शंकराचार्य एवं उनके दर्शन दार्शनिक विचार

[आदि शंकराचार्य]

.शंकराचार्य एवं उनके दर्शन दार्शनिक विचार

शंकराचार्य का जीवन परिचय

अद्वैत वेदांत दर्शन के प्रणेता आदि शंकराचार्य का जन्म लगभग 788 ईसवी में केरल के ‘कालड़ी’ ग्राम में हुआ था, इनके पिता शिवगुरु भी एक ब्राम्हण ही थे। 

माना जाता है कि भी बचपन से ही बहुत ज्ञानी थे लगभग 8 वर्ष की उम्र में सभी वेद कण्ठस्थ कर लिए थे और13 साल की उम्र में उन्होंने शास्त्रार्थ में बड़े-बड़े ऋषि मुनियों को परास्त कर दिया था यहां तक कि उन्होंने काशी के विद्वान पंडित मंडन मिश्र को भी अपने शास्त्रार्थ में पराजित कर दिया था जिसका उल्लेख ‘तत्वोपदेश’ नामक ग्रंथ में मिलता है। उन्होंने अपने अद्वैत वेदांत का प्रचार प्रसार करने के लिए भारत के चार स्थानों में चार मठ की स्थापना की जो निम्न प्रकार है

  • श्रृंगेरी मठ-: रामेश्वरम तमिलनाडू में। 

  • ज्योतिर्मठ-: बद्रीनाथ,उत्तराखंड में। 

  • गोवर्धन मठ-: पुरी, उड़ीसा में। 

  • शारदा मठ-: द्वारका, गुजरात में।

आदि शंकराचार्य के जगत संबंधी विचार

आदि शंकराचार्य ने कहा है कि:- ब्रह्म सत्यं, जगत मिथ्यम्। अर्थात केवल ब्रह्म ही सत्य है और यह जगत मिथ्या या भ्रम है,

आदि शंकराचार्य एकमात्र “ब्रह्म” की सत्ता को स्वीकारते हैं क्योंकि उनके अनुसार ब्रह्म अपरिवर्तनशील, शाश्वत एवं सार्वभौमिक है। तथा यह जगत व्यावहारिक दृष्टि से तो सत् है किंतु परमार्थिक दृष्टि से सत् नहीं है, क्योंकि सत् शाश्वत, नित्य व अपरिवर्तनशील होता है जबकि जगत परिवर्तनशील है इसका विनाश संभव है। अतः यह मिथ्या या भ्रम है। 

जिस प्रकार “स्वप्न” सोते समय सत्य प्रतीत होता है, किंतु वह सत्य या वास्तविक नहीं होता, उसी प्रकार यह ‘जगत’ माया या अज्ञानता के कारण हमें सत्य प्रतीत होता है। किंतु वास्तविक रूप में पारमार्थिक दृष्टि से सत् नहीं है बल्कि स्वप्न की भांति हमारा भ्रम है।

जगत की उत्पत्ति:-

आदि शंकराचार्य के अनुसार इस जगत की उत्पत्ति पंच-भूतों अर्थात- जल ,अग्नि, पृथ्वी, आकाश, वायु से हुई है। तथा इसका निमित्त एवं उपादान दोनों का करण ईश्वर ही है। अर्थात जगत ब्रह्मा की ही ‘मिथ्या प्रतीति’ है। 

आदि शंकराचार्य की ब्रम्ह संबंधी विचार:- 

शंकराचार्य का दर्शन अद्वैतवादी है, अर्थात वे केवल ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार करते हैं उनके अनुसार ब्रह्म के अलावा दूसरा कुछ भी पारमार्थिक सत् नहीं है। 

उन्होंने सत् के तीन रूप बताएं:-

  • प्रतिभासिक सत्

  • व्यवहारिक सत्

  • पारमार्थिक सत्

प्रतिभासिक सत्:- 

वह सत्य जो हमारे भ्रम के कारण क्षणिक रूप से वास्तविक प्रतीत होता है, जैसे- स्वप्न का सत्। 

व्यवहारिक सत्:-

व्यवहारिक रूप में दिखने वाला सत्य, जैसे- व्यवहारिक रुप में जगत की वस्तुएं सत्य प्रतीत होती है। 

पारमार्थिक सत्:-

यह वास्तविक सत्य होता है, जिसकी अनुभूति हमारे अज्ञान की समाप्ति के बाद होती है। जैसे- अहम् ब्रह्मास्मि का सत्। 

ब्रह्म का स्वरूप:-

आदि शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्मा निर्गुण एवं निराकार है अर्थात उनके गुणों की कोई सीमा नहीं है, किंतु हम अपनी अज्ञानता वश ब्राह्म को सगुण एवं साकार मानते हुए यह कहते हैं कि ईश्वर ने ही इस संसार की रचना की है वही इस संसार का पालन कर्ता वह संहर्ता है‌‌। जो केवल व्यवहारिक दृष्टि से सत्य है पारमार्थिक दृष्टि से सत्य नहीं है। 

ब्रह्म के लक्षण:- 

आदि शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म का स्वरूप लक्षण सच्चिदानंद है, अर्थात वह सत्,चित्त, आनंद से युक्त अपरिवर्तनशील व शाश्वत है। 

किंतु हम मायावश व्यवहारिक सत्य द्वारा,उसके आगंतुक (आने-जाने वाले) लक्षणों को ही वास्तविक लक्षण मान बैठते हैं। जैसे- नोट को देखकर यह मानना कि, यही धनसंपदा है जबकि वास्तव में वह कागज का टुकड़ा होता है। 

ब्रह्म अवर्णनीय है

आदि शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म अवर्णनीय है, अर्थात उसका भावनात्मक रूप से मुख द्वारा वर्णन नहीं किया जा सकता है। इसीलिए वह इस संदर्भ में नेति-नेति की बात स्वीकारते हैं। कि- ब्रह्म यह नहीं है ब्रह्म वह भी नहीं है। 

सभी भेदों से परे:-

शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म सभी प्रकार के भेदों से रहित है। 

वेदांत दर्शन के अनुसार भेद तीन प्रकार के होते हैं:-

  • सजातीय भेद:-एक नीली गाय का और लाल गाय के मध्य का भेद। 

  • विजातीय भेद:-गाय और घोड़े के मध्य का भेद। 

  • स्वगत भेद:-गाय के शरीर के अंगों के मध्य का भेद। 

शंकराचार्य के ईश्वर संबंधी विचार:-

आदि शंकराचार्य केवल ब्रह्म की सत्ता को स्वीकारते हुए कहते हैं कि पारमार्थिक दृष्टि से ब्रह्म निर्गुण निराकार है, ब्रह्म के अलावा कुछ भी सत् नहीं है, किंतु अज्ञानता के कारण व्यावहारिक दृष्टि से ब्रह्म के सगुण रूप को ही ईश्वर मान लिया जाता हैै।शंकराचार्य के अनुसार ईश्वर की विशेषताएं:-

  • ईश्वर व्यवहारिक जगत की सर्वोच्च सत्ता है। 

  • ईश्वर सृष्टि का रचयिता, पालनकर्ता एवं संहर्ता है। 

  • ईश्वर ही कर्म-फल नियम का संचालक है। 

  • ईश्वर अनेकों गुणों से युक्त है, अर्थात सगुण है,साकार है। 

  • ईश्वर इस जगत का उपादान एवं निमित्त दोनों कारण है। 

शंकराचार्य के अनुसार ईश्वर की आवश्यकता क्यों है?

शंकराचार्य मानते हैं कि एक सामान्य बुद्धि का व्यक्ति अपनी अज्ञानता वश सीधे निर्गुण निराकार ब्रह्म की सत्ता को नहीं समझ पाएगा, अतः उसे ब्रह्म की सत्ता को समझने के पहले ईश्वर की सत्ता को समझना चाहिए, ताकि उसके अंदर सद्गुणों का विकास हो,उसका मन शुद्ध हो ,वह आध्यात्मिकता की ओर बढ़े जिससे उसे ब्रह्म को समझने की प्रेरणा मिलेगी और वह ब्रह्म को समझने की योग्य बन पाएगा तभी वह ब्रह्म को समझ सकता है। क्योंकि पारमार्थिक सत् को समझने के लिए व्यावहारिक सत् समझना आवश्यक। 

शंकराचार्य का मायावाद:-

शंकराचार्य के अद्वैतवादी दर्शन में माया का विशिष्ट स्थान है, क्योंकि वे अपने दर्शन की व्याख्या, ‘माया’ को तार्किक कुंजी के रूप में उपयोग करते हुए करते हैं। उनके अनुसार केवल ब्रह्म ही एकमात्र सत्य है और जगत मिथ्या है। किंतु माया का प्रभाव ही, परमार्थिक सत्य अर्थात- ब्रह्म की एकमात्र सत्ता को ढककर, जगत की सत्ता का वास्तविक आभास कराता है। जो केवल व्यावहारिक सत्य है वास्तविक सत्य नहीं। 

शंकराचार्य के अनुसार व्यवहारिक दृष्टि से माया ईश्वर की शक्ति है जिसके माध्यम से ईश्वर जगत की लीलाएं करता है, जिस प्रकार एक जादूगर की शक्ति जादू होती है, और उसकी जादू से साधारण या अज्ञानी लोग भ्रमित हो जाते हैं उसी प्रकार माया के प्रभाव से साधारण या अज्ञानी लोग भ्रमित होकर जगत को सत्य मानने लगते हैं। जो कि मिथ्या है।

अतः माया (भ्रम)की समाप्ति अज्ञानता की समाप्ति के साथ ही होती है। 

जब शंकराचार्य ने जगत जीव और ईश्वर को माना ही नहीं है, तो इनकी व्याख्या क्यों की है?

क्योंकि उनका मानना है कि, परमार्थिक ज्ञान का रास्ता व्यवहार से होकर ही जाता है अत: परमार्थिक ज्ञान के लिए व्यवहारिक सत्/ ज्ञान का होना आवश्यक है। 

आदि शंकराचार्य के आत्मा संबंधी विचार:-

आत्मा ब्रह्मा एक है :-

आदि शंकराचार्य केवल ब्रह्म की ही सत्ता को स्वीकारते हुए कहते हैं-: आत्मा और ब्रह्मा में कोई अंतर नहीं होता बल्कि यह दोनों एक ही हैं, किंतु हमारे अज्ञानता के कारण ब्रह्मा और आत्मा को अलग-अलग मान बैठते हैं अर्थात आत्मा को शरीर मारने लगते हैं, हालांकि अज्ञानता के समाप्त होते ही हमें इस परमार्थिक सत् का ज्ञान हो जाता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही है तब हम कहते हैं- “अहम् ब्रह्मास्मि” अर्थात मैं ही ब्रह्म हूं। 

आत्मा शरीर से भिन्न है:-

शंकराचार्य कहते हैं कि आत्मा ही ब्रह्म है जो शरीर एवं इंद्रियों से भिन्न होती है, लेकिन अज्ञानता या मोहवश हम इसे(आत्मा को) शरीर या इंद्रियां मानकर, शरीर के सुख दुख को अपना सुख दुख उसी प्रकार समझ लेते हैं जिस प्रकार एक माता पिता अपने बच्चे के सुख-दुख को अपना सुख-दुख समझते हैं और हम कहते हैं कि:- मैं अंधा हूं, मैं दुखी हूं ,मैं दुर्बल हूं ,मैं मोटा हूं ,मैं पतला हूं। और आत्मा को शरीर मानना ही बंधन का कारण है। 

आदि शंकराचार्य के जीव संबंधी विचार:-

आदि शंकराचार्य का मूल्य कथन है”ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या जीवो ब्रह्म न परा” अर्थात ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है, जीव ही ब्रह्म है वह ब्रह्म से प्रथक नहीं है। किंतु हमारी अज्ञानता या माया के कारण ही भिन्न-भिन्न जीव दिखाई देते हैं। लेकिन अविधा या माया का प्रभाव समाप्त होते ही जीव एवं ब्रह्मा में एकता स्थापित हो जाती है तब व्यक्ति कहने लगता है:- “अहम् ब्रह्मास्मि”। 

आलोचना:-

आदि शंकराचार्य का जहां एक और यह मानना है कि जीव ही ब्रह्म होता है, वहीं दूसरी ओर वे यह मानते हैं कि ब्रह्म निर्गुण एवं निराकार होता है , तो फिर हमें जीव जो कि ब्रह्म है उसका आकार क्यों दिखाई देता है? 

बंधन और मोक्ष संबंधी विचार:-

आचार्य शंकर के अनुसार जब हम अज्ञान के कारण, अपनी आत्मा (स्वयं) का शरीर एवं इंद्रियों से संबंध स्थापित करके, शरीर या इंद्रियों के सुख दुख को स्वयं का सुख दुख समझने लगते हैं तो यही बंधन कहलाता है। 

और इसके विपरीत जब हमारे अज्ञान का विनाश हो जाता है तो हमें आत्मज्ञान द्वारा यह वास्तविक अनुभूति होती है कि हम स्वयं ब्रह्म हैं(अहम् ब्रह्मास्मि) तब हम बंधन मुक्त हो जाते हैं, यही मोक्ष है। अर्थात अज्ञानता की समाप्ति होना और आत्मज्ञान होना ही मोक्ष है। 

इस प्रकार शंकराचार्य के अनुसार शरीर नष्ट होने के पहले और शरीर नष्ट होने के बाद भी मोक्ष प्राप्ति संभव है। 

उनके अनुसार मोक्ष प्राप्ति के साधन निम्नलिखित हैं:-

  • नित्यानित्यवस्तुविवेक :- साधक को सर्वप्रथम नित्य एवं अनित्य वस्तुओं के बीच के अंतर का वास्तविक ज्ञान लेना चाहिए, जैसे- शरीर अनित्य है ब्रह्म ही नृत्य है। 

  • काम-वासनाओं से मुक्त :-साधक को लौकिक और अलौकिक भोग की कामना से मुक्त होना चाहिए। 

  • शमदमादि साधना :- साधक को सम दम आदि निम्न 6 गुणों से युक्त होना चाहिए:-

    • शम:- मानसिक संयम होना चाहिए

    • दम:- इंद्रियों पर नियंत्रण होना चाहिए

    • श्रद्धा:- शास्त्रों पर विश्वास एवं आस्था होनी चाहिए

    • समाधान:- मन को ज्ञान प्राप्ति की ओर एकाग्रित करने का गुण होना चाहिए

    • उपरति:- विषय वासनाओं से दूर रहना चाहिए

    • अतिरक्षा:- सर्दी गर्मी को बर्दाश्त करना। 

  • मुमुक्षुत्व:- मोक्ष प्राप्त करने की तीव्र इच्छा होनी चाहिए। 

जब साधक उपरोक्त सभी शर्तो का पालन कर लेता है तो इसके बाद उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ गुरु के चरणों में उपस्थित होना चाहिए, तथा गुरु के उपदेशों को ध्यान पूर्वक सुनना चाहिए मनन करना चाहिए, स्वयं को ब्रह्म से जोड़ने का अभ्यास करना चाहिए, इस प्रक्रिया से गुजरने के उपरांत साधक को आत्मज्ञान प्राप्त हो जाता है और कह उठता है -: अहम् ब्रह्मास्मि। अर्थात वह ब्रह्मा में विलीन हो जाता है और उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है। 

मूल्यांकन:- 

आदि शंकराचार्य व्यावहारिक जगत से भिन्न, केबल ब्रह्म की सत्ता पर विश्वास रखते थे, उनका मन्नत है यह जगत मिथ्या है ब्रह्म ही सत्य है, जो वर्तमान दृष्टि से अव्यवहारिक है, किंतु वह सभी को ब्रह्म मानते थे किसी को जाति ,धर्म ,लिंग,क्षेत्र आदि के आधार पर किसी को भी ऊंचा नीचा नहीं समझती थी सभी को ब्रह्म समझते थे अर्थात उनका दर्शन सर्वोच्च समानता पर आधारित था। 

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