जैव प्रौद्योगिकी
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Toggleजैव प्रौद्योगिकी दो शब्दों से मिलकर बना है-
जीव- अर्थात पादप या जंतु
प्रौद्योगिकी- अर्थात विज्ञान का वह अनुप्रयोग जो मनुष्य के जीवन के लिए उपयोगी हो।
अर्थात्- “जैव प्रौद्योगिकी का तात्पर्य- जीवो (जंतु एवं पादप) या उनके अवयवों का प्रयोग करके, ऐसे उत्पादों या प्रक्रमों का विकास करने की तकनीक से है जो मानव के लिए उपयोगी हो तथा किसी समस्या का समाधान करते हो”
जैसे- संक्रमण फैलाने वाले वायरस या बैक्टीरिया का प्रयोग करके वैक्सीन तैयार करने की तकनीक। बायो फर्टिलाइजर निर्माण की तकनीकी। स्टेम सेल तकनीक। टेस्ट ट्यूब बेबी प्रक्रम से बच्चा प्राप्त करने की तकनीक।
जैव प्रौद्योगिकी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग 1919 में हंगिरी के इंजीनियर कार्ल-ईरेकी द्वारा किया गया।
जबकि ‘पाल बर्ग’ को जैव प्रौद्योगिकी का पिता कहा जाता है क्योंकि उन्होंने सर्वप्रथम दो वायरस के DNA को संयुक्त करके नवीन डीएनए का निर्माण किया था।
जैव प्रौद्योगिकी की शाखाएं-:
नीली जैव प्रौद्योगिकी – वह जैव प्रौद्योगिकी जो समुद्र या जलीय जीवो से संबंधित होती है। जैसे-समुद्र में तेल रिसाव की समस्या के समाधान स्वरूप तेल खाने वाले बैक्टीरिया का विकास की तकनीकी।
लाल जैव प्रौद्योगिकी – वह जैव प्रौद्योगिकी जो स्वास्थ्य या चिकित्सा से संबंधित होती है। जैसे- स्टेम सेल थेरेपी, जीन थेरेपी, टेस्ट ट्यूब बेबी।
श्वेत जैव प्रौद्योगिकी – वह जैव प्रौद्योगिकी जो औद्योगिक प्रक्रियाओं से संबंधित होती है। जैसे- भारत बायोटेक जैसे उद्योग द्वारा की का निर्माण किए जाने की तकनीकी।
हरित जैव प्रौद्योगिकी – वह जैव प्रौद्योगिकी जो कृषि एवं पर्यावरण से संबंधित होती है। जैसे-बायो फर्टिलाइजर का विकास, जीएम फसलें।
पीली जैव प्रौद्योगिकी – वह जैव प्रौद्योगिकी जो कीटों के के किड़वण द्वारा खाद्य एवं पोषक पदार्थों के निर्माण से संबंधित होती है। जैसे- दही बनाने की तकनीक।
ब्लैक जैव प्रौद्योगिकी – वह जैव प्रौद्योगिकी जो जैविक हथियार निर्माण से संबंधित होती है।
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जैव प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रयुक्त विभिन्न तकनीकें-:
जीन अभियांत्रिकी (genetic engineering)-:
जीन अभियंत्रिकी वह तकनीक है जिसके अंतर्गत कृतिम तरीके से किसी जीव डी एन ए में से अवांछनीय जीनों को हटाकर, वांछनीय(intrest) जीन डाले जाते हैं, ताकि संबंधित जीव में मनोवांछित गुण या क्षमता विकसित की जा सके।
जैसे-: कपास के अंदर कीटनाशक क्षमता विकसित करने के लिए, कपास के डीएनए में बेसिलस थूरिनजिएनसिस बैक्टीरिया का “क्राई” नामक जीन डाला गया। जिसे बीटी कपास कहा जाता है।
जीन अभियांत्रिकी प्रक्रिया के चरण-:
जीन अभियांत्रिकी एक जटिल प्रक्रिया है जो मुख्यतः तीन चरणों में पूरी होती है-:
जीन का विलगन-
सर्वप्रथम हमें जिस जीव में मनोवांछित गुणों का विकास करना होता है उसे जीव के डीएनए को प्राप्त करके, उस डीएनए का अवांछनीय जीन “रेस्ट्रिक्शन एंडोन्यूक्लीयस एंजाइम” द्वारा कट कर लिया जाता है।
जीन संश्लेषण-
फिर उस डीएनए में लाइगेज एंजाइम द्वारा वांछनीय जीन(interesting gene) को जोड़ा जाता है।
जिसके फलस्वरूप हमें रिकांबिनेंट डीएनए प्राप्त हो जाता है।
पीसीआर-इसके बाद पॉलीमर चैन रिएक्शन द्वारा रिकांबिनेंट डीएनए की आवश्यकतानुसार लाखों प्रतिकृतियां बनाकर संबंधित जीव की कोशिका में स्थापित कर दी जाती हैं।
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ट्रांसजेनिक ऑर्गेनाइज्म्स-: जीन अभियांत्रिकी की रिकांबिनेंट डीएनए तकनीक द्वारा विकसित मनोवांछित गुणों वाले जीव को ट्रांसजेनिक जीव कहते हैं।
जैसे- बीटी कपास।
जीन अभियांत्रिकी के लाभ-:
इससे वांछनीय लक्षणों वाले नवीन जीवों का विकास किया जा सकता है। जैसे डिजायर बेबी।
जीन अभियांत्रिकी द्वारा असाध्य अनुवांशिक रोगों का परमानेंट निराकरण किया जा सकता।
जीन अभियंत्रिकी द्वारा विशिष्ट कीटों या रोगों के विरुद्ध उच्च प्रतिरोधक क्षमता रखने वाली एवं अधिक उत्पादन देने वाली फसलों का विकास किया जा सकता।
जीन अभियंत्रिकी द्वारा आवश्यक- इंसुलिन,मानव विकास हार्मोन, तथा कई उपयोगी दवाओं का उत्पादन किया जा सकता है।
जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा जीनों को नियंत्रित करके, ऐसे हार्मोन्स को नियंत्रित किया जा सकता है जो अपराध के लिए जिम्मेदार होते हैं जिससे अपराधों को नियंत्रित किया जा सकता है।
हानि-:
जीन अभियांत्रिकी द्वारा ऐसी नई प्रजाति के जीवों का निर्माण हो सकता है जो संभवतः भविष्य में मानव के लिए घातक सिद्ध हो।
इससे जैविक हथियारों में बढ़ोतरी होगी जो युद्ध की खतरा को बढ़ाएगा।
यह सहज एवं प्राकृतिक व्यवस्था के प्रतिकूल है।
DNA-:
यह कोशिका के केंद्रक में मौजूद एक द्विकुण्डलित संरचना वाला अनुवांशिक पदार्थ होता है जो अनुवांशिक गुणों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में ले जाने के लिए जिम्मेदार होता है।
डीएनए ही आरएनबी को विशेष प्रकार के प्रोटीन अर्थात एंजाइम निर्माण का निर्देश देता है।
डीएनए के अंदर चार प्रकार की क्षार होते हैं-
एडीनिन,
थाइमिन,
गुआनिन,
साइटोसिन
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RNA-:
यह कोशिका द्रव में पाया जाने वाला एकल कुंडलिक पदार्थ होता है जो मुक्ता डीएनए के निर्देश पर प्रोटीन(एंजाइम) संश्लेषण का कार्य करता है।
ट्रांसक्रिप्शन-: डीएनए द्वारा आरएनए को भेजा गया संदेश।
जीन-:
जीन किसी भी जीव की सबसे छोटी अनुवांशिक इकाई होती है, जो DNA के अंदर पाये जाते है जीन ही किसी जीव की विशेषताओं का निर्धारक होता है।
जीन कोशिकाओं को विशेष प्रकार के प्रोटीन के निर्माण का निर्देश भी देते हैं। जिससे हमारे शरीर में आवश्यक प्रोटीन अर्थात एंजाइम का निर्माण होता है।
जीनोम-:
किसी जीव के सभी DNA जीनों की श्रृंखला जीनोम कहलाती है।
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जीन अभियांत्रिकी के अनुप्रयोग-:
जीन थेरेपी-:
जीन थेरेपी किसी असाध्य या अनुवांशिक बीमारी (हीमोफीलिया, डायबिटीज) को जड़ से ठीक करने की वह आधुनिक चिकित्सा पद्धति है, जिसमें संबंधित व्यक्ति के जीनोम (DNA)में से अनुपस्थित अथवा विकृत(detected) जीन के स्थान पर, दोषमुक्त जीन(correct) प्रतिस्थापित कर दिये जाते है। ताकि उसके शरीर में सभी आवश्यक हार्मोन(प्रोटीन) उपयुक्त मात्रा में रिलीज हो और वह स्वस्थ बना रहे।
जैसे- डायबिटीज से ग्रसित रोगी का इलाज करने उसके लिए, उसके जीनोम(डीएनए) में ऐसे जीन डाल दिए जाते हैं जो इंसुलिन एंजाइम निर्माण के लिए जिम्मेदार होते हैं। जिससे उसके शरीर में इंसुलिन एंजाइम की मात्रा बढ़ती है और डायबिटीज की समस्या दूर हो जाती है।
लाभ-:
इससे अनुवांशिक बीमारियों इलाज संभव है।
जीन थेरेपी द्वारा किसी भी असाध्य बीमारी का परमानेंट इलाज जाता है।
सीमाएं-:
जीन थेरेपी अभी अपने प्रयोगिक अवस्था में अर्थात् अभी सभी बीमारियों को ठीक करने के लिए जीन थेरेपी की तकनीक विकसित नहीं हो पाई है।
यह तकनीकी काफी ज्यादा महंगी है।
मानव जीनोम परियोजना-:
मानव के डीएनए में उपस्थित जीनों का अनुक्रम निर्धारित करने के लिए, अमेरिका के एनर्जी विभाग एवं नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ द्वारा 1990 मानव जीनोम परियोजना प्रारंभ की गई, जो 2003 को पूरी हुई।
इसके लाभ-:
मनुष्य के 6000 प्रकार के अनुवांशिक रोगों की पहचान एवं निदान का रास्ता खुल जाएगा।
जीन थेरेपी एवं स्टेम सेल थेरेपी के क्षेत्र में क्रांति आएगी जिससे सभी व्यक्तिय पूर्ण रूप से स्वस्थ रहेंगे।
डिजायर बेबी की संकल्पना साकार होगी।
निसंतान दंपतियों को संतान प्राप्त हो सकेगी।
जीनों को नियंत्रित करके, ऐसे हार्मोन्स को नियंत्रित किया जा सकता है जो अपराध के लिए जिम्मेदार होते हैं जिससे अपराधों को नियंत्रित किया जा सकता है।
डिजायर बेबी-:
डिजायर बेबी वह बच्चा होता है जो हमारी इच्छा के अनुरूप गुणों से युक्त होता है, और मनोवांछित गुणों से युक्त बच्चा पैदा करने की तकनीक डिजायर बेबी तकनीक कहलाती है। इस तकनीक के अंतर्गत डिजाइन बेबी प्राप्त करने के लिए बच्चे के जन्म के पूर्व उसके zygote(भ्रूण) के DNA में अवांछनीय जीन के स्थान पर, मनोवांछित गुणों वाले जीन डाल दिए जाते हैं। ताकि मनपसंद बच्चा प्राप्त किया जा सके।
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लाभ-
मनपसंद गुणों वाले बच्चे का विकास किया जा सकता है।
बच्चे में विभिन्न प्रकार की अनुवांशिक बीमारियों को जन्म के पहले ही दूर किया जा सकता है
हानि-:
इसे सामाजिक असमानता में व्यापक बढ़ोतरी होगी क्योंकि अमीर खानदान के लोग स्वस्थ, गुणों एवं अधिक आयु वाले बच्चे प्राप्त कर सकते हैं जबकि गरीब के बच्चे कम गुणों वाले होंगे परिणाम स्वरुप अमीर अमीर होते जायेंगे,गरीब और गरीब हो जायेंगे।
यह प्रकृति के साथ छेड़खानी होगी जिससे ऐसी प्रजाति विकसित हो सकती है जो मानव से बिल्कुल भिन्न हो एवं मानव पर कंट्रोल कर सके। जो मानव के अस्तित्व के लिए खतरा है।
जेनेटिक मॉडिफाइड क्रॉप्स-:
GM फसलें ऐसी फसलें होती हैं, जो हमारी इच्छा के अनुरूप गुणों या क्षमताओं से युक्त हों, और जीएम फसलों का विकास करने के लिए संबंधित फसल के बीज की कोशिका के डीएनए में जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा ऐसे जीन डाले जाते हैं, जो उस फसल के अंदर विशिष्ट क्षमता या गुण विकसित कर देते हैं।
जैसे-: बीटी कपास एक जेनेटिक मॉडिफाई कपास है, जिसके अंतर्गत बेसिलस थूरिनजिएनसिस बैक्टीरिया का “क्राई” नामक जीन डालकर, उसके अंदर कीटनाशकों के विरुद्ध प्रतिरोधक क्षमता विकसित की गई।
लाभ-:
यह फसल उत्पादन बढ़ाने में सहायक है। जिससे किसानों की आय में बढ़ोतरी होगी
फसलों के अंदर कीटनाशक प्रतिरोधकता विकसित करने में सहायक है जिससे कीटनाशक दवाइयों की आवश्यकता नहीं होगी।
यह तकनीक, फसलों को दुर्गम परिस्थिति में भी उपजाने में सहायक है। जिससे हर समय, हर जगह, हर प्रकार की फसल की खेती संभव हो जायेगी।
अनाज,सब्जी व फल-फूलों में उनके प्राकृतिक गुणों से भिन्न विशिष्ट गुणों का विकास किया जा सकता है, जैसे- सेव में संतरे का स्वाद लाया जा सकता है। आम का रंग नीला किया जा सकता है।
प्रमुख जेनेटिक मॉडिफाइड फसलें-:
बीटी कपास।
बीटी बैगन।
जीएम सरसों।
सुनहरा चावल।
स्टेम सेल-:
स्टेम सेल या रिक्त कोशिकाएं शरीर की ऐसी कोशिकाएं होती हैं जिनके अंदर शरीर के किसी भी अंग की कोशिकाओं को विकसित करने की क्षमता होती है। अर्थात ये शरीर के किसी भी अंग का निर्माण कर सकती है।
जैसे- लीवर, हड्डी, मांस पेशी, रक्त आदि
स्टेम सेल के स्त्रोत-:
स्टेम सेल मुख्यत: निम्न शारीरिक अवयवों में पाई जाती हैं
5 से 7 दिन के भ्रूण में।
हड्डी के अंदर बोन मैरो में।
इसके अतिरिक्त वर्तमान में गर्भनाल से स्टेम कोशिकाओं को प्राप्त करने की विधि भी खोज ली गई है।
स्टेम सेल का उपयोग-:
स्टेम सेल का उपयोग प्रयोगशाला में ही वांछित अंग तैयार करने में किया जाता है। जैसे- लीवर का निर्माण करने में। इसके प्रयोग से किसी भी अंग की खराब हो जाने की समस्या या विकलांगता की समस्या का समाधान किया जा सकता है।
इसका उपयोग शरीर के किसी अंग की नष्ट हो जाने वाली कोशिकाओं की पूर्ति के लिए भी किया जाता है। जैसे- कैंसर के रोगियों में स्वस्थ कोशिकाओं की पूर्ति के लिए।
इनका उपयोग कृत्रिम तरीके से रक्त निर्माण में भी किया जा सकता है।
क्लोनिंग-:
किसी जीव या उसके किसी अंग का, कृत्रिम तरीके से विकसित किया गया ऐसा शुद्ध प्रतिरूप (प्रतिकृति) जो शारीरिक गुणों के साथ-साथ अनुवांशिक गुणों में भी पैतृक जीव के समान ही होता है उसे उस जीव का क्लोन कहते हैं।
अर्थात क्लोन किसी जीव की शुद्ध प्रतिकृति (फोटोकॉपी) है।
और किसी जीव का क्लोन बनाने की आधुनिक जैव-प्रौद्योगिकी क्लोनिंग कहलाती है।
क्लोनिंग की प्रक्रिया-:
क्लोनिंग प्रक्रिया के अंतर्गत किसी भी जीव की कायिक कोशिका से, अलैंगिक विधि द्वारा उसके प्रतिरूप(क्लोन)की रचना की जाती है। क्लोनिंग प्रक्रिया के अंतर्गत निम्न में चरण अपनाये जाते हैं-:
सर्वप्रथम जिस भी जीव(नर या मादा) का क्लोन बनाना होता है, कुछ जीव की कोई भी एक कायिक कोशिका प्राप्त कर ली जाती है,
फिर उस कोशिका का DNA युक्त केंद्रक प्राप्त कर लिया जाता है।
और इस केंद्रक को किसी एक केंद्रक विहीन अर्थात खाली अंडाणु कोशिका में डाला जाता है जिससे zygote (भ्रूण) कोशिका का निर्माण होता है।
फिर इस zygote (भ्रूण) कोशिका को इलेक्ट्रिक शॉक देकर कोशिका विभाजन प्रक्रिया द्वारा 8 कोशिकाओं वाले ब्लास्टोसिस्ट में बदल दिया जाता है,
और अंत में इस ब्लास्टोसिस्ट को गर्भाशय में स्थानांतरित करके उस जीव का क्लोन प्राप्त कर लिया जाता है।
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क्लोन की विशेषताएं-
यह अलैंगिक विधि द्वारा निर्मित किसी जीव का प्रतिरूप होता है।
इसके लिए नर एवं मादा की जनन कोशिकाओं के निषेचन की आवश्यकता नहीं होती, अर्थात एकल पैरंट से संतान उत्पन्न की जा सकती है।
क्लोन संबंधित जीव की हूबहू प्रतिकृति होती है क्योंकि इसमें एक ही पैरेंट(नर अथवा मादा) के डीएनए का उपयोग होता है।
क्लोनिंग के प्रकार-:
रिप्रोडक्टिव क्लोनिंग
उपचारीय(थैरापीयूटिक) क्लोनिंग
रिप्रोडक्टिव क्लोनिंग– इस तकनीक के अंतर्गत किसी जीव की भांति दूसरा जीव बनाया जाता है।
उपचारीय(थैरापीयूटिक) क्लोनिंग- इस तकनीक के अंतर्गत चिकित्सीय उद्देश्य किसी जीव के विशिष्ट अंगों का निर्माण किया जाता है।
क्लोनिंग के लाभ-:
संकटग्रस्त प्रजाति के जीवन का क्लोन बनाकर इस प्रजाति के जीवो को विलुप्त होने से बचाया सकता है। अर्थात यह यह जैव-विविधता के संरक्षण में सहायक है।
थैराप्यूटिक क्लोनिंग द्वारा शरीर के विकृत हो जाने वाले अंगों का पुन: निर्माण करके उनका शरीर में प्रत्यारोपण किया जा सकता है।
इससे शरीर के अनुपस्थित अंगों का निर्माण करके मानव की विकलांगता को दूर किया जा सकता है।
यह कैंसर, एड्स,पार्किंसन, अल्जाइमर के उपचार में सहायक है क्योंकि क्लोनिंग के माध्यम से स्वस्थ एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली कोशिकाओं का निर्माण करके उन्हें रोगियों के शरीर में डाला जा सकता है। जिससे उनके शरीर में स्वस्थ कोशिकाओं की संख्या बढ़ेगी और आश्वस्त कोशिकाओं की संख्या घटेगी परिणाम स्वरूप वह स्वस्थ हो जाएंगे।
क्लोनिंग द्वारा बिना लैंगिक संबंध बनाए बच्चा प्राप्त किया जा सकता है।
हानियां-:
यह प्राकृतिक प्रजनन प्रक्रिया के प्रतिकूल है, जो विवाह संबंधी सामाजिक व्यवस्था को अनावश्यक बना देगा। क्योंकि पुत्र प्राप्त करने के लिए विवाह करने या लैंगिक संबंध बनाने की आवश्यकता नहीं होगी।
इसके प्रयोग से अपराध में वृद्धि होगी क्योंकि किसी व्यक्ति का क्लोन बनाकर उसका दुरुपयोग किया जा सकता है।
इसके प्रयोग से ‘क्लोन सेना’ बनाकर वर्गीय या जातिगत सत्ता की स्थापना की जा सकती है।
बनने वाले क्लोन में प्रीमेच्योर एजिंग की समस्या विद्यमान रहती है, जिससे उनकी आयु बहुत कम होती है।
क्लोनिंग से मानव का महत्व घट जाएगा क्योंकि उसे एक मशीन समझा जाने लगेगा। अर्थात वह लेबोरेटरी-रेट बन जाता है।
एक प्रजाति के सभी जीवों में व्यक्तिगत भिन्नता में कमी आएगी सभी जीव एक दूसरे के समरूप होंगे।
इसके अलावा क्लोन के प्रयोग से भविष्य में ऐसे अनेकों प्रभाव होंगे जिनका वर्तमान में अंदाजा भी नहीं लगा सकता है।
अतः इन सभी दुष्प्रभावों को देखते हुए वर्तमान में सभी देश में मानव का क्लोन बनाने पर प्रतिबंध लगा है।
भारत में क्लोनिंग का विकास-:
विश्व में सबसे पहले 1996 में डोली नामक भेड़ का क्लोन बनाया गया था, किंतु भारत में क्लोनिंग कार्यक्रम की शुरुआत 2007 में हुई, जिसके तहत भारत के नेशनल डेयरी रिसर्च इंस्टिट्यूट, करनाल द्वारा सर्वप्रथम 2009 में भैंस का क्लोन “समरूपा” बनाया गया। इसके पश्चात गरिमा-1 और गरिमा-2 क्लोन का
विकास किया गया।
तथा वर्ष 2013 में इस गरिमा क्लोन ने प्राकृतिक जनन द्वारा एक बच्चे को जन्म दिया जिसे ‘महिमा’ का नाम दिया गया।
वर्ष 2014 में NDRI ने छत्तीसगढ़ की संकटग्रस्त जंगली भैंस का ‘दिपाशा’नामक क्लोन तैयार किया और इस प्रजाति को विलुप्त होने से बचाया।
उत्तक संवर्धन -:
उत्तक संवर्धन आधुनिक जैव-तकनीकी है, जिसमें किसी भी पौधे के ऊत्तक द्वारा कृत्रिम तरीके से प्रयोगशाला में उस पौधे का निर्माण किया जा सकता है।
अर्थात यह पौधे का क्लोन बनाने की तकनीक है।
इसके अंतर्गत सर्वप्रथम पौधे के किसी भी अंग को छोटे-छोटे ऊतको में काटकर ऐसे रसायनों में रखा जाता है जो इसके लिए आवश्यक हार्मोन एवं पोषक तत्वों की पूर्ति करें, जिससे ये प्रत्येक ऊतक एक पौधे के रूप में विकसित हो जाता है।
फिर उस पौधे को मिट्टी में लगा दिया जाता है।
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जैव प्रौद्योगिकी का विभिन्न क्षेत्रों में उपयोग-:
वर्तमान तथा आने वाले भविष्य में जैव प्रौद्योगिकी पूरी मानव जाति के लिए एक क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में सक्षम है क्योंकि हम इसकी विभिन्न क्षेत्रों में महत्वपूर्ण उपयोगिता है इसकी उपयोगिता के कुछ प्रमुख बिंदुओं को निम्न प्रकार से समझ सकते हैं-:
चिकित्सा के क्षेत्र में उपयोग
रोगों की पहचान करने में-:
बायो टेक्नोलॉजी के माध्यम से ‘बायो डायग्नोस्टिक किट’ का विकास किया जा रहा है जिसका उपयोग विभिन्न प्रकार के रोगों की पहचान हेतु किया जाता है। जैसे- कोरोना किट, मलेरिया किट, टीवी पहचान किट, एचआईवी पहचान किट।
दवाओं एवं वैक्सीन के निर्माण में-:
वर्तमान में प्रयोग होने वाली लगभग सभी प्रकार की वैक्सीन एवं दवाओं का निर्माण जैव तकनीकी द्वारा जीव पदार्थों एवं उनके अवयवों से ही किया जाता है।
अनुवांशिक बीमारियों के इलाज में-:
बायो टेक्नोलॉजी की स्टेम सेल तकनीक तथा जीन थेरेपी का उपयोग विभिन्न प्रकार की अनुवांशिक बीमारियों जैसे- डायबिटीज, हीमोफीलिया को जड़ से ठीक करने में किया जाता है।
अंग निर्माण में-:
थैरापीयूटिक क्लोनिंग द्वारा कृत्रिम तरीके से मनुष्य के लिए उपयोगी अंगों का निर्माण करके, मनुष्य की विकलांगता को दूर करने में भी बायो टेक्नोलॉजी का उपयोग किया जाता है। और भविष्य में इसका व्यापक स्तर पर प्रयोग होगा जिससे संपूर्ण विश्व से लगभग विकलांगता की समस्या समाधान ही हो जाएगा।
कृत्रिम तरीके से बच्चा पैदा करने में-:
बायो टेक्नोलॉजी के अंतर्गत टेस्ट ट्यूब बेबी प्रक्रिया द्वारा ऐसे कपल को संतान प्राप्ति कराई जा सकती है जो प्राकृतिक तरीके से संतान पैदा करने में सक्षम नहीं है।
इन सबके अलावा बायोटेक्नोलॉजी द्वारा भविष्य में मनपसंद वांछित गुणों वाले बच्चे अर्थात डिजायर बेबी को प्राप्त किया जा सकता है।
कृषि के क्षेत्र में उपयोग-:
जेनेटिक मॉडिफाइड फसलों के रूप में-:
बायो टेक्नोलॉजी के अंतर्गत DNA रिकांबिनेशन तकनीक के माध्यम से ऐसी ट्रांसजेनिक फसलें विकसित की जा रही हैं जो जो उच्च उत्पादन क्षमता के साथ साथ उच्च रोग-प्रतिरोधक क्षमता वाली भी होती है,जैसे- बीटी कपास, बीटी बैगन, गोल्डन राइस, जीएम सरसों।
इनके प्रयोग से हर समय, हर स्थान, पर हर प्रकार की फसलें और जाई जा सकती है परिणाम स्वरूप खेती के विस्तार क्षेत्र एवं किसानों की आय में बढ़ोतरी होगी।
जैव उर्वरक के रूप में-:
ऐसे सूक्ष्मजीव जो पौधों को पोषक तत्व प्रदान करने में सहायक होते हैं उन्हें जैव उर्वरक कहते हैं बायो टेक्नोलॉजी के माध्यम से विभिन्न प्रकार के जैव उर्वरकों का विकास किया गया है।
जो एक ओर फसल की उत्पादन क्षमता को बढ़ा देते हैं दूसरी ओर पर्यावरण हितैषी भी होते हैं।
जैसे- राइजोबियम जैव उर्वरक, नाइट्रोजन जैव उर्वरक, एजोटोबेक्टर आदि।
जैव कीटनाशक के रूप में-:
ऐसे जीव या जैविक पदार्थ जो फसलों में लगने वाले हानिकारक कीटों एवं खरपतवारों को नष्ट कर देते हैं उन्हें जैविक कीटनाशक कहते हैं। जैसे- बेसिलस थूरिनजिएनसिस बैक्टीरिया फसलों में लगने वाले कीटों को नष्ट कर देता है।
इनके प्रयोग से हमें फसलों में रासायनिक कीटनाशकों के प्रयोग की जरूरत नहीं होती है। जो बायो टेक्नोलॉजी के माध्यम से ही संभव हो पाया है।
टिशू कल्चर के रूप में-:
टिशू कल्चर वह जैव-प्रौद्योगिकी है जिसमें पौधे के केवल ऊतक के माध्यम से अनेकों पौधे विकसित किए जा सकते हैं, इसका लाभ यह होता है कि बिना बीज वाले या कम बीज वाले पौधों जैसे- केला, चंदन, रबड़ का बहुत ही कम समय में व्यापक उत्पादन किया जा सकता है, तथा ऊतक संवर्धन से प्राप्त पौधे स्वस्थ एवं एक समान समरूपता वाली उपज प्रदान करते हैं।
पशुपालन के क्षेत्र में-:
डीएनए रिकांबिनेशन तकनीक द्वारा अधिक गुणवत्ता वाली नस्लों का विकास किया जा सकता है। जो पर्याप्त मात्रा में दूध एवं मांस प्रदान करते हैं।
विलुप्त होने वाले पशुओं का क्लोन बनाकर उनकी प्रजाति को संरक्षित किया जा सकता है जैसे- वर्ष 2014 में NDRI ने छत्तीसगढ़ की संकटग्रस्त जंगली भैंस का ‘दिपाशा’नामक क्लोन तैयार किया और इस प्रजाति को विलुप्त होने से बचाया।
बायो तकनीकी का प्रयोग विभिन्न दवाइयों का निर्माण करके पशुओं की जीवन रक्षा में भी किया जाता है।
पर्यावरण के क्षेत्र में बायो टेक्नोलॉजी का उपयोग-:
प्रदूषण कम करने में उपयोगी-:
बायोटेक्नोलॉजी द्वारा ऐसे पदार्थ निर्मित किए गए हैं जो प्रदूषण के नियंत्रण में सहायक है जैसे-
बायोडिग्रेडेबल प्लास्टिक, जिससे वर्तमान में प्रयोग होने वाली प्लास्टिक में कमी आएगी और पर्यावरण प्रदूषण कम होगा
बायो फर्टिलाइजर , बायो कीटनाशक इनके प्रयोग से रासायनिक कीटनाशकों एवं उर्वरकों के प्रयोग पर कमी आएगी परिणाम स्वरूप मृदा, जल एवं वायु प्रदूषण कम होगा।
जैव विविधता के संरक्षण में उपयोगी-:
क्लोनिंग तकनीक द्वारा संकटग्रस्त प्रजातियों का क्लोन बनाकर उनको लुप्त होने से बचा जा सकता है जो जैव-विविधता के संरक्षण में सहायक।
मरुस्थलीकरण को रोकने में उपयोगी-:
जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा ऐसे पौधों का विकास किया जा सकता है जो मरुस्थलीय क्षेत्र में जीवित रहने की क्षमता रखते हैं और इन पौधों को मरुस्थलीय क्षेत्र में रोपित करके मरुस्थल के विस्तार में कमी तथा हरियाली के विस्तार में वृद्धि की जा सकती है।
उद्योगों के क्षेत्र में बायो टेक्नोलॉजी की उपयोगिता-:
औद्योगिक क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली बायोटेक्नोलॉजी को सफेद बायोटेक्नोलॉजी कहते हैं।
और औद्योगिक क्षेत्र में बायो टेक्नोलॉजी की उपयोगिता निम्न बिंदुओं द्वारा समझी जा सकती है-:
जैव प्रौद्योगिकी खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों में उपयोगी है जैसे- लैक्टोबैसिलस बैक्टीरिया द्वारा दही बनाने में, लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया द्वारा अचार बनाने में, ईस्ट द्वारा ब्रेड बनाने में उपयोगी है।
उच्च गुणवत्ता वाले बीजों के व्यवसायिक उत्पादन में बायो टेक्नोलॉजी की जीन अभियांत्रिकी तकनीक के माध्यम से उद्योगों में व्यवसायिक लाभ के लिए ऐसे बीज तैयार किए जाते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छा उत्पादन दे सकें। जिससे उद्योगों को भी लाभ होता है और किसानों को भी।
औषधि निर्माण उद्योग में-: वर्तमान में संचालित सभी औषधि निर्माण उद्योगों में बायो टेक्नोलॉजी का उपयोग करके ही जैविक पदार्थों से विभिन्न दवाइयां एवं वैक्सीन बनाई जाती हैं। जैसे-भरत की बायोटेक कंपनी द्वारा कोरोना के टीके का निर्माण।
खाद्य पदार्थों के संरक्षण के रूप में-:
बायो टेक्नोलॉजी के माध्यम से हैं अनेकों ऐसे पदार्थों का निर्माण संभव हो सका है जिनका उपयोग खाद्य पदार्थ के संरक्षण का निर्माण किया जाता है जैसे- चाय से प्राप्त होने वाले ‘पालीफिनोल’ का उपयोग एंटी ऑक्सीडेंट एवं सूक्ष्मजीव प्रतिरोधी के रूप में किया जाता है
जैव प्रौद्योगिकी विभाग-:
भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अंतर्गत जैव- प्रौद्योगिकी विभाग की स्थापना 1986 में की गई जिसका उद्देश्य-:
जैव- प्रौद्योगिकी की संभावनाओं का संवर्धन करना।
कृषि के क्षेत्र में उच्च उत्पादकता वाली फसलों का विकास को प्रोत्साहन देना।
असाध्य रोगों का उपचार करने के लिए जीन थेरेपी को बढ़ावा देना।
फॉरेंसिक जैव प्रौद्योगिकी-:
अपराधी को पहचानने एवं न्यायिक प्रक्रिया से संबंधित जटिल प्रश्नों का साक्ष्यपूर्ण उत्तर देने वाली जैव-प्रौद्योगिकी, फॉरेंसिक जैव प्रौद्योगिकी कहलाती है।
(फॉरेंसिक या अपराध विज्ञान- अपराध या अपराध से संबंधित जटिल गतिविधियों को वैज्ञानिक तरीके से समझाने वाला विज्ञान)
फॉरेंसिक जैव-प्रौद्योगिकी का उपयोग ऐसी अपराधिक घटना किस समय वास्तविक अपराधी की पहचान करने में किया जाता है
जिस अपराधिक घटना का कोई गवाह मौजूद ना हो
या जिस अपराधिक घटना में विश देकर यि बंदूक आदि हथियारों द्वारा किसी का मर्डर किया गया हो किंतु मारने वाला स्वयं को निर्दोष बताता हो।
फॉरेंसिक जैव प्रौद्योगिकी में प्रयुक्त होने वाली प्रमुख तकनीक के निम्नलिखित हैं-
डीएनए प्रोफाइल टेस्ट
पॉलीग्राफ़ टेस्ट
नारको टेस्ट
ब्रेन मैपिंग
बायोमेट्रिक ( फिंगरप्रिंटिंग)
डीएनए प्रोफाइल टेस्ट-:
व्यक्ति की कोशिकाओं के डीएनए के माध्यम से किसी व्यक्ति की पहचान करने बाला टेस्ट डीएनए प्रोफाइल टेस्ट कहलाता है।
वस्तुत: सभी व्यक्तियों के डीएनए में चार क्षार होते हैं- एडीनिन, थाइमिन, गुआनिन, साइटोसिन किंतु सभी व्यक्ति के डीएनए में इन क्षारों का अनुक्रम भिन्न-भिन्न होता है, और डीएनए की इसी विशेषता (अनुक्रम में भिन्नता) के माध्यम से व्यक्ति की पहचान की जाती है।
इसका उपयोग-:
जैविक सबूतों(खून ,बाल) के आधार पर वास्तविक अपराधी की की पहचान करने में।
बच्चों की वास्तविक माता-पिता की पहचान कर, पैतृक संपत्ति संबंधी विवादों को निपटाने में।
किसी दुर्घटना के दौरान पहचान बनाने वाले विकृत शवों की पहचान करने में।
पॉलीग्राफ़ टेस्ट-:
इस टेस्ट का उपयोग व्यक्ति के झूठ पकड़ने के लिए किया जाता है।
इसके अंतर्गत जिस भी इंसान का टेस्ट करना होता है, उसके सीने में दिल की धड़कन मापने वाले कार्डियो कप एवं इलेक्ट्रोड लगाए जाते हैं, हाथ की बाहों में ब्लड प्रेशर को मापने वाले मशीन और सांस आदि मापने के लिए इसी तरह की अन्य मशीनें लगाई जाती है। जो उसकी धड़कन, सांस, रक्तचाप के उतार-चढ़ाव के ग्राफ को दर्शातीं हैं, इसके बाद उससे पहले सामान्य सवाल पूछे जाते हैं और फिर अचानक से अपराध से जुड़े सवाल पूछे जाते हैं यदि अपराध से जुड़े सवाल पूछने पर ग्राफ में अचानक से बदलाव आता है तो इससे स्पष्ट होता है कि वह झूठ बोल रहा है यदि बदलाव नहीं आता तो इसका मतलब वह सच बोल रहा है।
नारको टेस्ट-:
इस टेस्ट का उपयोग भी किसी विकटिम(शंकित व्यक्ति) के झूठ को पकड़ने के लिए किया जाता है। इसके अंतर्गत संबंधित विकटिम को सोडियम पेंटोथल का इंजेक्शन लगाया जाता है जिससे वह बेहोशी की अवस्था में चला जाता है किंतु बोलने की अवस्था में रहता है। ऐसी स्थिति में वह जो भी बोलता है सही बोलता है परिणाम स्वरूप उसकी कथनों द्वारा झूठ एवं सच का पता चल जाता है।
बायोमैट्रिक्स-:
बायोमैट्रिक्स वह तकनीक है जिसके अंतर्गत किसी भी व्यक्ति (या जीव) की पहचान उसके शरीर एक एवं व्यावहारिक गुणों से सत्यापित की जाती है।
क्योंकि व्यक्ति के शरीर में कुछ ऐसे विशिष्ट अवयव होते हैं जो उसकी व्यक्तिगत पहचान को दर्शाते हैं जैसे- फिंगरप्रिंट, रेटिना, चेहरे की आकृति आदि अतः इन्हीं अवयवों की छाप द्वारा व्यक्ति की पहचान सत्यापित की जाती है। वर्तमान में अनेकों बायोमेट्रिक उपकरण प्रचलित है
जैसे-:
फिंगरप्रिंट।
फेस लॉकर।
आइरिस चेकअप लॉकअप।