[मृदा]
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Toggleपृथ्वी की ऊपरी परत अर्थात धरातल का निर्माण करने वाली ऐसी असंगठित व अर्धसंगठित अवसादी चट्टानें ,जिनमें कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों पदार्थ मौजूद होते हैं उसे मृदा कहते हैं।
मृदा का निर्माण चट्टानों के विघटन से होता है।
बैनेट के अनुसार-: “मिट्टी भू पृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है, जो मूल चट्टानों तथा वनस्पति के अंश के योग से बनती है। “
मृदा के अवयव-:
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संपूर्ण मृदा आयतन का लगभग 50% भाग ठोस होता है , जिसमें खनिज पदार्थ एवं कार्बनिक पदार्थ पाए जाते हैं।
तथा शेष 50% भाग रन्धाकाश(pore space) के रूप में होता है जिसके अंतर्गत जल एवं वायु पाई जाती है।
अर्थात मृदा में मुख्यत: निम्नलिखित 4 अवयव पाए जाते हैं-:
खनिज पदार्थ -: 45%
कार्बनिक पदार्थ-: 5%
मृदा जल-: 25%
मृदा वायु -: 25%।
खनिज पदार्थ-:
संपूर्ण मृदा आयतन में लगभग 45% खनिज पदार्थ पाए जाते हैं।
खनिज पदार्थ में पत्थर ,कंकर, रेत ,बालू ,सिल्ट, क्ले आदि शामिल होते हैं।
खनिज पदार्थ पौधों को सिलिकॉन ,आयरन ,कैल्शियम मैग्नीशियम, पोटेशियम प्रदान करते हैं।
कार्बनिक पदार्थ-:
संपूर्ण मृदा आयतन में लगभग 5% कार्बनिक पदार्थ पाए जाते हैं।
कार्बनिक पदार्थ में जंतु तथा वनस्पतियों के अवशेष जैसे पत्तियां, हड्डियों का चूर्ण, गोबर के अवशेष , तथा सूक्ष्मजीव शामिल होते हैं।
कार्बनिक पदार्थ के अपघटन से मृदा को ह्यूमस प्राप्त होता है|
मृदा जल-:
संपूर्ण मृदा आयतन में लगभग 25% जल पाया जाता है।
जल से मृदा संगठित रहती है तथा उसे नमी प्राप्त होती है।
मृदा वायु-:
संपूर्ण मृदा आयतन के लगभग 25% भाग पर मृदा वायु पाई जाती है।
वायु के माध्यम से मृदा को ऑक्सीजन नाइट्रोजन कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें प्राप्त होती है।
मृदा के गुण-:
भौतिक गुण
मृदा की बाह्य प्रकृति को प्रदर्शित करने वाले गुण मृदा के भौतिक गुण कहलाते हैं, जो इस प्रकार है-:
मृदा का रंग-:
मृदा का रंग मृदा के भौतिक गुणों का एक महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि मृदा कर रंग उस मृदा में उपस्थित खनिज तत्वों की मात्रा को दर्शाता है,
जैसे-: यदि मृदा का रंग काला है, तो इसका अर्थ है कि उस मृदा में ह्यूमस तथा टिटैनीफेरस मैग्नेटाइट की मात्रा अधिक है।
यदि मृदा का रंग लाल है, तो इसका अर्थ है कि उस मृदा में लौह-ऑक्साइड की प्रधानता है।
मृदा का गठन-:
मृदा गठन का तात्पर्य मृदा में मिश्रित चीका (clay) सिल्ट (silt)तथा रेत(sand) की अनुपातिक मात्रा के संगठन से है,
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संगठन के आधार पर मृदा मुख्यतः निम्न तीन प्रकार की होती है-:
चीका मिट्टी (clay soil)-: इस मिट्टी में clay,silt and sand का अनुपात क्रमशः 45%,45%,10% होता है।
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दोमट मिट्टी(Loam)-: इस मिट्टी में clay,silt and sand का अनुपात क्रमशः 18%,42%,40% होता है।
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बलुई या बजरी मिट्टी (sandy soil)-: इस मिट्टी में clay,silt and sand का अनुपात क्रमशः 10%,15%,75% होता है।
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चिका मिट्टी के रंध्रों का आकार बहुत ही सूक्ष्म होता है, अतः इस मिट्टी की जल धारण क्षमता बहुत ही कम होती है परिणाम स्वरूप
थोड़ा सा पानी गिरने पर चिपचिपी हो जाती है
और पानी ना मिलने पर बड़ी दरारें पड़ जाती हैं।
इसके विपरीत बजरी मिट्टी की जल धारण क्षमता अधिक होती है यह मिट्टी शीघ्रता से पानी सोख लेती है तथा इसमें दरारें कभी नहीं पड़ती।
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मृदा की गहराई-:
सामान्यता मृदा की गहराई 12 फीट होती है, किंतु बलाई मिर्धा सबसे कम गहरी और दोमट मृदा अधिक गहरी होती है।
रासायनिक गुण-:
मृदा के रासायनिक गुण का तात्पर्य मृदा की अम्लीयता एवं क्षारीयता से है।
मृदा का एक निश्चित पीएच मान होता है, जिस मृदा का पीएच मान 7 से कम होता है अर्थात जिस में चूने की मात्रा कम होती है उसे अम्लीय मृदा कहते हैं। इसके विपरीत जिस मृदा का पीएच मान सबसे अधिक होता है उसे क्षारीय मृदा कहा जाता है।
वास्तव में 6 से लेकर 7.5 पीएच की मृदा अधिक उपजाऊ होती है।
अम्लीय मृदा को छारीय बनाने के लिए चुना का प्रयोग किया जाता है तथा क्षारीय मृदा को अम्लीय बनाने के लिए जिप्सम का प्रयोग किया जाता है।
मृदा के जैविक गुण-:
मृदा के जैविक गुणों का तात्पर्य मृदा में उपस्थित सूक्ष्मजीवों एवं अपघटकों की क्रियाशीलता से है।
जिस मृदा में अधिक सूक्ष्म जीव एवं अपघटक होते हैं उस मृदा में जैविक अवशेषों का विघटन अधिक होता है जिससे मृदा में ह्यूमस की मात्रा बढ़ती है परिणाम स्वरूप मृदा अधिक उपजाऊ बनती है।
मृदा निर्माण की प्रक्रिया
चट्टानों से मृदा का निर्माण एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है लगभग 1 सेंटीमीटर मृदा की परत बनने में 3 शताब्दी से भी अधिक समय लगता है, एवं मृदा निर्माण की प्रक्रिया में स्थलमंडल, जैवमंडल, जल मंडल ,वायु मंडल सभी का योगदान होता है।
मृदा निर्माण की प्रक्रिया को तीन अवस्था में विभाजित किया जा सकता है-:
प्रथम अवस्था-: सर्वप्रथम चट्टानों भौतिक (तापांतर, वर्षा, तुषारापात),रासायनिक(ऑक्सीकरण कार्बोनीकरण) एवं जैविक कारकों द्वारा अपक्षय होता है ,जिससे बड़े चट्टानी टुकड़े, छोटे-छोटे रेत सामान टुकड़ों में विभक्त हो जाते हैं।
द्वितीय अवस्था-:
अब चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त छोटे-छोटे कंकड़,पत्थरों के भंडार में जीवाणु ,कवक, मोलास्क,दीमक ,केचुआ आदि प्रवेश करके उन कंकड़ पत्थरों को और छोटे-छोटे भागों में विभक्त करते हैं तथा उसमें गिरने वाले जैविक अपशिष्ट जैसे -: फूल ,पत्ती ,मरे हुए जीव-जंतुओं की त्वचा को अपघटित करके कंकर पत्थरों के ढेर में मिला देते हैं। जिससे उस भंडार में कार्बनिक पदार्थ तथा ह्यूमस का निर्माण होता है। अर्थात अब यह भंडार मिट्टी का स्वरूप ले लेता है।
तृतीय अवस्था-:
इसके बाद इस अर्ध विकसित मिट्टी में छोटी-छोटी घास उगने लगती है, जिसकी पत्तियां गिरने से मृदा में ह्यूमस की मात्रा बढ़ती जाती है, और मृदा में वर्षा के जल का रिसाव होने से वर्षा का जल एवं वायु प्रवेश कर जाती है जिससे वास्तविक मृदा का निर्माण हो जाता है।
जिसमें 45% खनिज पदार्थ 5% कार्बनिक पदार्थ 25% जल तथा 25% वायु होती है।
मृदा निर्माण के कारक-:
ऐसे कारक जिनके द्वारा मृदा का निर्माण होता है वे मृदा निर्माण कारक कहलाते हैं ,मृदा निर्माण कार्य निर्धारित करते हैं कि मृदा की संरचना एवं प्रकृति कैसी होगी?
मृदा निर्माण के मुख्यतः पांच कारक है
पैतृक शैल
जलवायु
जैविक क्रियाएं
स्थलाकृति
समय
पैतृक शैल-:
जिन चट्टानों के खनिजों से मृदा का निर्माण होता है वे चट्टान उस मृदा की पैतृक शैल कहलाते हैं, और पैतृक शैल मृदा का निर्माण आधार होता है, क्योंकि मृदा आयतन में लगभग 45% खनिज पदार्थ पाए जाते हैं जो पैतृक चट्टानों के अपक्षय से प्राप्त होते हैं, अतः पैतृक शैल मृदा का रंग, इसकी प्रकृति को निर्धारित करते हैं। जैसे -:यदि मृदा की पैतृक चट्टान अम्लीय है तो मृदा की प्रकृति भी अम्लीय होगी, इसी प्रकार यदि पैतृक चट्टान काले रंग की है तो उस से बनने वाली मृदा काली रंग की होने अधिक संभावना होती है।
जलवायु-:
जलवायु मृदा निर्माण का एक सबसे महत्वपूर्ण कारक है, क्योंकि जलवायु के आधार पर ही मृदा की संरचना निर्धारित होती है। जैसे-: जिन क्षेत्रों में तापमान अधिक होता है उन क्षेत्रों में बलुई मिट्टी का निर्माण होता है, तथा उस क्षेत्र की मृदा में केशकीय क्रिया के कारण कैल्शियम की मात्रा अधिक होती है।
उसी प्रकार जिन क्षेत्रों में अधिक वर्षा एवं तापमान होता है उन क्षेत्रों में जैविक एवं रासायनिक क्रिया भी तीव्र होती है परिणाम स्वरूप उस क्षेत्र की मृदा में कार्बनिक पदार्थ अधिक होंगे अर्थात वहां की मृदा अधिक उपजाऊ होगी।
जैविक क्रियाएं-:
मृदा में उपस्थित जीव जंतु एवं वनस्पति भी मृदा के रासायनिक संगठन को परिवर्तित करते हैं। जिस मृदा में जीवाणु, कवक केंचुए,चूहे ,चींटी बैक्टीरिया अधिक सक्रिय होते हैं उस मृदा में कार्बनिक पदार्थ, एवं मृदा जल तथा मृदा वायु भी अधिक होती हैं। परिणाम स्वरूप वहां की मृदा अधिक उपजाउ होती है।
उसी प्रकार जिस मृदा में राइबोसोम बैक्टीरिया अधिक होता है उस मृदा में नाइट्रोजन की मात्रा भी अधिक होती है।
स्थलाकृति-:
ढाल वाले या ऊंचे क्षेत्रों में जल हवा द्वारा मृदा का अपरदन होने से यहां पर मृदा की मोटाई कम पाई जाती है जबकि निचले, समतल क्षेत्रों में लगातार अवसादो के जमा होने से मृदा की मोटाई अधिक होती है।
समय-:
मृदा का निर्माण एक दीर्घकालीन प्रक्रिया है अर्थात मृदा के निर्माण में काफी ज्यादा समय लगता है आंकड़े के अनुसार 1 सेंटीमीटर मृदा के निर्माण में लगभग 3 शताब्दी से भी अधिक समय लगता है, अतः समय के साथ निचले क्षेत्रों की मृदा की गहराई भी बढ़ती जाती है,
मृदा परिच्छेदिका(soil profile)-:
मृदा की वह ऊर्ध्व-काट , जिसमें क्रमानुसार विभिन्न मृदा स्तर पाए जाते हैं उसे मृदा परिच्छेदिका कहते हैं।
जिसका विवरण अग्रोलिखित है -:
“O”- horizon(O-संस्तर)-:
यह मृदा की सबसे ऊपरी परत होती है,
इस परत में अविघटित एवं अर्ध-विघटित जैविक पदार्थ जैसे-: फूल पत्तियां मरे हुए जीव जंतु के अवशेष पाए जाते हैं।
यह परत केवल वन भूमि पाई जाती है कृषि भूमि में नहीं।
“A”horizon(Aसंस्तर)-:
यह वन भूमि की दूसरी पर तथा कृषि भूमि की सबसे ऊपरी परत होती है।
इस परत में जैविक पदार्थों का पूर्ण रूप से अपघटन हो जाता है जिससे ह्यूमस का निर्माण होता है, अतः इसमें व्यापक मात्रा में ह्यूमस एवं खनिज पदार्थ पाए जाते हैं।अतःयह सबसे उपजाऊ परत होती है।
इस संस्तर की A2 परत से पानी के साथ ही ह्यूमस एवं खनिज पदार्थ नीचे चले जाते हैं अर्थात इस परत में निक्षालन (elluviation) की प्रक्रिया होती है।
“B” horizon(B संस्तर) -:
यह संस्तर A संस्तर के नीचे पाया जाता है।
इस स्तर में पोषक तत्व व्यापक मात्रा में उपलब्ध होते हैं।
इस संस्तर की B2 परत में A2 संस्तर से आए, निक्षालित पदार्थ निक्षेपित होते हैं।
“C” horizon(C संस्तर)-:
यह संस्तर B संस्तर के नीचे पाया जाता है।
इस स्तर में चट्टानों का अपक्षय एवं मृदा निर्माण का कार्य जारी रहता है। अतः इस परत में बजरी एवं टूटी-फूटी चट्टाने पाई जाती है।
“R” horizon(Dसंस्तर)-:
इस स्तर अविघटित चट्टाने पाई जाती हैं।
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मृदा की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाले कारक-:
मृदा का पीएच मान
मृदा में उपस्थित ह्यूमस की मात्रा
मृदा की संरचना।
मृदा की मोटाई।
मृदा में उपस्थित जल तथा वायु की मात्रा।
मृदा में ह्यूमस-:
मृदा में उपस्थित काले-भूरे रंग के विघटित कार्बनिक पदार्थ को ह्यूमस कहते हैं।
ह्यूमस मृदा को निम्न तरीके से उपजाऊ बनाती है।
ह्यूमस में पर्याप्त पोषक तत्व मौजूद होते हैं। अर्थात यह मिट्टी को पोषक तत्व प्रदान करती है।
मृदा में जल धारण क्षमता बढ़ाती है।
मृदा में वायु एवं जल के लिए आवश्यक रंध्र (पोलाई)बनाती है।
ऊष्मा का अवशोषण करके मृदा को गर्म रखती है।
मृदा अपरदन
जल या वायु आदि के प्रहार से मृदा की ऊपरी परत कटकर बह जाना मृदा अपरदन कहलाता है।
मृदा अपरदन मुख्यतः उन क्षेत्रों में होता है जिन क्षेत्रों की मृदा
वनस्पति विहीन होती है।
मृदा में ह्यूमस की मात्रा कम होती है।
मृदा का क्षेत्र अधिक ढलान वाला होता है।
मृदा अपरदन के प्रकार-:
परतदार अपरदन-:
जब वायु एवं जल आदि के प्रभाव से मृदा की केवल ऊपरी परत का अपरदन होता है तो इससे परतदार अपरदन कहते हैं, राजस्थान पंजाब हरियाणा के क्षेत्र में मुख्यतः परतदार मृदा अपरदन होता है।
नालीदार अपरदन।
जब भारी वर्षा या तीव्र जलधारा के प्रभाव से मृदा में नालीदार कटाव होता है तो इसे नालीदार मृदा अपरदन कहते हैं।
जैसे -: भारत की चंबल नदी घाटी में होने वाला मृदा अपरदन।
मृदा अपरदन के कारण-:
मूसलाधार बारिश-: मूसलाधार बारिश से मृदा का परतदार अपरदन होता है।
तेज वेग की नदी धारा-: जब किसी क्षेत्र से तेज वेग की नदी जलधारा बहती है, तो वह अपने साथ आसपास के मृदा को बहाआकर ले जाती है।
तीव्र वायु-: तेज गति से चलने वाली धूल कण युक्त हवा घर्षण द्वारा अपने मार्ग में आने वाली मृदा को उड़ा कर ले जाती जिससे भी मृदा का परतदार अपरदन होता है।
वनस्पति का विनाश एवं पशु चारण-: वनस्पति की जड़ें मृदा को बांधे रखती हैं किंतु जब किसी क्षेत्र की वनस्पति का विनाश हो जाता है तो वहां की मृदा ढीली हो जाती है, परिणाम स्वरूप वहां पर अधिक मृदा अपरदन होता है।
अवैज्ञानिक कृषि-:
निम्न तरीके से कृषि करने पर मृदा अपरदन होता है।
ढाल के अनुरूप खेत की जुताई करवाने पर।
झूम कृषि करने पर।
अनुचित फसल चक्र अपनाने पर।
जैविक गतिविधियां-:
विभिन्न प्रकार के जीव जैसे-: चूहा ,लोमड़ी, खरगोश यहां तक कि मनुष्य भी अपने स्वार्थ के लिए मिट्टी को खोदते रहते हैं, जिससे भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है और भूस्खलन से मृदा का अपरदन होता है।
मृदा अपरदन को रोकने के उपाय-:
वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाए।
नदियों के वेग को कम करने के लिए नदियों में बांध बनाया जाए।
खेतों में ऊंची एवं मजबूत मेड़ बनाई जाए।
खेतों को समतल बनाया जाए।
पहाड़ी क्षेत्रों में समोच्च रेखीय पद्धति पर आधारित कृषि की जाए।
मध्यप्रदेश में मृदा अपरदन
मृदा अपरदन मध्यप्रदेश की भी एक प्रमुख समस्या है, जिसके कारण मध्य प्रदेश के किसानों तथा स्थानीय निवासियों को काफी नुकसान होता है। क्योंकि मृदा अपरदन के कारण मृदा की ऊपरी उपजाऊ परत जल के साथ बह जाती है, तथा केवल कंकरीली एवं पथरीली अनुपजाऊ मिट्टी ही शेष बचती है। परिणाम स्वरूप मृदा अपरदन के क्षेत्र में फसलों की उपज पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।
मध्य प्रदेश में मृदा अपरदन के प्रमुख क्षेत्र-:
मध्यप्रदेश में मुख्यत: दो भागों में ही मृदा अपरदन होता है-
चंबल घाटी क्षेत्र- इस क्षेत्र में चंबल एवं उसकी सहायक नदियों द्वारा मृदा का अवनालिका अपरदन होता है।
बालाघाट सतपुड़ा क्षेत्र- इस क्षेत्र में अत्यधिक वर्षा होने के कारण परतदार अपरदन होता है।
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मध्यप्रदेश में मृदा अपरदन को रोकने के उपाय-:
वृक्षारोपण को बढ़ावा दिया जाए-: चंबल नदी घाटी के क्षेत्र में मृदा अपरदन का एक मुख्य कारण वहां पर पर्याप्त मात्रा में प्राकृतिक वनस्पति ना होना यदि वहां पर वनस्पति का विस्तार किया जाता है तो वनस्पति मिट्टी को बांध के रखेगी जिससे मृदा अपरदन नहीं होगा।
बांध बनाकर-: यदि चंबल एवं उसकी सहायक नदियों मैं बांध बनाकर बरसात के समय उसकी जलधारा के वेग को कम कर दिया जाए मृदा अपरदन बहुत कम होगा।
सोपानी की खेती-: चंबल नदी के क्षेत्र में मृदा अपरदन का एक प्रमुख कारण वहां का तीव्र ढा़ल है किंतु यदि ढाल वाले क्षेत्र में समोच्चरेखीय जुताई करके खेती की जाए तो मृदा अपरदन में कमी आएगी।
मजबूत मेड़ बनाकर-: खेत को समतल बनाकर तथा खेत की मेड को मजबूत बनाकर मृदा अपरदन को रोका जा सकता है क्योंकि यदि न्यू मजबूत होगी तो पानी का वह आज खेत से नहीं होगा परिणाम स्वरूप मृदा अपरदन में कमी आएगी।
जैविक उर्वरकों का प्रयोग-: हरित खाद, गोबर खाद, कृषि अपशिष्ट इत्यादि के उपयोग से मृदा की संरचना में सुधार आता है मृदा की रिसाव क्षमता बढ़ती है एवं बहाव क्षमता कम होती है। अतः रासायनिक खाद के स्थान पर जैविक खादों का प्रयोग करके मृदा अपरदन को कम किया जा सकता है।
मृदा का अवक्रमण-:
मानवीय हस्तक्षेप द्वारा मृदा की उर्वरता शक्ति में कमी आना मृदा का अवक्रमण कहलाता है।
मृदा अवक्रमण के कारण-:
उर्वरकों का अत्यधिक एवं असंतुलित प्रयोग।
रासायनिक कीटनाशकों का अत्यधिक एवं असंतुलित प्रयोग।
अत्यधिक सिंचाई से मृदा की अम्लीयता बढ़ना।
उपयुक्त फसल चक्र ना अपनाना।
झूम कृषि द्वारा वन भूमि का विनाश करना।
समाधान-:
उपयुक्त संतुलित मात्रा में खाद एवं कीटनाशकों का प्रयोग किया जाए।
रासायनिक खेती के स्थान पर जैविक खेती को बढ़ावा दिया जाए।
नियंत्रित मात्रा में आवश्यकतानुसार तथा उपयुक्त प्रणाली द्वारा सिंचाई की जाए।
उपयुक्त फसल चक्र अपनाया जाए।
मेडों में वृक्षारोपण किया जाए।
जलजमाव की समस्या-:
जब अत्यधिक सिंचाई या अत्यधिक जलभराव के कारण किसी क्षेत्र की मृदा के वायु रंध्र बंद हो जाते हैं जिससे मृदा में वायु एवं जल की मात्रा कम हो जाती है, तो इसे जल जमाव की समस्या कहते हैं जलजमाव से मृदा की उत्पादकता का ह्रास होता है।
वर्तमान में इंदिरा गांधी नहर के आसपास जलजमाव की समस्या है।
मरुस्थलीकरण-:
मरुस्थलीय भूमि के आसपास की गैर मरुस्थलीय भूमि में वायु द्वारा मरुस्थल की रेत के जमाव से, मरुस्थल का विस्तार होना मरुस्थलीकरण कहलाता है।
मृदा का छारीय होना-:
जब केशिकीय की क्रिया के कारण, मृदा की निचली परत के खनिज लवण विशेषकर कैल्शियम ऊपरी परत में आ जाते हैं तो मृदा सफेद रंग की दिखाई देने लगती है एवं मृदा की प्रकृति क्षारीय हो जाती। क्षारीय मृदा को अम्लीय बनाने के लिए जिप्सम का उपयोग किया जाता है।
मृदा संरक्षण नियोजन-:
भारत एवं मध्य प्रदेश में मृदा संरक्षण के लिए अनेकों नियोजित कार्यक्रम चलाए गए हैं जिनका विवरण निम्नलिखित है-:
सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम-:
देश का लगभग 19% भाग सूखाग्रस्त है, जहां रहने वाली लगभग 12% जनसंख्या से नकारात्मक रूप प्रभावित हैं। सुखा के कारण जहां एक और कृषि उत्पादकता निम्न हो जाती है वह वहीं दूसरी ओर पीने के लिए पानी और पशुओं के लिए चारा की समस्या भी उत्पन्न हो जाती है। अतः सूखाग्रस्त क्षेत्रों में सूखे के प्रभाव को कम करके, भूमि की उत्पादकता बढ़ाने के लिए वर्ष 1973 में भारत सरकार द्वारा सूखा क्षेत्र विकास कार्यक्रम की शुरुआत की गई। जिसके तहत सूखाग्रस्त क्षेत्रों में तालाबों, जलाशयों, नेहरों एवं वनों का विकास एवं विस्तार किया जाता है।
मरुस्थलीय विकास कार्यक्रम-:
मरुस्थलीकरण आज पूरे विश्व की एक विकट भौगोलिक समस्या बन चुकी है। क्योंकि वर्तमान में रेत का साम्राज्य बढ़ता जा रहा है तथा इसके विपरीत अन्न का उत्पादन घटता जा रहा है। अत: भारत में मरुस्थलीकरण के विस्तार को रोकने के लिए पर सरकार द्वारा 1977-78 में मरुस्थल विकास कार्यक्रम का प्रारंभ किया गया। जिसके तहत मरुस्थलीकरण को रोकने के लिए मरुस्थली के सीमांत क्षेत्रों में विशिष्ट प्रकार के पौधों जैसे- खिजड़ा का पौधा का वृक्षारोपण किया जा रहा है तथा शुष्क कृषि को बढ़ावा दिया जा रहा है।
नदी जोड़ो परियोजना-:
भारत और मध्य प्रदेश में वर्षा का वितरण एक समान नहीं है कहीं बाढ़ की स्थिति रहती है तो कहीं सूखे की स्थिति रहती है और बाढ़ एवं सूखे की स्थिति से निपटने के लिए नदी जोड़ो परियोजना एक बेहतर विकल्प है, जिसका विचार सर्वप्रथम के.वी .जी राव समिति ने दिया था।
मध्य प्रदेश की नदी लिंक परियोजना-:
केन बेतवा लिंक परियोजना
नर्मदा शिप्रा लिंक परियोजना
केन बेतवा लिंक परियोजना-: यह मध्य प्रदेश की केन नदी को बेतवा नदी से जोड़ने की योजना है, इस समूचे बुंदेलखंड क्षेत्र के पानी की समस्या कभी समाधान होगा एवं सिंचाई की सुविधा का भी विस्तार हो सकेगा।
केंद्रीय जल संसाधन विभाग से प्राप्त जानकारी के अनुसार केन और बेतवा नदी को आपस में जोड़ने के लिए लगभग 231 किलोमीटर लंबी नहर बनाई जाएगी और इस नहर में छतरपुर के पास दौधन में एक बांध बनाया जाएगा।
केन बेतवा लिंक परियोजना से मध्य प्रदेश के लगभग 4.90लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित होगी वही उत्तर प्रदेश की लगभग 3. 90लाख हेक्टेयर भूमि सिंचित होगी।
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नर्मदा क्षिप्रा लिंक परियोजना-: इस परियोजना के तहत नर्मदा नदी के ओमकारेश्वर बांध का जल लिफ्ट करके उज्जैन की क्षिप्रा नदी में डाला जाएगा।
मध्यप्रदेश जलाभिषेक अभियान-:
मध्यप्रदेश में गिरते भूजल स्तर का एक प्रमुख यह है कि वर्षा का अधिकांश जल नदियों द्वारा से गिरे समुद्र में चला जाता है और प्यासी भूमि प्यासी ही रह जाती है अतः मध्यप्रदेश में वर्षा के जल को रोककर भूमि का जल स्तर बढ़ाने के लिए मध्य प्रदेश सरकार द्वारा वर्ष 2006 से गांव गांव में जन आंदोलन के रूप में जलाभिषेक अभियान चलाया जा रहा है जिसके तहत सरकार विभिन्न जल-संग्रहण संरचनाओं जैसे- तालाबों, बांधों के विकास एवं विस्तार हेतु जनता को वित्तीय सहायता उपलब्ध करवाती है।
तथा यह अभियान एक जन आंदोलन के रूप में चलाया जा रहा है जिसमें जल सम्मेलन आयोजित करके तथा जल यात्राएं करके लोगों को जल्द संग्रहण के प्रति जागरूक बनाया जा रहा है।
मध्यप्रदेश में पाई जाने वाली मृदा के प्रकार
मध्यप्रदेश में मुख्यता पांच प्रकार की मृदा पाई जाती है-:
काली मिट्टी
जलोढ़ मिट्टी
लाल पीली मिट्टी
मिश्रित मिट्टी
लेटराइट मिट्टी
काली मिट्टी-:
निर्माण-: काली मिट्टी का निर्माण ज्वालामुखी से निकले बेसाल्ट लावा द्वारा निर्मित ढक्कनी ट्रैंप की चट्टानों के अपक्ष अपरदन से हुआ है।
प्रकृति-: काली मिट्टी का पीएच मान 6.3 – 6.4 होता है अर्थात यह अमली मिट्टी होती है।
विस्तार क्षेत्र-: यह मिट्टी मध्य प्रदेश की पश्चिमी भाग में मुख्यत:मालवा के पठार ,पश्चिमी सतपुड़ा तथा नर्मदा घाटी में पाई जाती है
मध्यप्रदेश में काली मिट्टी का विस्तार मध्य प्रदेश की कुल भौगोलिक क्षेत्र के लगभग 47% भाग पर है।
प्रमुख फसलें- यह मिट्टी कपास की खेती के लिए उपयुक्त है किंतु कपास के अलावा गेहूं, सोयाबीन, ज्वार की फसलें भी उगाई जाती है।
जलोढ़ मिट्टी-:
निर्माण-: मध्य प्रदेश की जलोढ़ मिट्टी का निर्माण चंबल तथा उसकी सहायक नदियों द्वारा बाहर कर लाए गए अवसादों के निक्षेपण से हुआ।
प्रकृति-: जल मिट्टी का पीएच मान 7 है अर्थात यह मिट्टी उदासीन प्रकृति की होती है।
प्रमुख फसलें-: सरसों, गेहूं ,गन्ना।
क्षेत्र विस्तार-: यह मिट्टी मध्य प्रदेश उत्तरी भाग में पाई जाती है जिसके अंतर्गत श्योपुर, मुरैना ,भिंड, शिवपुरी ,दतिया ,ग्वालियर आदि जिले आते हैं।
इस मिट्टी का विस्तार मध्य प्रदेश में कुल भौगोलिक भूभाग के लगभग 3% भाग पर है
लाल पीली मिट्टी-:
निर्माण-: इस मिट्टी का निर्माण गोंडवाना क्रम की चट्टानों से हुआ है।
प्रकृति-: यह मिट्टी अमली एवं क्षारीय दोनों प्रकार की हो सकती है।
क्षेत्र विस्तार-: यह मध्य प्रदेश के पूर्वी भाग में पाई जाती है अंतर्गत सीधी सिंगरौली शहडोल अनूपपुर डिंडोरी मंडला आदि जिले शामिल हैं।
इस मिट्टी का विस्तार मध्य प्रदेश की कुल भौगोलिक भूभाग के लगभग 37% भाग पर है।
फसलें-: यह मिट्टी चावल की फसल के लिए उपयुक्त है।
लेटराइट मिट्टी-:
निर्माण-: इस मिट्टी का यह माना उसने कटिबंधीय अधिक वर्षा वाले क्षेत्र में होता है।
प्रकृति-: इस मिट्टी का पीएच मान 7 से अधिक होता है अर्थात यह सारी है प्रकृति की मिट्टी होती है।
क्षेत्र विस्तार-: यह मिट्टी मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा बालाघाट क्षेत्र में पाई जाती है जिसका विस्तार मध्य प्रदेश की कुल भूमि के लगभग 4 प्रतिशत भाग पर है।
फसलें-: यह मिट्टी चाय कॉफी की खेती के लिए उपयुक्त होती है।
मिश्रित मिट्टी-:
निर्माण-:
यह मिट्टी ग्रेनाइट एवं निस चट्टानों के अपक्षय अपरदन से निर्मित हुई है।
प्रकृति-: इस मिट्टी का पीएच मान 7 से अधिक है अर्थात या छारीय प्रकृति की मिट्टी होती है।
क्षेत्र विस्तार-: मध्यप्रदेश में निश्चित मिट्टी का विस्तार बुंदेलखंड व रीवा पन्ना के पठार में है। तथा इस मिट्टी का विस्तार मध्य प्रदेश की कुल भौगोलिक भाग के 8.30% भाग पर है।
फसलें-: इस मिट्टी में मुख्यतः मोटे अनाज जैसे- ज्वार ,बाजरा, मक्का, गेहूं आदि की खेती होती है।
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