भगवत गीता का नीति शास्त्र और प्रशासन में उसकी भूमिका
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Toggleभगवत गीता का परिचय -:
भागवत गीता, महर्षि वेदव्यास द्वारा रचित महाभारत के भीष्म पर्व (6 वां पर्व) का मुख्य खंड है।
भगवत गीता में 18 अध्याय तथा 700 श्लोक हैं।
भगवत गीता में मुख्यतः महाभारत का युद्ध शुरू होने के पूर्व भगवान कृष्ण द्वारा, अर्जुन को अपने कर्तव्य पालन के लिए दिए गए उपदेशों का वर्णन है।
क्योंकि, जब अर्जुन ने अपने सामने, विरोधी के रूप में अपने सगे संबंधियों,पितामह ,गुरु को देखा है तो वह संभावित दुष्परिणाम (मृत्यु) की भय से अपने कर्तव्य (युद्ध) से विमुख हो जाता है; तब कृष्ण उसे अपनी कर्तव्य पालन के लिए समझाते हैं।
वर्तमान में भागवत गीता का महत्व और भी ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि कृष्ण ने जिस प्रकार की स्थिति का समाधान के रूप में गीता ज्ञान दिया, उसी प्रकार की स्थिति वर्तमान युग में भी दिखाई देती है।
भगवत गीता के नीति शास्त्र को निम्न बिंदुओं के माध्यम से समझा जा सकता है-:
गुणकर्म -:
भगवत गीता के अनुसार, व्यक्ति के अंदर तीन गुण पाए जाते हैं
सत्व गुण-यह सर्वश्रेष्ठ गुण है, जिसमें पवित्रता, सत्यता, समर्पण,ज्ञान एवं परिश्रम जैसे लक्षण शामिल है।
रजो गुण –इस गुण में क्रोध, ऊर्जा, गति, लोभ जैसे लक्षण शामिल है।
तमो गुण- यह सबसे निम्न गुण होता है, जिसमें अहंकार, अज्ञानता,आलस,काम-भोग जैसे लक्षण शामिल है।
और व्यक्तियों में किसी एक गुण की प्रधानता होती है; ब्राह्मणों में सत्व गुण की प्रधानता होती है, क्षत्रियों में राजो गुण की प्रधानता होती है तथा वैश्य और शूद्र में तम गुण की प्रधानता होती है। अतः अपने प्रधान गुण की प्रवृत्ति के अनुसार कर्म करना चाहिए।
स्वधर्म -:
स्वधर्म का अर्थ है स्वयं का धर्म अर्थात कर्तव्य।
अर्थात हमें अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए यही हमारा धर्म है।
(उन्होंने स्वधर्म का उपदेश देते हुए अर्जुन से कहा कि है पार्थ तुम अपने क्षत्रिय होने के कर्तव्य (अर्थात-युद्ध) का पालन करो। )
आपद धर्म -:
आपद धर्म का अर्थ है कि विशेष (आपातकालीन) परिस्थितियों में सामान्य धर्म विपरीत जाकर कार्य किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि सत्य बोलने से अनेकों लोगों की जान जाती है तो सत्य ना बोलना ही धर्म है।
निष्काम कर्मयोग-:
निष्काम कर्म का अर्थ है- फल या परिणाम की आसक्ति रखे बिना, नि:स्वार्थ भाव से अपने कर्म करना।
क्योंकि-
कर्म पर तो व्यक्ति का नियंत्रण होता है,
लेकिन कर्म के फल पर ईश्वर का नियंत्रण होता है।
और ईश्वर कर्म-फल के सिद्धांत के अनुसार ही कर्मों का फल देता है-
अच्छा कर्म किया है तो अच्छा फल मिलेगा
बुरा कर्म किया है तो बुरा फल मिलेगा।
अतः फल की चिंता किए बिना अच्छे कर्म करने चाहिए।
स्थिरप्रज्ञ-:
स्थिरप्रज्ञ का अर्थ है- लाभ हानि सुख दुख में मन तथा बुद्धि को स्थिर रखना।
अर्थात अपनी कर्तव्यों का विचलित हुए बिना दृढ़ता पूर्वक पालन करना।
योग(मोक्ष) एवं इसके मार्ग-:
गीता में योग का अर्थ है जीवाआत्मा का परमात्मा से मिलन।
और योग अर्थात मोक्ष के लिए मुख्यतः तीन मार्ग बताए गए हैं –
ज्ञान योग-ज्ञान के माध्यम से योग(मोक्ष) की प्राप्ति।
कर्म योग- कर्म के माध्यम से योग(मोक्ष) की प्राप्ति।
भक्ति मार्ग- भक्ति के माध्यम से योग(मोक्ष)की प्राप्ति।
इन तीनों मार्गों में से कर्म-योग सर्वश्रेष्ठ मार्ग है।
सुशासन के लिए आवश्यक गीता के नैतिक उपदेश-:
स्वधर्म -: स्वधर्म का अर्थ है स्वयं का धर्म अर्थात कर्तव्य; इससे सीख लेकर एक प्रशासक को, वही करना चाहिए जो उसकी आचरण संहिता के अनुसार है।
योग कर्मसु कौशलम-कर्मों की कुशलता ही योग है; अतः एक प्रशासक को अपने कर्मों को कुशलता पूर्वक(दक्षतम रूप में) करना चाहिए।
स्थिरप्रज्ञ-स्थिरप्रज्ञ का अर्थ है- मन तथा बुद्धि को स्थिर रखना; अतः एक प्रशंसक को बिना भय, छल, पूर्वाग्रह ,दबाव आदि से प्रभावित हुए कर्तव्यों का दृढ़ता पूर्वक पालन करना चाहिए।
लोक संग्रह-लोक संग्रह का अर्थ है कि सामाजिक कल्याण की दृष्टि से कार्यों को करना।
अतः एक लोक सेवक को अपना निजी हित ध्यान में ना रखते हुए सामाजिक हित को ध्यान में रखते हुए कार्य करना चाहिए।
समत्वं योग उच्चयते- समत्वं योग उच्चयते, का अर्थ है प्रत्येक परिस्थिति में एक समान व्यवहार करना; अतः एक लोक सेवक को सफलता तथा सफलता दोनों की स्थिति में उत्साह के साथ कार्य करना चाहिए।
निष्काम कर्म- फल की चिंता किए बिना कर्म करना; एक लोक सेवक को निस्वार्थ भाव से काम करना चाहिए ना कि अपनी प्रसिद्धि के लिए।
इसलिए बहुत से देसी-विदेशी महापुरुषों (जैसे- महात्मा गांधी) ने गीता को अपनी समस्याओं के समाधान का महत्वपूर्ण ग्रंथ माना है।