स्वामी विवेकानंद
This page Contents
Toggle.
स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय
भारत के सांस्कृतिक जागरणकर्ता , राष्ट्रवादी सन्यासी एवं नव वेदान्त वादी स्वामी विवेकानंद जी का जन्म 12 जनवरी 1863 ईसवी में कोलकाता में हुआ था, उनके बचपन का नाम नरेंद्र था, नरेंद्र बचपन से ही दर्शनिक प्रवृत्ति के थे,वे ऋषि-मुनियों से यह प्रश्न करते थे कि- क्या आपने ईश्वर को देखा है? इस प्रश्न का संतुष्टि पूर्ण उत्तर बड़े-बड़े ऋषि मुनि भी नहीं दे पाते थे, किंतु एक बार 1881 में धार्मिक उत्सव के समय नरेंद्र की मुलाकात श्री रामकृष्ण परमहंस से हुई, तब रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र के प्रश्न के उत्तर के रूप में कहा कि- “हां मैंने ईश्वर को देखा है लेकिन ईश्वर को देखने के लिए अत्यधिक प्रवणता के साथ ईश्वर के प्रति आस्था होना जरूरी है”
रामकृष्ण परमहंस के इस कथन से स्वामी विवेकानंद काफी प्रभावित हुए और वे उनके शिष्य बन गए, किंतु 1886 ईसवी में रामकृष्ण परमहंस की मृत्यु हो गई तब विवेकानंद जी ने अपने गुरु के मानवतावादी दर्शन का प्रचार प्रसार करने के लिए, अपने गृहस्थ जीवन को त्याग कर ब्रह्मचर्य धारण कर लिया सन्यासी बन गए, इसके बाद उन्होंने उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूरे भारत का भ्रमण किया और अपने देश को निकटता से जाना और समझा।
1893 ईसवी में शिकागो में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में उन्होंने भाग लिया और अपने प्रभावी भाषण द्वारा भारत के वेदांत एवं सनातन धर्म का परचम पूरे विश्व में फहराया।
1897 में रामकृष्ण मिशन की स्थापना करके आध्यात्मिक एवं मानवतावाद के विचारों को भारत सहित पुरे विश्व में फैलाया।
और अपने जीवन भर मानव सेवा को सर्वोपरि समझते हुए जनकल्याण की भावना का प्रचार प्रसार किया अंततः मात्र 39 वर्ष की उम्र में 1902 ईस्वी को ध्यान मुद्रा में समाधि लेकर आत्मस्वरूप में विलीन हो गए।
स्वामी विवेकानंद के दार्शनिक (धार्मिक)विचार:-
स्वामी विवेकानंद जी के चिंतन में अध्यात्मिकता, व्यवहारिकता एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
इसके अलावा उनका दार्शनिक चिंतन, पश्चिम के भौतिकवाद और पूर्व के अध्यात्मवाद दोनों के सामंजस्यपूर्ण सम्मिश्रण पर आधारित है। उनका विचार था कि आध्यात्मिक उन्नति के पूर्व भौतिक उन्नति आवश्यक है, इस संदर्भ में वे कहते हैं कि रोटी का प्रश्न हल किए बिना, भूखे मनुष्य को धार्मिक ज्ञान देना निरर्थक है।
स्वामी विवेकानंद के दार्शनिक विचार निम्नलिखित हैं:-
नववेदांत वादी दर्शन:-
स्वामी विवेकानंद अद्वैतवादी या नववेदांत वादी दर्शन के समर्थक थे, उनका कहना था कि प्रत्येक जीव अव्यक्त ब्रह्म है, मनुष्य ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है अतः हमें प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर का रूप समझ कर उसके प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए।
आत्मा परमात्मा का अंश:-
स्वामी विवेकानंद मानते थे कि आत्मा, परमात्मा का ही अंश है जो अनंत एवं नित्य है।
और धर्म का लक्ष्य आत्मा(परमात्मा) की प्राप्ति करना ही है।
सार्वभौम धर्म:-
विवेकानंद ने धर्म का व्यापक अर्थ लेते हुए सार्वभौम धर्म का प्रतिपादन किया, उन्होंने कहा कि सभी धर्म का मूल सार मानव का कल्याण करना होता है, अर्थात सभी धर्म में मानवता के सार्वभौम लक्षण विद्यमान रहते हैं।
स्वामी विवेकानंद सार्वभौमिक धर्म के रूप में ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहते थे जो सब प्रकार की मानसिक अवस्था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो जिसमें ज्ञान ,भक्ति ,योग कर्म का समभाव(समान भाव) हो,
धार्मिक सहिष्णुता:-
स्वामी विवेकानंद के अनुसार प्रत्येक धर्म का अपना-अपना महत्व होता है, अतः हमें किसी एक धर्म को अपनाकर,दूसरे धर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए। बल्कि सभी धर्मों के मध्य परस्पर बंधुत्व की भावना होनी चाहिए।
अध्यात्मिक मानवता:-
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि मानव समुदाय ही ईश्वर के अस्तित्व का प्रतिनिधित्व करता है, अतः यदि तुम ईश्वर की सेवा करना चाहते हो तो उस मनुष्य की सेवा करो जिसे तुम्हारी सेवा और सहायता की आवश्यकता है,मानव सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। इस संदर्भ में उन्होंने “दरिद्र नारायण” की संकल्पना प्रस्तुत की, अर्थात दरिद्र को नारायण मानकर सेवा करनी चाहिए। यही ईश्वर का साक्षात्कार करवाएगी।
स्वामी विवेकानंद के अनुसार धर्म:-
स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि साधारण लोग पूजा पाठ, रीति रिवाज या कर्मकांडों को धर्म मान बैठते हैं जबकि (धर्म वही है जो तर्क के अनुकूल हो )वास्तव में धर्म का अर्थ है अच्छे कर्म करना एवं अपने कर्तव्यों का पालन करना जैसे- एक गाय का धर्म है घास चरना और बछड़े को पौष्टिक दूध प्रदान करना। प्रत्येक व्यक्ति के अंदर ब्रह्म विद्यमान है अतः हमें प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर मानकर उसकी सहायता एवं सेवा करनी चाहिए यही सबसे बड़ा धर्म है।
स्वामी विवेकानंद के सामाजिक विचार:-
स्वामी विवेकानंद के अनुसार मनुष्य के दुख एवं पीड़ा का एक प्रधान कारण ऐसी सामाजिक प्रथाएं हैं जो उत्तम उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्थापित की गई थी किंतु अब इनका कोई उपयोग नहीं रहा लेकिन कुछ स्वार्थी लोग उन्हें अभी तक कायम रखकर दूसरों पर अत्याचार कर रहे अतः इन कुप्रथाओं को समाप्त कर एक ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जो वैदिक संस्कृति पर आधारित हो जहां सभी व्यक्ति एक दूसरे के सहयोगी हों, ना कि पश्चिमी सभ्यता की भांति प्रतियोगी।
स्वामी विवेकानंद के सामाजिक विचार निम्नलिखित थे:-
जातिवाद का विरोध:-
स्वामी विवेकानन्द जन्म आधारित जाति व्यवस्था के विरोधी थे, तथा वैदिक संस्कृति के अनुसार योग्यता व कर्मों पर आधारित वर्ण व्यवस्था के समर्थक थे। क्योंकि वर्ण व्यवस्था से समाज सामान्य रूप से चल पाता है।
सामाजिक सामंजस्य:-
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि समाज के सभी वर्ग को एक समान समझा जाना चाहिए किसी भी वर्ग या वर्ण को ऊंचा या नीचा नहीं समझा जाना चाहिए और प्रत्येक वर्ग के लोगों को अपने कर्तव्यों का निष्ठा पूर्ण तरीके से पालन करना चाहिए जिससे समाज के विभिन्न वर्गों के मध्य संघर्ष ना होकर सामंजस्य की स्थिति हो।
छुआछूत का विरोध:-
विवेकानंद छुआछूत को भारतीय समाज का सबसे बड़ा अभिशाप मानते थे उनके अनुसार सभी मनुष्य ईश्वर का प्रतिरूप अतः मनुष्य मनुष्य के मध्य ऊंच-नीच एवं छुआछूत की भावना नहीं होनी चाहिए।
नारी उत्थान:-
स्वामी विवेकानंद स्त्री एवं पुरुष को एक दूसरे का पूरक तथा सहयोगी मानते थे, वे लिंग समानता पर विश्वास करते हैं, उन्होंने नारी उत्थान के लिए नारी शिक्षा का समर्थन तथा बाल विवाह ,सती प्रथा, पर्दा प्रथा आदि का विरोध किया।
इसके अलावा उन्होंने भारतीय नारियों को पश्चिमी देशों की नारियों से श्रेष्ठ माना है क्योंकि उनके अनुसार भारतीय नारियों के अंदर भले ही बौध्दिक व अक्षर ज्ञान कम है किंतु वे सदैव चरित्रवान एवं पवित्र जीवन व्यतीत करतीं हैं भारत में स्त्रियों को देवी के स्वरूप में पूजा जाता है जबकि अमेरिकी नारियों का चारित्रिक स्तर काफी ज्यादा गिर गया है। अमेरिका में स्त्री भोगवादी मानसिकता के केंद्र-बिंदु में निवास करती है।
स्वामी विवेकानंद के राजनीतिक विचार:-
स्वामी विवेकानंद के इस संबंध में यह भ्रांति बनी हुई है कि वे केवल सन्यासी धर्म-उपदेशक एवं वेदांती थे, उनका राजनीतिक क्रियाकलापों एवं राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से कोई संबंध नहीं था लेकिन यह वास्तविक नहीं है उन्होंने अपने विचारों से राष्ट्रवाद की भावना को उत्प्रेरित किया और राजनीति से संबंधित अनेकों विचार प्रतिपादित किया जिसका विवरण निम्नलिखित है:-
राष्ट्रवाद का धार्मिक सिद्धांत:-
स्वामी विवेकानंद ने कहा जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख तत्व स्वर होता है वैसे ही हर राष्ट्र में एक प्रधान तत्व हुआ करता है भारत का यह प्रधान तत्व है- धर्म।
अतः उन्होंने वैदिक धर्म द्वारा भारतीयों को आपस में जोड़ कर, भारतीयों के अंदर राष्ट्रवाद की अलख जगाई।
स्वतंत्रता संबंधी अवधारणा:-
स्वामी जी का कहना था कि स्वतंत्रता ही विकास की पहली शर्त है समाज के जिस क्षेत्र में कार्य करने की स्वाधीनता होगी उसी क्षेत्र का विकास दृष्टिगोचर होगा। अतः मनुष्य को मानसिक, शारीरिक व आध्यात्मिक विकास की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
सामानता के पक्षधर:-
स्वामी विवेकानंद समानता के प्रबल पक्षधर थे वे मानते थे कि स्वतंत्रता के लिए समानता का होना आवश्यक है और समानता के लिए विशेषाधिकार की समाप्ति आवश्यक है उन्होंने कहा भी था कि- “जब तक समाज में ऐसा वर्ग पनपता है जिसे विशेष सुविधाएं प्राप्त है तब तक स्वतंत्रता व समानता का वातावरण पैदा नहीं हो सकता”उन्होंने समाज के विशेष वर्गों को दिए गए विशेषाधिकार को हटाने की बात कही ताकि समाज में मानव-मानव के मध्य समानता स्थापित हो सके।
अधिकारों की उपेक्षा कर्तव्य प्रबल-:
स्वामी विवेकानंद मानते थे कि यदि सभी व्यक्ति अपने कर्तव्यों का निष्ठा पूर्वक पालन करें तो उन्हें अपने अधिकार सोता ही प्राप्त हो जाएंगे अतः उन्होंने अधिकारों की तुलना में कर्तव्यों को ज्यादा बल दिया।
देशभक्ति पर विचार:-
स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार देशभक्त होने के लिए तीन बातें आवश्यक है:-
जनसाधारण के प्रति प्यार।
कागजी बातों के स्थान पर, उनकी दशा सुधारने के लिए ठोस कार्यक्रम।
कार्यक्रम को लागू करने के लिए साहस एवं संकल्प।
उन्होंने इस संदर्भ में कहा है कि इन 20 करोड़ भूखे लोगों के बारे में जो सोचेगा मैं उसे महात्मा कहूंगा और जो शिक्षित होकर भी इनके बारे में नहीं सोचता मैं उसे देशद्रोही कहूंगा।
विवेकानंद का समाजवाद:-
स्वामी विवेकानंद वर्गीय समानता के समर्थक थे उनका मानना था कि सभी वर्गों को एक समान माना जाना चाहिए कोई भी वर्ग ऊंचा या नीचा नहीं होता किंतु भारतीय समाज में शूद्र वर्ग ब्रह्मणवादी कुरीतियों के कारण शोषित होता आ रहा है, अतः समाज में समानता स्थापित करने के लिए शोषित वर्ग को शिक्षा का विस्तृत अवसर प्रदान करना चाहिए। ताकि वे अपना उत्थान कर सके और समाज में समानता स्थापित हो सके। अर्थात वे शिक्षा द्वारा समाज में समानता चाहते हैं ना कि कार्ल मार्क्स की भांति क्रांति द्वारा समाज में समानता लाने की बात करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द जी के शिक्षा संबंधी विचार:-
स्वामी विवेकानंद ने तत्कालीन शिक्षा प्रणाली को उपयुक्त नहीं मानते थे, क्योंकि उनके अनुसार वर्तमान शिक्षा प्रणाली ऐसी नहीं है जो मनुष्य के चरित्र का निर्माण करें, बल्कि विद्यार्थी के दिमाग में बहुत सी जानकारी भरकर उसे केवल वाद-विवाद के लिए तैयार किया जाता है।
वे गुरुकुल शिक्षा को उपयोगी मानते थे उनके अनुसार शिक्षा ऐसी हो जो
व्यक्ति को संस्कृति का ज्ञान दे।
व्यक्ति को अनुशासन सिखाए।
व्यक्ति के अंदर धैर्य ,विनम्रता ,आदर , सहिष्णुता,पवित्रता की भावना का विकास करें।
व्यक्ति को आधुनिकता एवं तार्किकता की ओर ले जाए। (इसलिए उन्होंने भारतीय ग्रंथों के साथ अंग्रेजी शिक्षा के अध्ययन पर भी बल दिया)
और इसके लिए वे धार्मिक ग्रंथों की शिक्षा को भी अनिवार्य मानते थे।
स्वामी विवेकानंद का कर्मयोग सिद्धांत:-
स्वामी विवेकानंद का विचार था कि हमें बिना किसी स्वार्थ भाव के अपना कर्म करना चाहिए, यही कर्मयोग है। जैसे- एक सच्चे लोकसेवक को लोकप्रियता हासिल करने या धन्यवाद प्राप्त करने की आशा रखे बिना गरीबों की सेवा करनी चाहिए। और सेवा करने के उपरांत यह भी आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह आपके लिए अच्छा कार्य करेगा।
स्वामी विवेकानंद एवं रामकृष्ण मिशन:-
स्वामी विवेकानंद ने अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस के मानवतावादी एवं वेदांत वादी विचारों का प्रचार प्रसार करने एवं सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जन जागरूकता फैलाने के लिए 1897 में कोलकाता में रामकृष्ण मिशन की स्थापना की जिसके सिद्धांत निम्नलिखित थे:-
प्रत्येक मनुष्य ईश्वर का ही प्रतिरूप है अतः हमें सभी मनुष्य के प्रति प्रेमभाव रखना चाहिए।
मानव सेवा ही सबसे बड़ा धर्म है।
सभी धर्मों का मूल सार मानवता ही है अतः विभिन्न धर्मों के मध्य संघर्ष नहीं बल्कि सामंजस्य होना चाहिए।
हमें किसी भी धर्म की निंदा नहीं करनी चाहिए।
छुआछूत ,जाति प्रथा हिंदूज्म की सबसे बड़ी बुराइयां है इन को समाप्त किया जाना चाहिए।
स्वामी विवेकानंद के सिद्धांतों की प्रशासन ने उपयोगिता:-
स्वामी विवेकानंद के विचार ना सिर्फ युवाओं को प्रेरणा देते हैं ना सिर्फ देशभक्ति की अलख जगाते हैं ना सिर्फ वैदिक संस्कृति की श्रेष्ठता को स्थापित करते हैं बल्कि उनके विचार प्रशासन में भी बहुत ही ज्यादा उपयोगी सिद्ध होते हैं उनके विचारों की प्रशासन में उपयोगिता निम्नलिखित बिंदुओं से देखी जा सकती है:-
कर्म योग सिद्धांत
स्वामी विवेकानंद का मानना है कि व्यक्ति को निस्वार्थ भाव से अपने कर्मों को करना चाहिए, इस सिद्धांत के पालन से प्रशासनिक अधिकारी कर्तव्यनिष्ठ बन सकते हैं।और उनके अंदर अनामिकता की भावना का विकास होगा जो एक प्रशासनिक अधिकारी के लिए आवश्यक है।
जनसेवा:-
स्वामी विवेकानंद ने माना है कि प्रत्येक व्यक्ति ईश्वर का प्रतिरूप है प्रत्येक व्यक्ति की सेवा करना ही ईश्वर की सच्ची सेवा है, अर्थात भी जनसेवा को ही धर्म मानते हैं,
उनके इस सिद्धांत को अपनाकर प्रशासक के अंदर जनसेवा की भावना का विकास होगा और वह अधिकतम जनकल्याण करेगा।
जाति प्रथा अस्पृश्यता का विरोध:-
स्वामी विवेकानंद ने जाति प्रथा छुआछूत का कट्टर विरोध किया है एक सफल प्रशासक को भी जाती प्रथा एवं स्वच्छ मित्र से ऊपर उठकर सभी वर्ग को एक समान समझकर कार्य करना चाहिए।
नारी उत्थान के समर्थक:-
स्वामी विवेकानंद पुरुष और नारी को एक दूसरे का सहयोगी मानते हैं ना कि नारी निम्न दर्जे का मानते हैं और नारी उत्थान का समर्थन करते हैं, एक प्रशासक को भी उनसे सीख ले कर नारी के उत्थान को प्राथमिकता देनी चाहि, ताकि महिलाओं की स्थिति में सुधार आ सके।
वेदांत संस्कृति का समर्थन:-
स्वामी विवेकानंद ने हमारी प्राचीन भारतीय संस्कृति को पूरे विश्व में फैलाया पता एक प्रशासक को अपनी संस्कृति का सम्मान करते हुए उसके विकास के लिए कदम बढ़ाने चाहिए।