पृथ्वी की उत्पत्ति-:
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Toggleहम पृथ्वी में रहते हैं तथा पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके ही हम अपनी सभ्यता का संचालन करते हैं, अर्थात पृथ्वी हमारे जीवन का आधार है। किंतु अभी तक प्रमाणित तौर पर, हमें यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि पृथ्वी की उत्पत्ति कैसे हुई ?
पृथ्वी की उत्पत्ति के संदर्भ में विभिन्न धर्म-शास्त्रों , दर्शनिकों तथा भू-वैज्ञानिकों ने अलग-अलग संकल्पना प्रतिपादित की है जैसे-:
हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार पृथ्वी की उत्पत्ति ब्रह्मा द्वारा की गई।
थेल्स नामक दार्शनिक ने कहा कि पृथ्वी की उत्पत्ति जल से हुई है और पृथ्वी की समस्त वस्तुएं जल में ही समा जाएंगी।
इमानुएल कांट एवं लाप्लास की निहारिका संकल्पना।
चैम्बरलिन एवं माल्टन ग्रहाणु परिकल्पना।
किंतु वर्तमान में इन सभी संकल्पनाओं में निम्न तीन संकल्पनाएं सर्वाधिक मान्य एवं प्रचलित है।
लाप्लास की निहारिका संकल्पना।
चैम्बरलिन एवं माल्टन ग्रहाणु परिकल्पना।
जार्ज लैमेत्रै का बिग बैंक (महा विस्फोटक)सिद्धांत
जिसका विवरण अग्रो लिखित है-:
लाप्लास की निहारिका संकल्पना-:
ग्रहों की उत्पत्ति के संदर्भ में निहारिका परिकल्पना 1796 में लाप्लास नामक विद्वान ने प्रस्तुत की किंतु इस परिकल्पना की नींव इमानुएल कांट ने रखी थी।
इस परिकल्पना के अनुसार -: पृथ्वी की उत्पत्ति गैस (H,He)तथा धूल से बनी निहारिका द्वारा हुई है।
लाप्लास महोदय ने बताया कि-:
ब्रह्मांड में पहले से ही धीमी गति से घूमने वाली निहारिका मौजूद थी ,जो काफी ज्यादा तप्त थी
किंतु उसका बाहरी भाग का ऊष्मा विकिरण होने से उसके तापमान का ह्रास होने लगा और वह धीरे धीरे ठंडी एवं संकुचित होती गयी,
जिससे निहारिका के आकार में कमी एवं गति में तीव्र वृद्धि हुई।
परिणाम स्वरूप निहारिका में अपकेंद्रीय बल प्रभावी हुआ,
तथा अपकेंद्रीय बल के प्रभाव से निहारिका का कुछ बाहरी छल्ला निहारिका के केंद्र से अलग हुआ
इसके बाद निहारिका के केंद्र से अलग हुए गैसीय छल्ले, पिंडों के रूप में संगठित होकर केंद्र के चारों ओर ग्रहों और उपग्रहों के रूप में घूमने लगे।
तथा निहारिका का केंद्र वर्तमान सूर्य का रूप धारण कर लिया।
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निहारिका सिद्धांत के गुण
निहारिका सिद्धांत यह बताता है कि सौर मंडल के सभी ग्रह एक ही निहारिका से उत्पतित हुए हैं और नासा की रिपोर्ट के अनुसार यह बात सत्य भी है कि सभी ग्रहों की उत्पत्ति लगभग एक सामान तत्व से हुई है।
निहारिका सिद्धांत से पृथ्वी व अन्य ग्रहों द्वारा सूर्य की परिक्रमा करने का कारण स्पष्ट होता है।
निहारिका परिकल्पना से यह भी स्पष्ट होता है कि सभी ग्रह एक ही तल पर अपने कक्ष में क्यों गतिशील है।
निहारिका परिकल्पना की आलोचना/दोष-:
निहारिका परिकल्पना में यह नहीं बताया गया कि निहारिका के कण कहां से आए।
निहारिका परिकल्पना में बताया गया है कि निहारिका का भाग छल्ले के रूप में अलग हुआ जिससे ग्रहों की उत्पत्ति हुई, किंतु निहारिका में कोणीय संवेग की इतनी गति नहीं थी कि उसे छल्ला निकलकर अलग हो सके।
निहारिका परिकल्पना के अनुसार ग्रहों की उत्पत्ति निहारिका से हुई है अतः ग्रहों को द्रव रूप में होना चाहिए
किंतु ग्रह ठोस रूप में है इसका क्या कारण है यह नहीं बताया गया।
निहारिका परिकल्पना के अनुसार सभी ग्रहों को एक ही दिशा में घूमना चाहिए किंतु शुक्र ग्रह अरुण बृहस्पति के तीन ग्रह विपरीत दिशा में घूमते हैं।
इस परिकल्पना में यह नहीं बताया गया कि नौ ग्रह क्यों बने और ज्यादा कम क्यों नहीं?
चैम्बरलिन एवं माल्टन ग्रहाणु परिकल्पना
ग्रहों की उत्पत्ति के संदर्भ में ग्रहाणु परिकल्पना चैंबर्लिन एवं माल्टन नामक वैज्ञानिक ने प्रस्तुत की थी।
इस सिद्धांत के अनुसार-:
ग्रहों की उत्पत्ति एक तारे या एक निहारिका या एक तारे से नहीं बल्कि, दो तारों की आकर्षण शक्ति के प्रभाव से हुई है।
चैंबर्लिन एवं माल्टन नामक वैज्ञानिक ने बताया कि-: सूर्य के निकट से एक भारी भ्रमणशील तारा गुजरा, और चूंकि उसके गुरुत्वाकर्षण बल सूर्य से काफी अधिक था, अतः उस भ्रमणशील तारे की आकर्षण शक्ति के कारण सूर्य में शिगार के आकार का उभार आया, और सूर्य के कुछ गैसीय छल्ले सूर्य से अलग होकर ग्रहाणु के रूप में बिखर गए, और फिर एक ग्रहणु पिंडो के रूप में संगठित होकर ग्रह एवं उपग्रहों के रूप में सूर्य के चारों ओर घूमने लगे।
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ग्रहाणु परिकल्पना की आलोचना-:
इस सिद्धांत में यह नहीं बताया गया कि सूर्य और भ्रमणशील तारा कहां से आया
इस सिद्धांत के अनुसार ग्रहों की उत्पत्ति बड़े भ्रमणशील तारा के आकर्षण से ,सूर्य के अंश के अलग होने से हुई है किंतु इस सिद्धांत में यह नहीं बताया गया कि ग्रहाणु से बने ग्रह घूमने कैसे लगे?
नौ ग्रह ही क्यों बने, ज्यादा कम क्यों नहीं ?
इस सिद्धांत के अनुसार ग्रह सदैव से ठोस थे किंतु वर्तमान खोजों से स्पष्ट होता है कि प्रारंभ में पृथ्वी तरलअवस्था में थी।
महा विस्फोटक सिद्धांत-:
ब्रह्मांड एवं ब्रह्मांड की उत्पत्ति के संदर्भ में सर्वाधिक मान्य सिद्धांत महाविस्फोटक सिद्धांत है। इस सिद्धांत का प्रतिपादन 1920 में जार्ज लैमैनत्रे ने किया था। आगे चलकर 1976 में राबर्ट वेगनर ने इस सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की।
इस सिद्धांत के अनुसार-:
आज से करीब 14 बिलियन वर्ष पूर्व संपूर्ण ब्रह्मांड एक सूक्ष्म आकार के बिंदु में सिमटा हुआ था। और इस सूक्ष्म आयतन के बिंदु में अत्यंत व्यापक उर्जा एवं तापमान था किंतु 13.7 बिलियन वर्ष पूर्व उस अनंत ऊर्जा से भरे सूक्ष्म बिंदु में भयंकर विस्फोट हुआ जिससे बिग-बैंग घटना के नाम से जाना जाता है।
और इस बिग-बैग घटना के बाद उस बिंदु की ऊर्जा का लगातार विस्तार होता गया तथा जिससे उसका तापमान भी कम होता गया, परिणाम स्वरूप वह ऊर्जा विस्तारित होकर पिंडों के रुप में संघनित हुई, जिससे तारों एवं गृह का निर्माण हुआ।
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पृथ्वी की आयु-:
हम पृथ्वी में रहते हैं तथा पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग करके ही हम अपनी सभ्यता का संचालन करते हैं, अर्थात पृथ्वी हमारे जीवन का आधार है। किंतु अभी तक प्रमाणित तौर पर, हमें यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि पृथ्वी की वास्तविक आयु कितनी है ?
हालांकि पृथ्वी की आयु निर्धारण के संबंध में धार्मिक ग्रंथों ,दार्शनिकों तथा विज्ञानियों द्वारा विभिन्न संकल्पनाएं प्रतिपादित की गई,
जैसे-:
मनुस्मृति के अनुसार पृथ्वी की आयु 1.97 अरब वर्ष पूरी मानी गई है।
अवसादों के निक्षेपन की दर के आधार पर पृथ्वी की आयु 40 करोड़ वर्ष पूर्व मानी गई।
रेडियोएक्टिव विधियों की अनुसार पृथ्वी की आयु 4.5 अरब वर्ष पूर्व मानी गई।
इनमें से सर्वाधिक मान्य एवं तर्कयुक्त संकल्पनाएं अग्रोलिखित हैं-:
अवसाद निक्षेपण की दर के आधार पर-:
इस संकल्पना का प्रतिपादन 1882 में अर्कबाल्ड ने किया था, इसके अनुसार-: प्रारंभ में पृथ्वी की सतह का आधार कठोर आग्नेय चट्टानों से निर्मित था, किंतु धीरे-धीरे कठोर आधार चट्टानों के ऊपर लगातार अनेकों अवसादो का निक्षेपण होता आ रहा। जिससे अवसादों की मोटाई लगातार बढ़ती जा रही है।
अतः इन अवसादों की मोटाई में वृद्धि के आधार पर पृथ्वी की आयु की गणना की जा सकती है।
इसके लिए निम्न सूत्र का उपयोग किया जाता है-:
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पृथ्वी के शीतलन दर के आधार पर
इस संकल्पना का प्रतिपादन 19वीं सदी में लॉर्ड केल्विन ने किया था।
इसके अनुसार प्रारंभिक अवस्था में पृथवी अत्यधिक तप्त (4500 कैल्विन)एवं तरल अवस्था में थी, पृथ्वी का तापमान घटता गया पृथ्वी के तापमान घटने अर्थात पृथ्वी के शीतलन की दर के आधार पर पृथ्वी की आयु की गणना की जा सकती है ,इसके लिए निम्न सूत्र का उपयोग किया जाता है
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महासागरों की लवणता के आधार पर-:
इस संकल्पना का प्रतिपादन 1898 में एडवर्ड हेली एवं जाली महोदय ने किया था।
इस सिद्धांत के अनुसार प्रारंभिक अवस्था में महासागरों का जल मीठा था, किंतु बाद में नदियों के अवसाद युक्त जल मिलने तथा महासागरों में वाष्पीकरण की प्रक्रिया के कारण, महासागरीय जल की लवणता लगातार बढ़ती गयी। अतः लवणता की बढ़ने की दर के आधार पर पृथ्वी की आयु ज्ञात की जा सकती है।
इसके लिए निम्न सूत्र का उपयोग किया जाता है-:
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रेडियो मैट्रिक डेटिंग -:
वर्तमान समय में रेडियोमेट्रिक डेटिंग पृथ्वी तथा किसी भी चट्टान की आयु का निर्माण करने की सबसे प्रमाणित विधियां हैं।
रेडियोमेट्रिक डेटिंग के अंतर्गत किसी भी शैल(पिण्ड) की आयु की गरण उस शैल में मौजूद रेडियोएक्टिव समस्थानिकों(यूरेनियम 238 ,यूरेनियम 235, थोरियम 232) के अणुओं में आयी अनुपातिक कमी या दूसरे तत्व में परिवर्तन के आधार पर ज्ञात की जाती है।
उदाहरण के लिए-:
यदि किसी पिंड में उपस्थित यूरेनियम-238 के अणुओं का आधा भाग सीसा में परिवर्तित हो जाता है, तो उस पिंड की आयु लगभग 449.8 करोड वर्ष मानी जाएगी क्योंकि-: यूरेनियम-238 की अर्ध आयु 449.8 करोड वर्ष है।
रेडियोमेट्रिक डेटिंग के अंतर्गत निम्न विधियों का उपयोग किया जाता है-:
यूरेनियम सीसा विधि-:
इसके अंतर्गत किसी भी पिंड की आयु ज्ञात करने के लिए यह देखा जाता है कि उस पिंड में मौजूद यूरेनियम 238 या यूरेनियम 235 का ,अनुपातिक रूप से कितना भाग शीशा में परिवर्तित हुआ है। और इस आधार पर उसकी आयु की गणना की जाती है। यूरेनियम238 तथा यूरेनियम 235 की अर्ध आयु क्रमशः 449.8 करोड़ वर्ष एवं 71.3 करोड़ वर्ष है।
थोरियम शीशा विधि-:
इसके अंतर्गत किसी भी पिंड की आयु ज्ञात करने के लिए यह देखा जाता है कि उस पिंड में मौजूद थोरियम 232 का ,अनुपातिक रूप से कितना भाग शीशा में परिवर्तित हुआ है। और इस आधार पर उसकी आयु की गणना की जाती है। थोरियम 232 की अर्ध आयु 13.9 करोड़ वर्ष है।
अर्थात यदि किसी पिंड में थोरियम 232 का आधा भाग शीशा में परिवर्तित हो जाता है तो इसका अर्थ है कि उस पिंड की आयु 13.9 करोड़ वर्ष है।
पोटेशियम आर्गन विधि.
और रेडियो मैट्रिक डेटिंग के आधार पर पृथ्वी की आयु 450 करोड़ वर्ष पूर्व मानी जाती है।
अर्ध आयु-:
अर्धआयु वह कालखंड होता है जिसमें किसी चट्टान में निहित कुल रेडियो सक्रियता का आधा भाग दूसरे तत्व में परिवर्तित हो जाता है।
जैसे uranium-238 का अर्धआयु काल 449.8 करोड़ वर्ष है.
अर्थात यदि किसी पिंड में यूरेनियम 238 का आधा भाग शीशा में परिवर्तित हो जाता है पुलिस का अर्थ है कि उस पिंड की आयु 449.8 करोड वर्ष है।