार परोपकार करना ही सबसे बड़ा धर्म है इस संदर्भ में उन्होंने कहा है:-

“परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई”अर्थात परोपकार से बढ़कर दूसरा धर्म नही है और किसी को दुख पहुंचाने से बढ़कर कोई दूसरा अधर्म नहीं है। 

कर्तव्यपरायणता एवं त्याग:-

तुलसीदास के अनुसार हमें राम की भांति अपने कर्तव्यों का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करना चाहिए तथा आवश्यकता पड़ने पर प्रिय वस्तु का भी त्याग कर देना चाहिए। जैसे- राम ने राज्य का, सीता का त्याग कर दिया था। 

नैतिक साध्य पर आधारित हिंसा उपयुक्त है:-

यदि हमारा साध्य नैतिक है और इस नैतिक मार्ग में हिंसा करना आवश्यक है तो कर देनी चाहिए। उसे हत्या नहीं बल्कि वध कहा जाएगा। जिस प्रकार राम ने नैतिकता और धर्म की स्थापना के लिए बड़े-बड़े राक्षसों का वध किया। 

तुलसीदास के सामाजिक विचार:

तुलसीदास मध्य काल के कवि हैं उस समय समाज में काफी रूढ़ीवादी परंपराओं का प्रचंड रूप प्रचलित उन्होंने परंपरागत मूल्यों को तोड़कर नए मूल्य स्थापित करने का प्रयास किया किंतु कहीं-कहीं उनकी दृष्टि भी परंपरागत विचारों से प्रभावित दिखती है। उनके सामाजिक विचार निम्नलिखित हैं:-

वर्ण व्यवस्था:-

तुलसीदास जी जन्म आधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे,कहीं कहीं उनका शूद्रों के प्रति कट्टर रूप भी दिखाई देता है, इस संदर्भ में उन्होंने कहा है:-

“ढोल गंवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी”

किंतु अपने रामचरितमानस के अनेकों प्रसंगों में शूद्रों के सम्मान की व्याख्या की है जैसे- निषाद-राज मित्रता की थी, राम शबरी (शूद्र)के जूठे बेर खाए थे,

नारी विषयक विचार:-

तुलसीदास की नारी के प्रति भावना विवाद का विषय रही है, क्योंकि कुछ प्रसंगों में उन्होंने नारी की निंदा की है तो कुछ प्रसंगों में प्रशंसा। 

जैसे- 

ढोल गवार शुद्र पशु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी। 

किंतु कुछ प्रसंगों में नारी के लिए सम्मान की दृष्टि रखते हुए कहा है :-

अनुज बधू भगिनी सुत नारी। सुन सठ कन्या सम ये चारी॥

इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई। ताहि बधें कछु पाप न होई।।

अर्थात- छोटे भाई की स्त्री, बहिन, पुत्र की स्त्री और कन्या- ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टि से देखता है, उसे मारने में कुछ भी पाप नहीं होता

आदर्श परिवार:-

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में राम के परिवार को एक आदर्श परिवार के रूप में प्रस्तुत किया है, वे कहते हैं कि:- पुत्र को राम जैसा होना चाहिए (पिता के वचन का पालन करें), भाई को लक्ष्मण व भरत जैसा होना चाहिए(जो भाई के लिए अपना राज्य त्याग करने के लिए तैयार हो), माता कौशल्या जैसी होनी चाहिए(जो अपने और दूसरे के पुत्र को एक समान समझे), और पत्नी सीता जैसी होनी चाहिए(जो पति के सुख को अपना सुख और पति के दुख को अपना दुख समझे)। 

तुलसीदास के राज्य संबंधी विचार:-

तुलसीदास जी एक आदर्श रामराज्य की कल्पना करते हैं , अनुसार रामराज्य वह होगा जिसमें निम्न विशेषताएं हों:-

अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा।।

नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।।

भावार्थ:- छोटी अवस्था में मृत्यु नहीं होती, न किसी को कोई पीड़ा होती है। सभी के शरीर सुंदर और निरोग हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःखी है और न दीन ही है। न कोई मूर्ख है और न शुभ लक्षणों से हीन ही है। 

अर्थात:- जहां, 

किसी की मृत्यु अल्पायु में ना हो, (जीवन प्रत्याशा अधिक हो)

किसी को कोई पीड़ा ना हो(स्वास्थ्य स्तर उच्च हो),

सब सुंदर एवं निरोग दिखें,

कोई गरीब एवं दुखी ना हो,

सब बुद्धिमान हो सबके अंदर नैतिकता विद्वान हो (नैतिक शिक्षा का स्तर उच्च हो)

तथा राज्य का राजा राम की तरह केवल प्रजा के सुख को सर्वोपरि समझे, अपने व्यक्तिगत हित या परिवार को ध्यान में ना रखें। जिस प्रकार राम ने प्रजा के लिए अपनी सीता का भी त्याग कर दिया था। 

तुलसीदास के आदर्शों की प्रशासन में उपयोगिता:-

गोस्वामी तुलसीदास केवल एक कवि ही नहीं थे, बल्कि वे एक नैतिक मार्गदर्शक भी थे। उन्होंने राम को एक आदर्श माध्यम बनाकर, जनता एवं प्रशासक दोनों को उचित एवं नैतिक मार्ग दिखाया है, अतः यदि कोई व्यक्ति या प्रशासक उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारता है तो वह निश्चित रूप से ही एक अच्छा व्यक्ति एवं लोक सेवक बन सकता है, उन्होंने एक प्रशासक के लिए निम्न प्रकार से मार्गदर्शन दिया है:-

लोक कल्याण की सर्वोच्चता:-

तुलसीदास के अनुसार एक राजा(प्रशासक) का सबसे बड़ा धर्म लोक कल्याण करना है, अतः जिस प्रकार राम ने प्रजा के संतोष के लिए अपनी पत्नी सीता का भी त्याग कर दिया था, उसी प्रकार एक प्रशासक को सदैव जनता के कल्याण को प्राथमिकता देनी चाहिए ना कि निजी हित को। 

कर्तव्य परायणता:-

गोस्वामी तुलसीदास हमें यह सिखाते हैं कि राम, लक्ष्मण, भरत ,हनुमान ,सीता,सुग्रीव  की भांति एक प्रशासनिक अधिकारी को सदैव अपने कर्तव्यों, उत्तरदायित्वों का पूर्ण निष्ठा के साथ पालन करना चाहिए।

वचनबद्धता:- 

तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है रघुकुल रीति सदा चली आई प्राण जाए पर वचन ना जाए, अर्थात जिस प्रकार राम अपने वचन में अटल रहते थे उसी प्रकार एक प्रशासनिक अधिकारी को अपनी ली गई शपथ एवं किए गए वायदे के अनुसार कार्य करना चाहिए। 

समन्वयवाद:-

तुलसीदास की रामचरितमानस में अनेकों समन्वय के उदाहरण मिलते हैं जैसे- राम रावण युद्ध में मानव और जानवर का समन्वय, राम और निषाद की दोस्ती शूद्र और क्षत्रिय का समन्वय, तुलसीदास ने भी अपनी रचनाओं में अवधी और ब्रज भाषा का समन्वय किया, उसी प्रकार एक प्रशासक को जनता और सरकार ,उच्चस्थ और अधीनस्थ के मध्य समन्वय स्थापित करके चलना चाहिए। 

Leave a Comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *