[स्थल मंडल एवं जल मंडल]
This page Contents
Toggleपृथ्वी के स्थलमंडल जलमंडल और वायुमंडल का विकास-:
वैज्ञानिकों के अनुसार हमारी पृथ्वी का निर्माण आज से करीब 4.5 बिलीयन ईयर्स एगो हुआ था, किंतु उस समय पृथ्वी सूर्य की भांति बहुत ज्यादा तप्त एवं लावा की भांति अर्थ तरल अवस्था में थी, तथा उस समय पृथ्वी में ना तो रहने के लिए कठोर स्थल था, ना पीने के लिए जल था, और ना ही सांस लेने के लिए ऑक्सीजन युक्त वायु मौजूद थी अतः उस समय जीवो का विकास संभव ना था।
किंतु उष्मा विकिरण के कारण पृथ्वी की बाहरी परत धीरे-धीरे ठंडी होती गई। परिणाम स्वरूप पृथ्वी की बाहरी सतह का लावा संकुचित होकर तरल अवस्था से ठोस अवस्था में परिवर्तित हो गया और हमारे स्थलमंडल का निर्माण हुआ,
तथा पृथ्वी के लावा के ठंडे होने की प्रक्रिया के दौरान, लावा से जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन ,अमोनिया तथा नाइट्रोजन गैस उत्सर्जित हुईं इस प्रक्रिया को degassing कहते हैं। जिससे वायुमंडल का निर्माण हुआ किंतु इस वायुमंडल में ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में मौजूद नहीं थी,
इसके बाद जलवाष्प के संघनन से बादल बनी और भयंकर वर्षा हुई जिससे जल मंडल का निर्माण हुआ। तथा सूर्य से आने वाली यूवी किरणों ने जल को हाइड्रोजन और ऑक्सीजन में तोड़ा जिससे वायुमंडल में व्यापक मात्रा में हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन गैस व्याप्त हुई। और वर्तमान वायुमंडल का निर्माण हुआ।
जैवमंडल का विकास-:
और जब पृथ्वी में स्थलमंडल, वायुमंडल, जलमंडल का विकास हो गया तो पृथ्वी जीवो के रहने योग्य बन गई और पृथ्वी में जीवो का विकास हुआ। जिससे जैव मंडल बना।
जलमंडल-:
जलमंडल का तात्पर्य पृथ्वी में मौजूद समस्त जलराशि से है। वह जल राशि किसी भी रूप में हो सकती है जैसे-: महासागर ,समुद्र, झील ,तालाब ,नदी नाले, भूमिगत जल, हिमानी,वायुमंडल में उपस्थित जलवाष्प एवं नमी।
जल का वितरण
संपूर्ण धरातल के लगभग 71% भाग पर जल पाया जाता है तथा केवल 29% भाग पर ही स्थल पाया जाता है पृथ्वी को “जलीय ग्रह” भी कहा जाता है।
संपूर्ण धरातल का लगभग 97.5% जल लवणीय(खारा) है जो महासागर एवं सागरों में पाया जाता है, तथा शेष 2.5% जल ही अलवणीय या मीठा जल है।
किंतु इस 2.5 प्रतिशत अलवणीय जल का लगभग 68% (कुल जल का 2%)जल हिमानी के रूप जमी हुई अवस्था में है। और शेष 30% जल भूमिगत जल के रूप में, और शेष 1 प्रतिशत जल सतही जल अर्थात नदियों और झीलों के रूप में है।
.
इस प्रकार धरातल में उपलब्ध कुल जल का लगभग 1% से भी कम जल (जो भूमिगत जल या सतही जल के रूप में है) का मनुष्य एवं अन्य पेड़ पौधे तथा जीव जंतु उपयोग कर सकते हैं।
.
पृथ्वी में पानी की कुल उपलब्धता
पृथ्वी नहीं पानी की कुल उपलब्धता 333 मिलियन क्यूबिक मील(1386 मिलियन क्यूबिक किलोमीटर) है।
तथा प्रति व्यक्ति शुद्ध पीने योग्य जल की उपलब्धता लगभग 5500 घन मीटर है।
जलमंडल का महत्व-:
जल सभी जीव जंतुओं के जीवन का आधार है इसके बिना कोई भी जी परंतु जीवित नहीं रह सकते।
जल के महत्व को हम निम्न बिंदुओं से समझ सकते हैं।
जल हमारे जीवन का आधार है-: क्योंकि प्रत्येक जीव शरीर को इस काम से बना होता है और कोशिकाओं का लगभग 70%-80% भाग जल से बना होता है अतः इसके बिना कोशिकाएं समाप्त हो जाएंगी और जीवन भी समाप्त हो जाएगा।
घरेलू कार्यों के लिए आवश्यक-: खाना बनाने, साफ सफाई करने के लिए जल की आवश्यकता होती है।
कृषि कार्य में उपयोगी-: जल केवल मनुष्य के लिए नहीं बल्कि पेड़ पौधों के लिए भी आवश्यक होता है फसल के विकास के लिए जल की आवश्यकता होती है।
औद्योगिक गतिविधियों के लिए आवश्यक-: उद्योगों में विभिन्न रसायनों एवं वस्तुओं को बनाने के लिए जल की आवश्यकता होती है जैसे -:कागज मिल।
जलीय जीवो का अधिवास-: जल मछली, मगरमच्छ तथा प्रोटिस्टा वर्ग के जीवों का निवास स्थान होता है इसके बिना जलीय जीवों का अस्तित्व समाप्त हो जाता है
जल संसाधन के प्रमुख स्त्रोत-:
महासागरीय जल-: महासागरों में पाया जाने वाला लवणीय जल महासागरीय जल कहलाता है, इस जल का मुख्य स्त्रोत महासागर एवं खाड़ी जैसे-: प्रशांत महासागर ,अटलांटिक महासागर , हिंद महासागर,बंगाल की खाड़ी है।
पृष्ठीय जल-: धरातल की सतह पर पाया जाने वाला जल पृष्ठीय जल कहलाता है, इसके मुख्य स्त्रोत -:नदी ,झीलों तालाब आदि हैं।
भूमिगत जल-: भूमि के अंदर पाया जाने वाला जल भूमिगत जल कहलाता है, भूमिगत जल का मुख्य स्त्रोत भूमि द्वारा अवशोषित किया गया वर्षा का जल तथा हिमानी के पिघलने से प्राप्त जल है।
वायुमंडलीय-: वह जल जो वायुमंडल में जलवाष्प के रूप में पाया जाता है उसे वायुमंडलीय जल कहते हैं इस जल का मुख्य स्त्रोत वाष्पीकरण से प्राप्त जल है।
महासागरीय विज्ञान-:
Oceanography भूगर्भ शास्त्र की वह शाखा है जिसके अंतर्गत महासागर से संबंधित अध्ययन किया जाता है।
महासागर का तात्पर्य लवणीय जल की व्यापक या विशाल जल राशि से है। जो जलमंडल का प्रमुख भाग होते हैं। हमारी पृथ्वी में निम्न पांच महासागर हैं -:
प्रशांत महासागर
अटलांटिक महासागर
हिंद महासागर
अंटार्कटिक महासागर
आर्कटिक महासागर।
.
इन पांच महासागरों में संपूर्ण धरातल का लगभग 97% जल मौजूद है।
महासागरीय नितल के उच्चावच-:
महासागरीय नितल का तात्पर्य महासागर के आधार तल या पेंदी से है, महासागर का तल समतल नहीं है, बल्कि उसके तल में भी धरातल की भांति अनेकों उच्चावच मौजूद है जिसकी पुष्टि सोनार तकनीक से होती है।
महासागरीय नितल की उच्चावचों को चार भागों में बांटा जा सकता है-:
महाद्वीपीय निमग्न तट
महाद्वीपीय ढाल
महासागरीय मैदान
महासागरीय गर्त।
महाद्वीपीय निमग्न तट-:
सागरीय तट के समीपवर्ती उथले एवं जलमग्न भाग को महाद्वीपीय निमग्न तट कहते हैं।
इसका ढाल 1 से 3 डिग्री होता है
इसकी औसतन गहराई 150 से 200 मीटर तक होती है तथा औसतन चौड़ाई 70 किलोमीटर होती है, किंतु इसकी चौड़ाई भिन्न-भिन्न हो सकती है सामान्यतः यदि तट के किनारे पर्वत श्रेणी पाई जाती है तो वहां के महाद्वीपीय निमग्न तट की चौड़ाई कम होगी इसके विपरीत यदि तट के किनारे मैदान पाए जाते हैं तो वहां के महाद्वीपीय निमग्न तट की चौड़ाई अधिक होगी।
महाद्वीपीय निमग्न तट का निर्माण मुख्यतः नदियों द्वारा बहा कर लाए गए अवसादो के निक्षेपण से होता है, अतः महाद्वीपीय निमग्न तट में व्यापक मात्रा में पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस जीवाश्म ईंधन पाए जाते हैं।
इसका विस्तार महासागरों के समस्त क्षेत्रफल के 8.6% भाग पर है।
महाद्वीपीय ढाल-:
महाद्वीपीय निमग्न तट के नीचे अपेक्षाकृत की तीव्र ढाल वाली जलमग्न समुद्री सतह पाई जाती है जिसे महाद्वीपीय ढाल कहते हैं।
महाद्वीपीय ढाल औसतन 2 डिग्री से 5 डिग्री ढलान वाला होता है
महादीपीय ढाल की औसतन गहराई 200 से 2000 मीटर तक होती है,
इसका विस्तार समस्त महासागरीय क्षेत्रफल के 8.5% भाग पर है।
गहरे सागरीय मैदान-:
यह समुद्र के अंदर जल मग्न समतल मैदान होते हैं
इनकी औसतन गहराई 3000 मीटर से 6000 मीटर तक होती है।
महासागरीय मैदान में ही गुआट, पर्वत, खाई,कटक आदि पाए जाते हैं।
इनका विस्तार समस्त महासागरीय भाग के लगभग 75% हिस्से पर हैं।
महासागरीय गर्त-:
यह महासागर के सबसे गहरे भाग होते हैं जिनकी गहराई 5500 से मीटर से भी अधिक होती है ,मेरियाना गर्त विश्व का सबसे गहरा गर्त है जिसकी गहराई 11033 मीटर है।
इनका विस्तार समस्त महासागर क्षेत्रफल के 7% भाग पर है।
.
नितल पहाड़ियां-: समुद्र के अंदर पाई जाने वाली पहाड़ियां।
गुआट-: चपटे या सपाट शिखर वाले समुद्री पर्वत।
कटक(ridge)-: महासागरों में जलमग्न हजारों किलोमीटर लंबी पर्वत श्रेणी, कटक कहलाती है इसका निर्माण प्लेट विवर्तनिकी की क्रिया द्वारा मेग्मा के निकलकर जमने से होता है।
.
महासागरीय जल-:
महासागरीय जल का तापमान
महासागरीय जल की लवणता
महासागरीय जल का घनत्व
महासागरीय जल का तापमान-:
तापमान महासागरीय जल का एक महत्वपूर्ण भौतिक गुण है, तथा महासागरीय जल के तापमान का मुख्य स्त्रोत सूर्य होता है,
महासागरीय जल की ऊपरी सतह का औसतन तापमान 20 डिग्री सेल्सियस होता है। तथा इसका औसतन दैनिक तापांतर 1 डिग्री सेल्सियस से भी कम होता है।
महासागरीय तापमान का वितरण-:
महासागरीय तापमान का क्षेतिज(horizontal) वितरण-:
सामान्यतः विषुवत रेखीय क्षेत्र (5°N-5°S) में समुद्री सतह का तापमान लगभग 25 डिग्री सेल्सियस रहता है किंतु भूमध्य रेखा से , ध्रूवों की ओर जाने पर सूर्य की किरने तिरछी पड़ने के कारण, सागरी जल की सतह का तापमान लगभग 0.5 डिग्री सेल्सियस/ प्रति अक्षांश की दर से लगातार घटता जाता है,और ध्रुवीय क्षेत्रों में समुद्री जल की सतह का तापमान 0 डिग्री सेल्सियस हो जाता है।
.
हालांकि कर्क रेखा और मकर रेखा के पास समुद्री जल का तापमान भूमध्य रेखा से भी अधिक होता है, क्योंकि भूमध्य रेखीय क्षेत्र में शाम को बारिश हो जाने से शीतलता के कारण यहां पर तापमान कम हो जाता है।
महासागरीय जल के तापमान का लंबवत वितरण-:
समुद्र का जल मुख्यता सूर्य की किरणों से तप्त होता है, अतः समुद्र की सबसे ऊपरी परत निचली परत की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक गर्म होती है, अर्थात
सामान्यतः समुद्री जल में गहराई बढ़ने के साथ-साथ तापमान में भी कमी आती जाती है, किंतु गहराई के साथ तापमान ह्रास दर एक समान नहीं होती, बल्कि लगभग 200 मीटर की गहराई तक तापमान ह्रास दर बहुत कम होती है, अतः 200 मीटर तक की गहराई की परत को समताप परत कहते हैं, किंतु 200 मीटर से 1000 मीटर तक की गहराई में तापमान ह्रास दर तीव्र होती है अतः इस परत को ताप प्रवणता परत कहते हैं और फिर 1000 मीटर से नितल तक की तापमान ह्रास दर कम होती है इसे उप समताप परत कहते हैं।
किंतु समुद्र के सबसे नीचे तल में कभी भी तापमान 0 डिग्री सेल्सियस नहीं होता।
.
हालांकि ध्रुवीय क्षेत्रों में महासागरों की सबसे ऊपरी परत का तापमान बर्फ के पिघलने के कारण कम होता है तथा नीचे का तापमान अधिक होता है।
समुद्री जल के तापमान को प्रभावित करने वाले कारक-:
अक्षांशीय स्थिति-: निम्न अक्षांश के क्षेत्रों में समुद्री जल पर सूर्य की किरणें सीधी पड़ने के कारण समुद्री जल को अधिक ऊष्मा प्राप्त होती है जिससे यहां का तापमान अधिक होता है, इसके विपरीत उच्च अक्षांश क्षेत्रों में सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने पर यहां के जल का तापमान अपेक्षाकृत कम होता है।
जल एवं स्थलखंडों की स्थिति-: जिस क्षेत्र में स्थलखंड अधिक होता है उस क्षेत्र के समुद्रों का जल अधिक गर्म होता है क्योंकि गर्म स्थलीय भाग की ऊष्मा का महासागरीय जल में प्रसार होता है, यही कारण है की उत्तरी गोलार्ध में स्थल खंड की अधिकता होने के कारण उत्तरी गोलार्ध के महासागरों का तापमान अधिक होता है जबकि दक्षिणी गोलार्ध के महासागरों का तापमान अपेक्षाकृत कम होता है।
इसी प्रकार लगभग 2400 मीटर की गहराई पर हिंद महासागर के जल का तापमान 15 डिग्री सेल्सियस होता है, वहीं लाल सागर का तापमान 21 डिग्री सेल्सियस होता है क्योंकि लाल सागर चारों तरफ से स्थल से घिरा हुआ, जबकि हिंद महासागर खुला सागर है।
वर्षा एवं बर्फ का पिघलना-: जिन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है या बर्फ पिघल कर समुद्र में मिलती है उस क्षेत्र के समुद्र का जल अपेक्षाकृत कम गर्म होता है। यही कारण है कि भूमध्य रेखा सागरीय जल कर्क रेखा से भी ठंडा होता है क्योंकि यहां रोजाना वर्षा होती है।
लवणता-: लवणता और तापमान का सीधा संबंध होता है जिस सागरीय जल में लवणता अधिक होती है उस जल का तापमान भी अधिक होता है क्योंकि लवणीय जल अधिक ऊष्मा अवशोषित कर लेता है।
महासागरीय धाराएं-:
महासागरीय जलधाराएं भी महासागरीय जल के तापमान को प्रभावित करती है
जिस महासागरीय क्षेत्र में भूमध्य रेखीय क्षेत्र से आने वाली अपेक्षाकृत गर्म जलधारा बहती है उस क्षेत्र का तापमान अधिक रहता है इसके विपरीत जिस क्षेत्र में ध्रुवों से आने वाली ठंडी जलधारा बहती है वहां का तापमान कम रहता है।
उदाहरण के लिए-: गल्फ स्ट्रीम जलधारा के कारण नॉर्वेजियन सागर का जल आसपास के ज़ल की तुलना में अधिक गर्म रहता है।
महासागरीय लवणता-:
महासागरीय जल में घुले हुए लवणों की मात्रा को, महासागरीय लवणता कहते हैं।
महासागरीय लवणता को प्रति 1000 ग्राम जल में उपस्थित लवणों की मात्रा के रूप में व्यक्त किया जाता है।
महासागरों की औसतन लवणता 35 %°(प्रति हजार) होती है अर्थात 1000 ग्राम महासागरीय जल में लगभग 35 ग्राम लवण होते हैं।
महासागर की लवणों में सर्वाधिक मात्रा सोडियम क्लोराइड (77%) की,तथा इसके बाद मैग्निशियम क्लोराइड(11%) होती है।
महासागरों की लवणता के स्त्रोत
महासागरीय लवणता के मुख्यतः दो ही स्त्रोत है
नदियों द्वारा बहा कर लाये गये लवणीय मलवे का महासागरों में निक्षेपण।
महासागरीय क्षेत्र में ज्वालामुखी उद्गार से निकले लवणों का महासागरों में घुलना।
जल चक्र के कारण महासागरों की लवणता समय के साथ लगातार बढ़ती जाती है, क्योंकि जल चक्र के दौरान महासागरों का केवल गैर लवणीय जल ही वाष्पीकृत होता है जिससे महासागरों की लवणता पहले जितनी ही बनी रहती है किंतु वह वाष्पीकृत जल वर्षा के रूप में महाद्वीपों में गिरता है और नदियों के माध्यम से समुद्र में मिलता है एवं नदियां विभिन्न स्थलीय क्षेत्रों की लवणता को अपने साथ ले जाकर समुद्र में निक्षेपित कर देती है जिससे समुद्र की लवणता लगातार बढ़ती जाती है।
महासागरीय जल की लवणता को प्रभावित करने वाले कारक-:
सूर्यातप या अक्षांश स्थिति-:
निम्न अक्षांश वाले क्षेत्रों में सूर्य की किरणें सीधी पढ़ने से सागरीय जल को सूर्यताप अधिक प्राप्त होता है, परिणाम स्वरूप यहां पर वाष्पीकरण की प्रक्रिया तेज होती है, और वाष्पीकरण अधिक होने से लवणता भी अधिक हो जाती है क्योंकि वाष्पीकरण से अलवणीय जल वाष्पीकृत हो जाता है,जिससे लवणता की अनुपातिक मात्रा बढ़ जाती है।
वर्षण-:
जिन क्षेत्रों में वर्षा अधिक होती है उन क्षेत्रों का सादरी जल अपेक्षाकृत कम लवणीय होता है क्योंकि स्वच्छ जल की मात्रा बढ़ने से लवणीय जल की अनुपातिक मात्रा कम हो जाती है। यही कारण है कि भूमध्य रेखा क्षेत्र की लवणता कर्क और मकर रेखा के क्षेत्र की लवणता से कम है। क्योंकि भूमध्य रेखीय क्षेत्र में प्रतिदिन वर्षा हो जाती है।
शुद्ध जल की पूर्ति-: जिस क्षेत्र के सागरीय जल में बर्फ से पिघलकर निर्मित होने वाले शुद्ध जल की पूर्ति होती है, उस क्षेत्र के सागरीय जल की लवणता कम होती है इसके विपरीत…
यही कारण है कि आर्टिक महासागर में शुद्ध जल की लगातार पूर्ति होने से यहां की लवणता सबसे कम है।
महासागरीय जलधाराएं-:
महासागरीय जल धाराएं भी लवणता को प्रभावित करती हैं, जैसे -: ध्रुवं से भूमध्य रेखा की ओर आने वाली ठंडी महासागरीय जलधाराएं जिस भी क्षेत्र में जाती है उस क्षेत्र की लवणता को कम कर देती हैं। इसके विपरीत गर्म महासागरीय जलधाराएं जिस क्षेत्र में जाती है वहां की लवणता बढ़ा देती हैं।
नदियों के निक्षेपण की मात्रा-:
जिस महासागरीय जलराशि में नदियों द्वारा अधिक मलवा निक्षेपित होता है उस जल राशि की लवणता अधिक हो जाती है। इसके विपरीत….
यही कारण है कि चारों तरफ से स्थल भूमि से गिरे भूमध्य सागर में नदियां द्वारा अधिक मलबा निक्षेपित होने से यहां की लवणता बहुत अधिक है।
वायुमंडलीय दबाव-:
यदि किसी क्षेत्र में वायुमंडलीय दबाव अधिक है तो वहां पर वाष्पीकरण कम होगा, और वाष्पीकरण कम होने से लवणता कम हो जाती है।इसके विपरीत जिस क्षेत्र में वायुमंडलीय दबाव कम होता है वहां की लवणता अधिक हो जाती है।
लवणता का वितरण-:
अक्षांशीय या क्षेतिज वितरण-:
सामान्यतः निम्न अक्षांशो (भूमध्य रेखा क्षेत्र) से उच्च अक्षांश की ओर सागरीय जल की लवणता में कमी आती है, क्योंकि भूमध्य रेखीय क्षेत्र में सूर्यताप अधिक होने के कारण वाष्पीकरण की प्रक्रिया अधिक होती है, जिसके कारण यहां पर लवणता भी अधिक होती है।
किंतु भूमध्य रेखा से भी अधिक लवणता उच्च अक्षांश(20°-40° ) में पाई जाती है क्योंकि भूमध्य रेखा क्षेत्र में रोजाना वर्षा होने के कारण यहां की लवणता कम हो जाती है।
.
लवणता का लंबवत वितरण-:
महासागरीय जल की लवणता के लंबवत वितरण के संबंध में कोई निश्चित उल्लेख नहीं किया जा सकता क्योंकि कुछ अक्षांशों में गहराई के साथ लवणता बनती है, जबकि कुछ अक्षांशों में गहराई के साथ लगातार घटती है।
जैसे-:
भूमध्य रेखीय क्षेत्र पर-: 200 मीटर की गहराई तक ,गहराई के साथ लवणता बढ़ती जाती है किंतु 200 मीटर के बाद और गहराई पर जाने पर लवणता घटने लगती है।
मध्य अक्षांशों में-: लगातार गहराई के साथ लवणता घटती है।
उच्च अक्षांश में-: गहराई के साथ साथ पहले लवणता बढ़ती है फिर घटने लगती है।
महासागरीय जल का घनत्व-:
घनत्व महासागरीय जल का एक प्रमुख गुण है , जल के घनत्व का तत्व जल की सघनता से है सामान्य शुद्ध जल का घनत्व 1 ग्राम/ प्रतिसेंटीमीटर क्यूब जल होता है। किंतु महासागरीय जल का घनत्व अधिक होता है महासागरीय जल का औसतन घनत्व 1.027 ग्राम/cm^3 होता है।
घनत्व को प्रभावित करने वाले कारक-:
तापमान-:
जब सागरीय जल के तापमान में वृद्धि होती है तो उसका घनत्व कम हो जाता है क्योंकि ताप जल के कणों का प्रसार कर देता है।
इसके विपरीत सागरीय जल के तापमान में कमी होने पर उसका घनत्व अधिक हो जाता है।
लवणता-:
जिस जल में अधिक लवणता पाई जाती है उस जल का घनत्व अधिक होता है, इसके विपरीत जल की लवणता कम होने पर उसका घनत्व कम हो जाता है।
दबाव-:
जिस क्षेत्र के सागरीय जल में वायुमंडलीय दबाव या ऊपरी परत के सागर जल का दवा अधिक होता है उस जल का घनत्व अधिक होता है इसके विपरीत दबाव कम होने पर घनत्व कम हो जाता है।
जलधारा-:
ठंडी जलधाराएं जिस क्षेत्र में जाती है उस क्षेत्र का घनत्व अधिक कर देते हैं इसके विपरीत जिस क्षेत्र में गर्म जल धाराएं प्रवाहित होती है उस क्षेत्र के सागरीय जल का घनत्व कम होता है।
महासागरीय जल के घनत्व का वितरण
क्षेतिज वितरण-:
विषुवत रेखीय क्षेत्र से ध्रुवीय क्षेत्र की जाने पर, महासागरीय जल का घनत्व बढ़ता जाता है, क्योंकि भूमध्य रेखीय क्षेत्र में तापमान अधिक होने से यहां का घनत्व कम होता है जबकि ध्रुवीय क्षेत्र में तापमान कम होने से यहां का घनत्व अधिक होता है
लम्बवत वितरण-:
महासागरीय जल में गहराई के साथ घनत्व भी बढ़ता जाता है क्योंकि
गहराई के साथ महासागरीय जल का दबाव बढ़ता है
गहराई के साथ महासागरीय जल का तापमान कम होता जाता है।
भूमिगत जल
भूमि के अंदर पाया जाने वाला जल भूमिगत जल कहलाता है, जिसे हम कुएं ,बोरवेल आदि के माध्यम से निकालकर उपयोग करते हैं।
भूमिगत जल की विशेषताएं-:
भूमिगत जल वास्तव में वर्षा का जल, या हिमानी के पिघलने से प्राप्त जल होता है जिसे भूमि द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है।
भूमिगत जल प्रदूषण एवं रोग जनित कारक मुक्त स्वच्छ जल होता है, अर्थात इस को बिना किसी उपचार की पीने के लिए उपयोग किया जा सकता है।
धरातल में उपस्थित कुल और अलवणीय जल का लगभग 30% जल भूमिगत जल है।
भूमिगत जल 4 किलोमीटर की गहराई तक पाया जाता है जिसे भूमि को खोदकर जैसे -:ट्यूबेल , कुंआ द्वारा प्राप्त किया जाता है।
भूमिगत जल सतही जल की तुलना में कम वाष्पीकृत होता है।
भूजल तालिका
भूमि की सतह के नीचे जो जल पाया जाता है उसे भूमिगत जल कहते हैं और भूमिगत जल मुख्यतः 3 मंडलों में विभक्त होता है और भूमिगत जल के मंडलों को भूजल तालिका कहते हैं।
जिस का विवरण निम्न लिखित है -:
असंतृप्त मंडल-: यह धरातल की सबसे ऊपरी परत होती है, इस परत की शैल के रंध्रों में ग्रीष्म ऋतु के समय वायु भरी होती है तथा वर्षा काल के दौरान शैल रंध्रों में जल भर जाता है, अर्थात वर्ष के सभी मौसम में इस परत की शैल जलयुक्त नहीं रहती हैं इसलिए इसे असंतृप्त मंडल कहते हैं।
संतृप्त मंडल-: यह मंडल असंतृप्त मंडल के नीचे पाया जाता है, इस मंडल (परत) की शैल के रंध्रों में सदैव जल भरा रहता है अर्थात इस परत की शैल सदैव जलयुक्त होती है इसलिए इसे संतृप्त मंडल कहते हैं।
चट्टाने प्रवाह मंडल-: संतृप्त मंडल के एक ऐसी परत पाई जाती है जिस परत की चट्टान में सेल भार बढ़ने से, शैल रंध्र बंद हो जाते हैं, उस परत को चट्टान प्रवाह मंडल (इंपरमेबल रॉक) कहते हैं चट्टान प्रवाह मंडल में जल रिसने की संभावना नहीं रहती, अर्थात इस मंडल के ऊपर जल भरा रहता है। जिसे जलभृत (aquifer)क्षेत्र कहते हैं
समानतयता: इस मंडल की गहराई 16 किलोमीटर होती है।
.
भूमिगत जल के स्त्रोत-:
भूमिगत जल स्त्रोत का तात्पर्य ऐसे स्त्रोतों से है जिनसे भूमिगत जल प्राप्त होता है।
जो निम्नलिखित हैं -:
झरना(spring)-: जब किसी पहाड़ी क्षेत्रों में भूमिगत जल किसी दरार या छिद्र के सहारे स्वत: ही निकलता है तो इसे झरना कहते हैं।
.
कुआं-: यह भूमिगत जल प्राप्त करने का परंपरागत साधन है इसके अंतर्गत भूमि के अंदर का भूमिगत जल प्राप्त करने के लिए एक गहरा एवं चौड़ा गड्ढा किया जाता है, जिसे कुआं कहा जाता है। यदि कुआं असंतृप्त मंडल में है तो वह गर्मी में सूख जाते हैं किंतु यदि कुंआ संतृप्त मंडल में है तो वर्ष वे 12 माह जल प्रदान करते हैं।
नलकूप-: भूमिगत जल प्राप्त करने के लिए मशीनों द्वारा बहुत ही कम चौड़ाई (लगभग 1 फीट)का बहुत अधिक गहरा गड्ढा किया जाता है जिसे नलकूप कहा जाता है नलकूप द्वारा आसानी से गहराई का जल प्राप्त कर लिया जाता है, किंतु नलकूप में जल के भंडारित होने की व्यवस्था कुंआ की तुलना में कम होती है।
अतः नलकूप तभी सफल होते हैं वे aquifer(जलभृत) क्षेत्र से जल प्राप्त करते हैं।
भूमिगत जल पुनर्भरण(recharge) के स्त्रोत-:
वर्षा जल-: धरातल की मिट्टी एवं चट्टाने वर्षा से प्राप्त जल को अवशोषित कर के अपने रंग में भाग लेती हैं जिससे भूमिगत जल स्तर बढ़ जाता है।
हिमानी के पिघलने से प्राप्त-: हिम के चलने से प्राप्त जल को भी धरातल सुख लेता है जिससे भूमिगत जल स्तर बढ़ जाता है।
सागर एवं झील के रिसाव से प्राप्त-:
भूमि की चट्टाने आसपास के सागर एवं नदी तथा जलाशय क्षेत्र से जल का रिसाव करके जल भरण का काम करती है।
अतः यही कारण है कि जलाशय के क्षेत्र के आसपास की भूमि का जल स्तर ऊपर होता है।
वॉटर लेवल-:
भूमि के अंदर की जिस परत की शैल के रंध्र सदैव जलयुक्त रहते हैं उस परत को जल संतृप्त परत कहते हैं और संतृप्त परत की उपरी रेखा को वाटर लेवल कहते हैं।
भोम जल स्तर कम होने के कारण
अत्यधिक सिंचाई-: हरित क्रांति के प्रभाव से वर्तमान में अधिक सिंचाई वाली फसलें उगाई जाती हैं तथा उनमें अधिक मात्रा में सिंचाई की जाती है सिंचाई के कारण अधिकांश स्वीकृत होकर उड़ जाता है जो भूमिगत जलस्तर कम होने का प्रमुख कारण है।
अत्यधिक रसायनों का प्रयोग-:
वर्तमान में कृषि में अधिक रासायनिक पदार्थों का उपयोग किया जाता है जिसके कारण भूमि की सतह लवणीय हो जाती है, अर्थात उसकी जल अवशोषण क्षमता कम हो जाती है परिणाम स्वरूप वह वर्षा के जल को कम संगीत कर पाती है जिससे भी भूमिगत जलस्तर कम हो रहा है।
औद्योगिक गतिविधियों का विस्तार-: वर्तमान में औद्योगिक प्रतिस्पर्धा के युग में औद्योगिक इकाइयों का तेजी से विस्तार हो रहा है और औद्योगिक इकाइयां अंधाधुंध तरीके से भूमिगत जल का उपयोग करती हैं,जिस से भी भूमिगत जलस्तर कम हो रहा है।
तीव्र जनसंख्या वृद्धि-:
वर्तमान में पहले की तुलना में जनसंख्या काफी ज्यादा हो गई है अच्छा जनसंख्या के बढ़ने से जल की मांग भी बढ़ती है जिससे जल का अधिकाधिक उपयोग होता है परिणाम स्वरूप भूमिगत जल स्तर नीचे जा रहा है।
अत्यधिक जल दोहन की जीवन प्रणाली-‘
वर्तमान की जीवन शैली में घरेलू जल की आवश्यकता परंपरा का जीवन शैली की तुलना में बहुत ज्यादा बढ़ गई है, जैसे-: सेप्टिक टैंक के लिए व्यापक मात्रा में जल की आवश्यकता होती है, टाइल्स वाले घरों में पोछा लगाने के लिए जल की आवश्यकता होती है। अतः घरेलू कार्य में अधिकाधिक भूमिगत जल का उपयोग किया जा रहा है ,जिस कारण से भी भूमिगत जल स्तर कम होता जा रहा है।
वनों की कटाई-:
वन भूमि का जल स्तर को बढ़ाने में सहायक होते हैं किंतु नगरीकरण एवं औद्योगीकरण के विस्तार हेतु वनों की लगातार कटाई होने से भूमिगत जल स्तर नीचे गिरता जा रहा है।
जल संग्रहण क्षेत्रों का विनाश-:
परंपरागत समय में व्यापक मात्रा में तालाब ,नहर ,बढ़िया होती थी किंतु अब इनका यह धीरे विनाश होता जा रहा है जिससे भूमि की जल अवशोषण क्षमता कम हो रही है परिणाम स्वरूप भूमिगत जलस्तर कम हो रहा है।
भूमिगत जल स्तर को बढ़ाने के उपाय-:
वैज्ञानिक कृषि सिंचाई पद्धति को अपनाया जाए जैसे -:ड्रिप सिस्टम ताकि जल का वाष्पीकरण कम हो और भूमिगत जल स्तर उतना ही बना रहे।
रासायनिक कृषि के स्थान पर जैविक कृषि को बढ़ावा दिया जाए-: ताकि मिट्टी की जल अवशोषण क्षमता अधिक हो जाए जिससे भूमिगत जल स्तर बढ़ेगा।
वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाए-: वृक्ष भूमिगत जल स्तर को बढ़ाने में सहायक होते हैं अतः पेड़ पौधों को बढ़ाकर भूमिगत जल स्तर बढ़ाया जा सकता है।
औद्योगिक गतिविधियों के लिए यह मापदंड निर्धारित किए जाएं कि वर्षा के जल को सम्मिलित करके उसका उपयोग ही औद्योगिक गतिविधि में करेंगे भूमिगत जल का नहीं।
जल संग्रहण क्षेत्र जैसे-: तालाब ,बडियां आदि का विस्तार किया जाए।
दैनिक कार्यों जैसे -:नहाने सफाई करने आदि के लिए भूमिगत जल के स्थान पर सतही जल का उपयोग किया जिए।
वर्षा का जल संचित करने की विधिया-:
भारत में वर्षा से प्राप्त होने वाले कोई जल की मात्रा में से आधे से ज्यादा पर जल ढलान के सहारे नदियों के माध्यम से बहकर समुद्र में चला जाता है, अतः जल संकट को कम करने के लिए समुद्र में जाने वाले जल को संचित किया जाना चाहिए इसके लिए निम्न विधियां अपनाई जाए-:
रिचार्ज पिट-: इसके अंतर्गत लगभग 100 वर्ग किलोमीटर से अधिक बड़े छत के जल को पाइप द्वारा संग्रहित कर के ऐसे गड्ढे में छोड़ा जाता है जो-:
लगभग 1 से 2 मीटर चौड़ा और 4 मीटर गहरा होते हैं तथा उस गड्ढे में ऊपर बोल्डर, बजरी, रेत आदि भारी होती है। इससे वर्षा का जल भूमि में बड़ी सहजता से संचित होता है।
बांध बनाकर-: ढलान वाले पहाड़ी क्षेत्रों में मिट्टी पत्थर का बांध बनाकर वर्षा के जल को रोककर भूमिगत जल स्तर बढ़ाया जाता है।
रिसाव टैंक-: इसके अंतर्गत खुले मैदानों में व्यापक गड्ढे बनाकर वर्षा के जल को भरा जाता है, ताकि इस जल का रिसाव भूमि के अंदर हो और भूमिगत जलस्तर बढे़।
जल चक्र-:
जलचक्र वह प्रक्रिया है जिसके अंतर्गत जलमंडल का जल लगातार वायुमंडल और स्थलमंडल का चक्कर लगाता रहता है।
जल चक्र निम्न चरणों में पूरा होता है-:
सर्वप्रथम जलमंडल का जल सूर्य ताप के प्रभाव से वाष्पीकृत होकर, जलवाष्प के रूप में वायुमंडल में पहुंचता है,
फिर वायुमंडल में तापमान कम होने के कारण वह जल एकत्रित होकर बादल बनाता है और फिर उस बादल का जल संघनित होकर वर्षा के रूप में धरातल पर गिरता है,
फिर धरातल का जल ढलान के सहारे निचले स्थानों या समुद्र जिलों में पहुंच जाता है तथा कुछ जल भूमि में अवशोषित हो जाता है।
यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है।
.